समय औचक कोड़ा
गूंज स्वरों की मौन हुई जब
पाहन हुवा धड़कता तन।
मानस से उद्गार गये तो
चमन बना ज्यों उजड़ा वन।
नित नव सरगम रचता अंतस
हर इक सुर महका महका।
हिया सांरगी मौन हुई तो
गीत बने बहका बहका।
कैसे कोई तान छेड़ दे
फूट रहा हो जब क्रन्दन।।
मन की धुनकी धुनके थम थम
तान तार में सुर अटका।
टूट गया जो घिसते घिसते
बुझता अंगारा चटका।
कौन करेगा बातें कल की
आज अभी कर लो वंदन।।
समय दासता करता किसकी
औचक ही कोड़ा लगता।
सिर ताने चलने वाला भी
ओधे मुंह गिरा करता।
मौका रहते साज साध लें
गीत महकते बन उपवन।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (19-08-2020) को "हिन्दी में भावहीन अंग्रेजी शब्द" (चर्चा अंक-3798) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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सादर आभार।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सादर।
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार ज्योति बहन।
Deleteअद्भुत अद्भुत सृजन सखी
ReplyDeleteसस्नेह आभार आपका सखी।
Deleteवाह !! अद्भुत !! अत्यंत सुन्दर सृजन ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका मीना जी।
Deleteअति सुन्दर रचना
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
समय ... सही है बिलकुल ... सब नतमस्तक समय के आगे ...
ReplyDeleteप्रभावी सुन्दर रचना ...