प्रारब्ध
चंचल चाँद रजत का पलना
मंदाकिनी गोद में सोता ।
राह निहारे एक चकोरी
कब अवसान दिवस का होगा
बस देखना प्रारब्ध ही था
सदा विरह उसने है भोगा
पलक पटल पर घूम रहा है
एक स्वप्न आधा नित रोता।।
विधना के हैं खेल निराले
कोई इनको कब जान सका
जल में डोले शफरी प्यासी
सुज्ञानी ही पहचान सका
है भेद कर्म गति के अद्भुत
वही काटता जो है बोता।।
सागर से आता जल लेकर
बादल फिरता मारा मारा
लेकिन पानी रोक न पाता
चोट झेलता है बेचारा
प्रहार खाकर मेघ बरसता
बार बार खाली वो होता।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'