काव्य का उत्थान और शुद्ध हिन्दी लेखन।
आज समीक्षक और आलोचक समय-समय पर ये जोर दे रहें हैं कि हिन्दी काव्य सृजन में भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाए ,काव्य लेखन में अहिन्दी शब्दों का पूर्ण त्याग किया जाए, कम से कम काव्य की प्रमुख विधाओं को परिष्कृत रखा जाए।
तो कुछ लोग प्रश्न उठाते हैं कि कई तरह की त्रुटियाँ हमारे महान रचनाकारों में भी देखने को मिल जाती है।
ये लेख उसी के उत्तर में लिखने का प्रयास है।
वो समय काव्य का उत्थान काल था।
हिन्दी या देवनागरी का नहीं,ना उस समय शिक्षा का स्वरूप विस्तृत था,जिस अभिभावक को अपने बच्चों को जो साधन समझ आता वैसी शिक्षा व्यवस्था कर दिया करते थे,
कुछ तो शिक्षा के लिए किसी गुरु के पास नहीं जाते थे ,पर जन्म-जात प्रतिभा के बल पर आश्चर्यजनक सृजन करते थे ,जो आज तक एक युग के रूप में हमारे सामने उपस्थित हैं ।
धीरे -धीरे हिन्दी का विकास हुआ और उन्ही के सृजन को आधार मान कर प्रबुद्ध मनस्वियों ने बहुत से सुधार किए, नियम बनाए।
समय के साथ और शोध कार्य होते रहे, हिन्दी का स्वरूप निखर कर सामने आया, शुद्धता और अलंकारों का निखरा रूप सामने आया ,ठीक ये वो समय भी था जब पद्य लेखन में बंधन मुक्तता आई, काव्य अपने ऊंचाइयों पर था पर छंद लेखन सीमित हो गया , बहुत परिवर्तन हुए ,आम व्यक्ति अपने भावों को साधने लगा बंधन मुक्त होकर लिखने लगा ,काव्य में विविधता आई, पर छंद और परिपाटी के लेखन को क्षति हुई ।
अब इधर कुछ वर्षों में देखने को आ रहा है , परिपाटी लेखन पर विद्वानों का आकर्षण बढ़ा है ,वो चाहते हैं परिपाटी भी बनी रहे और हिन्दी की शुद्धता पर जोर दिया जाए ,तो छंद और पुरानी विधाओं में शुद्धता और सुदृढ़ नियमावली बना कर सृजन किया जाए ,जो आने वाले समय के लिए एक उदाहरण बन जाए ,नये शोध के मार्ग खुले, हिन्दी का पूर्ण वैज्ञानिक विकास हो ,नये लोग जुड़ें और सिद्धांतों को सुंदर आधार दें , नये सृजन हो और कठिन नियमों के साथ ।
कम लिखें पर ऐसा लिखें जो हमेशा की धरोहर बन जाए।
इस संदर्भ में हम लोकोक्तियों का और मुहावरों का प्रयोग करके काव्य को सुंदर और आम व्यवहार से जोड़ सकते हैं ,समास के यथा संभव प्रयोगों से किसी भी विधा के लेखन में बिखराव से बच सकते हैं,
और छोटी से छोटी काव्य विधाओं का सशक्तिकरण कर सकते हैं।
अलंकारों और शुद्धता का सामंजस्य किसी भी पारम्परिक विधा को एक स्थायित्व और सौंदर्य प्रदान करेगा ।
हमें विधाओं से छेड़छाड़ नहीं करनी अपितु उनमें गहनता और भाषा बोध को उन्नत करने के प्रयास करने चाहिए।
ठोस बिंबों का सहयोग भी किसी काव्य को चमत्कारी और गूढ़ भावों से युक्त बनाने में सहायक होगा ।
रहा काव्य (नियम बद्ध काव्य या छंद लेखन ) में ब्रज-भाषा ,अवधि भाषा और आंचलिक भाषाओं के मिश्रण का होना ,तो यही सोचना है कि इन भाषाओं का अपना एक पूरा का पूरा साहित्य है और समृद्ध है ,फिर भी उस पर भी कोई लिखना चाहे तो लिखे ।
