प्रारब्ध
चंचल चाँद रजत का पलना
मंदाकिनी गोद में सोता ।
राह निहारे एक चकोरी
कब अवसान दिवस का होगा
बस देखना प्रारब्ध ही था
सदा विरह उसने है भोगा
पलक पटल पर घूम रहा है
एक स्वप्न आधा नित रोता।।
विधना के हैं खेल निराले
कोई इनको कब जान सका
जल में डोले शफरी प्यासी
सुज्ञानी ही पहचान सका
है भेद कर्म गति के अद्भुत
वही काटता जो है बोता।।
सागर से आता जल लेकर
बादल फिरता मारा मारा
लेकिन पानी रोक न पाता
चोट झेलता है बेचारा
प्रहार खाकर मेघ बरसता
बार बार खाली वो होता।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
सुन्दर
ReplyDeleteआभार आदरणीय।
Deleteबहुत सुंदर नवगीत सखी 👌
ReplyDeleteबहुत बहुत स्नेह आभार आपका सखी, रचना मुखरित हुई।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (26-08-2020) को "समास अर्थात् शब्द का छोटा रूप" (चर्चा अंक-3805) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय, चर्चा मंच पर रचना का शामिल होना सदा मेरे लिए गर्व का विषय है मेरे लिए मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
Deleteआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 25 अगस्त 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteसांध्य दैनिक में अपनी रचना के लिए हृदय तल से आभार।
Deleteमैं उपस्थित रहूंगी।
निशब्द दी सराहना से परे मन को छूता बहुत ही सुंदर नवगीत।
ReplyDeleteअंतस में एक टीस छोड़ता लाजवाब।
सादर
बहुत बहुत आभार अनिता विषय पर आत्मीय टिप्पणी विषय के भाव मुखरित करती है ।
Deleteसस्नेह।
प्रारब्ध होगा तो अंत भी होगा ... प्राकृति यही कहती है ...
ReplyDeleteहर मन की टीस निकल जाती है ... समय करता है सब ...
वाह नासवा जी व्याख्यात्मक टिप्पणी सदा एक उर्जा का संचार करती है रचनाकार में, सुंदर प्रतिक्रिया।
Deleteढेर सारा आभार।
सादर।
शुद्ध हिन्दी की सुंदर कविता।
ReplyDeleteबहुत सा आभार आपकी विहंगम दृष्टि का ।
Deleteसादर।
सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन हुआ।
Deleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका, उत्साह वर्धन हुआ।
Deleteसराहनीय अभिव्यक्ति। हार्दिक आभार ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteआपकी सार्थक टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सादर।
वाह !कोठरी कुसुम बेटेजी कविता ने शिखर छू लिए:
ReplyDeleteविधना के हैं खेल निराले
कोई इनको कब जान सका
जल में डोले शफरी प्यासी
सुज्ञानी ही पहचान सका
है भेद कर्म गति के अद्भुत
वही काटता जो है बोता।।
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