लो प्राची के नीले पट पर
सूर्य निशा को कोर लिया ।
जल उठा एक दीपक स्वर्णिम
उषा के लहरे आंचल में
गूंज रही है सरगम जैसे
सरि के निर्मल कल-कल में
अभी पपीहा जाकर सोया
रटा रात भर रोर पिया।।
चलती होले होले अनमन
याद पुरानी का था घेरा
मन के सूने मधुबन पर है
सूखी लतिका का डेरा
शुष्क पात की झांझरिया ने
शांत चित्त झकझोर दिया।।
अरविंद महके मधुप डोलते
किरणें खेल रही जल में
चारों ओर उजाला पसरा
यौवन चढ़ा चलाचल में
उड़ते चपल पाखियों ने फिर
तन मन सभी विभोर किया।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'