पर हर वो साहित्यकार जो कि हिन्दी के उत्थान और मृतप्राय: विधाओं के पुनरुत्थान में प्रण प्राण से लगा हो वो चाहेगा कि हिन्दी को ऊंचाई पर लाना है ,उसे विश्व स्तर तक उठाना है तो अहिन्दी शब्दों से बचना जरूरी है ।सभी छंद जाय ,आय ,आत जात, मात खात नहिं इत्यादि बहुत से शब्दों के बिना भी लिखे जा सकते हैं ,
दोहा , सोरठा, चौपाई, रोला कुन्ड़लियाँ और भी बहुत से छंद ।
हिन्दी एक समृद्ध भाषा है उस के पास शब्दों का जो कोष है वो नि:संदेह किसी और भाषा के पास नहीं है, बस प्रतिबद्धता जरूरी है क्योंकि सदियों से कई भाषाओं के शब्द हमने आम बोलचाल में अपना लिए हैं।
प्रयास रहे कि हिन्दी काव्य सृजन को हिन्दी रहने दिया जाए।
कुसुम कोठारी।
बेहतरीन रचना सखी, सारगर्भित और सार्थक
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी! आपको अपने ब्लाग पर सक्रिय देख बहुत खुशी हुई ।
Deleteबिल्कुल शत प्रतिशत सहमत आपकी बात से सखी।सुन्दर व सार्थक लेख👌👌👌👌👌
ReplyDeleteजी सादर आभार आपका।
Deleteआपकी प्रतिक्रिया से लेखन को आयाम मिलें ।
अति उत्तम ,आप से प्रेरणा ले कर ऐसे ही लिखने का प्रयास करेंगे ,
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी आपको अपने फर्लांग पर देख आनंद मिला ।
DeleteAgree
ReplyDeleteसाभार स्वागत है आपका पाखी जी, आपका मेरे बब्लाग पर आप पहली बार आई हैं हमेशा स्नेह बनाया रखें।
Deleteसस्नेह आभार।
Agree
ReplyDeleteकुसुम दी,हिन्दी एक समृद्ध भाषा हैं। हिंदी लेखन में जरूरत हैं तो बस प्रतिबद्धता की। विचारनीय लेख।
ReplyDeleteआभार ज्योति बहन आपकी सार्थक टिप्पणी से लेखन को गति मिली।
Deleteसस्नेह।
चिन्तनपरक और सारगर्भित लेख ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार मीना जी आपका स्नेह सदा उर्जा देता है ।
Deleteसस्नेह आभार आपका पम्मी जी ।
ReplyDeleteपांचलिंक में सृजन पहुंच गया तो निहाल हो गया।
मैं अवश्य मंच पर उपस्थिति दूं गी।
जी दी आपका शोध परक लेख अनेक बिंदुओं को छू रहा है। साहित्य के मृतप्राय विधाओं को जीवंत करने का विचार संकल्प और प्रतिबद्धता बेहद सराहनीय है।
ReplyDeleteशिल्प,शैली, भाव, विधाओंं की विविधता के साथ-साथ वर्तनी शुद्धता पर भी ध्यान देना अति आवश्यक है वरना सारी तपस्या व्यर्थ हो जायेगी।
आपने बहुत अच्छा लिखा है दी।
आगे भी आपके ऐसे विचार पढ़ने को इच्छुक हूँ दी।
सादर।
सादर
Sweta Sinha प्रिय श्वेता आपकी शानदार प्रतिक्रिया ने
Deleteमुझे सचमुच साहस प्रदान किया कि आगे भी कुछ सार्थक लिखती रहूं, हालांकि आप मुझे बहुत बहुत पहले से कहती रही हो दी लेख और गद्य लिखों पर मैं बहुत कम लिखती हूं जब भी लिखती हूं आपकी खुले दिल से प्रशंसा मिलती है ।
वर्तनी की शुद्धता पर लिखना मुझ से छूट गया वो आपके टीका से पूर्ण हुआ।
बहुत बहुत आभार।
सस्नेह।
बहुत सुंदर और सार्थक लेख 👌👌👌👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी प्रोत्साहन मिला।
Deleteप्रिय कुसुम जी लाजवाब लेख 👏👏👏 आपके कथन से पूर्णतः सहमत। एक हिन्दी साहित्यकार होने के नाते हम सब का उत्तरदायित्व है कि हम अपने लेखन में अधिक से अधिक शुद्धता लाएं। भाषा तो सभी अच्छी हैं और उनका ह्रदय से सम्मान होना चाहिए पर जहाँ साहित्य की बात है तो उसे अशुद्धि से बचाना चाहिए। भूतकाल के उदाहरण लाजवाब है और हमारे मार्गदर्शक भी पर हमें उनसे सीख लेकर नए भविष्य की ओर अग्रसर होना चाहिए। आपका लेख बहुत ही प्रेरणादायक और उपयोगी है । कलम ही कलम को जगा सकती है।हमने भी कभी साहित्य को इतनी गंभीरता से नही लिया पर 'कलम की सुगंध' मंच से जुड़ने के बाद हमें साहित्य का सही अर्थ समझ आया। आदरणीय संजय कौशिक 'विज्ञात' जी के मार्गदर्शन में हम सभी अपना पूरा योगदान देने का प्रयास कर रहें हैं । उनके प्रयास और आपके अथक परिश्रम को सादर नमन 🙏🙏🙏
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार नीतू जी आपकी प्रतिक्रिया ने लेख को गति दी है, और जो मैं नहीं लिख पाई उस पर आपने प्रकाश डाल कर लेख को पूर्णता दी,
Deleteआप की सारगर्भित प्रतिक्रिया से लेखन को सार्थकता मिली ,आपका सहयोग सदा मेरा मार्गदर्शन करता रहा है ।
आदरणीय संजय कौशिक "विज्ञात" जी की प्रेरणा से ही ये लेख लिखा है मैंने उनका समय समय पर पथ-प्रदर्शक सहयोग हर विद्यार्थी के लिए अतुल्य एंव अमुल्य है।
बहुत बहुत आभार आपकी सुंदर प्रतिक्रिया के लिए।
आदरणीया कुसुम कोठारी जी सादर नमन , आपने बहुत ही सुंदर और सारगर्भित लेख लिखा है। लेख के माध्यम से हिन्दी देवनागरी उत्थान के आज तक देश-विदेश में सुधारवादी अनेक कार्य समय-समय पर होते रहे हैं। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार और विस्तार से प्रेरित होकर हिन्दी भाषा के आवश्यक तथ्यों को आपने गहराई से समझा- जाना और उन्हें समझाने का सार्थक प्रयास भी किया है ।
ReplyDeleteआज हिन्दी अंतरराष्ट्रीय भाषाओं में सम्मिलित है। इसलिए भारत वर्ष में हिन्दी भाषा का शुद्ध लेखन और शुद्ध उच्चारण भी अनिवार्य समझना चाहिए। यह हम भारतीयों का परम कर्त्तव्य भी बनता है। इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए आपके द्वारा हिन्दी के प्रभाव की आवश्यकता को अच्छे से समझा है। आपने इस लेख के माध्यम से ऐसी आवाज उठाई है जो आने वाले समय में अवश्य मानी जाएगी। आपने अपनी समझ को विस्तृत आकार देते हुए हिन्दी साहित्य के प्रति भी जिम्मेदारी दिखाई है। विश्वास है आपके इस सराहनीय प्रयास से कुछ तो अवश्य प्रभावित भी होंगे। लेख सार्थक होगा, पुनः सादर नमन
समय-समय पर आपसे मिले निर्देशों को बस अपने शब्दों में लिखने की कोशिश की है ।
Deleteबहुत बहुत आभार आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए।🙏
आपकी विस्तृत और सांगोपांग प्रतिक्रिया से मेरे लेखन को प्रवाह मिला, आगे कुछ और भी सार्थक सृजन कर सकूं ऐसा उत्साह मिला, आपकी उर्जावान प्रतिक्रिया के लिए आपका पुनः सादर आभार। वैसे ये लेख आपके प्रोत्साहन और शब्दों से ,समय समय पर आपके द्वारा मिले निर्देशों के फलस्वरूप ही आकार ले पाया है। आपने इसे पसंद किया तो लेखन सार्थक हुआ।
सादर।
बहुत सुंदर और सारगर्भित लेख है, कुछ भी लिखने से पहले इसे एक बार अवश्य याद करने की कोशिश करूंगी, धन्यवाद एवं शुभकामनाएं सखी।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका सखी,
Deleteआपने सराहा लेखन सार्थक हुआ।
सारगर्भित एवं प्रेरक आलेख के लिये बधाई एवं आभार आदरणीया कुसुम दीदी. आपने बहुत समीचीन विषय पर अपने गंभीर विचार रखे हैं. मैं भी आपके विचार से सहमत हूँ कि छंद-विधान पर भी लेखन होना चाहिए और इस विद्या को अगली पीढ़ी में स्थानांतरित किया जाना चाहिए.
ReplyDeleteहिंदी को समृद्धशाली भाषा बनाने के अभियान में हम सबको पूर्ण मनोयोग से जुटना चाहिए. आदरणीया
दीदी आप हिंदी साहित्यकारों का यों ही मार्गदर्शन करते रहिए.
सादर स्नेह
बहुत दिनों बाद एक गंभीर लेख पढ़ने को मिला। आभार।
ReplyDeleteहिंदी अपने उद्भव और विकास के रामायण काल से निकलकर महाभारत काल के बीहड़ रास्तों से गुजरती अब आधुनिक काल के समतल पर कलकल छलछल भाव से बहती जा रही है। हिंदी ने भी पहले छंद, शिल्प, अभव्यक्ति, भाषा, शब्द-रचना, व्याकरण आदि के भिन्न भिन्न कलेवरों में अपने स्वभाव, स्वरूप और आकृति की मर्यादा को गढ़ा ( इसे मैं हिंदी का मर्यादा निर्माण काल या रामायण काल कहता हूं)। फिर महाभारत काल के समान इसके प्रवाह में भी कुछ कुटिलताएँ, डिप्लोमेसी, छल-प्रपंच, संकुचित और उच्छृंखल भावनाएं घुली। फिर बाज़ार की संस्कृति छाई और सूचना-क्रांति की आंधी ने इसे प्रबल आवेग दिया। अब यह खुले आकाश में आ गयी है और इसका सनातन समन्वय स्वभाव अपने प्रगाढ़ तम रूप में निखर गया है। बातें लम्बी होती जा रही हैं। फिर कभी इस पर विस्तार से बात करेंगे। आपने जो वैचारिक विमर्श का तत्व उद्दीप्त किया है, इसके लिए हृदय तल से बधासी!!!
बधाई!!!
ReplyDeleteउचित मार्गदर्शन किया आपने हम सबका। आदरणीया दीदी जी हम पूर्णतः सहमत हैं आपके इस,सुंदर,विचारणीय और सार्थक लेख से। सादर प्रणाम शुभ संध्या 🙏
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर और सटीक तरीके से सभी रचनाकारो को हिंदी की बर्तनी तथा शब्दों की सुद्धता की ओर ध्यान आकृष्ट कराया आपने सखी।हिन्दी को संपन्न एवं सुदृढ़ बनाने के लिए सभी रचनाकारों का प्रयास होना चाहिए कि अनावश्क दूसरी भाषा का प्रयोग करने से बचे। बधाई एवं शुभकामनाएँ।
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