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Wednesday, 30 October 2019
Monday, 28 October 2019
मधुरागी
मधुरागी
सुंदर सौरभ यूं
बिखरा मलय गिरी से,
उदित होने लगा
बाल पंतग इठलाके,
चल पड़ कर्तव्य पथ
का राही अनुरागी
प्रकृति सज उठी है
ले नये शृंगार मधुरागी
पुष्प सुरभित
दिशाएँ रंग भरी
क्षितिज व्याकुल
धरा अधीर
किरणों की रेशमी डोर
थामे पादप हंसे
पंछी विहंसे
विहंगम कमल दल
शोभित सर हृदी
भोर सुहानी आई
मन भाई।
कुसुम कोठारी ।
सुंदर सौरभ यूं
बिखरा मलय गिरी से,
उदित होने लगा
बाल पंतग इठलाके,
चल पड़ कर्तव्य पथ
का राही अनुरागी
प्रकृति सज उठी है
ले नये शृंगार मधुरागी
पुष्प सुरभित
दिशाएँ रंग भरी
क्षितिज व्याकुल
धरा अधीर
किरणों की रेशमी डोर
थामे पादप हंसे
पंछी विहंसे
विहंगम कमल दल
शोभित सर हृदी
भोर सुहानी आई
मन भाई।
कुसुम कोठारी ।
Friday, 25 October 2019
Tuesday, 22 October 2019
देह दीप में सन्मति का तेल
जलते दीप को देख,
दूर एक दीपक बोला
क्यों जलते औरों की खातिर
खुद तल में तेरे है अंधेरा ,
दीपक बोला गर नीचे ही देख लेता
तो वहाँ नही अंधेरा होता ,
बस मैं हूं केवल कलेवर
मैं कहां कब जला,
जले तो मिल तेल,बाती
और भ्रमित संसार ये बोले
देखो दीप जला,
सच-मुच जग को
गर करना रौशन ,
तो ऐ ! मानव सुन
देह दीप में सन्मति का तेल
और ज्ञान की बाती से
बस ज्योति जला
बस एक ज्योति जला ।
कुसुम कोठारी ।
दूर एक दीपक बोला
क्यों जलते औरों की खातिर
खुद तल में तेरे है अंधेरा ,
दीपक बोला गर नीचे ही देख लेता
तो वहाँ नही अंधेरा होता ,
बस मैं हूं केवल कलेवर
मैं कहां कब जला,
जले तो मिल तेल,बाती
और भ्रमित संसार ये बोले
देखो दीप जला,
सच-मुच जग को
गर करना रौशन ,
तो ऐ ! मानव सुन
देह दीप में सन्मति का तेल
और ज्ञान की बाती से
बस ज्योति जला
बस एक ज्योति जला ।
कुसुम कोठारी ।
Friday, 18 October 2019
दीवाली
दीपमालिका दीप ज्योति संग
भर-भर खुशियां लायी
नवल ज्योति की पावन आभा
प्रकाश पुंज ले आयी
प्रज्वलित करने मन प्रकाश को
दीपशिखा लहरायी
पुलकित गात,मुदित उर बीच
ज्यों स्नेह धारा बह आयी
अमावस के अंधियारे पर
दीप चांदनी छायी
मन तारों ने झंकृत हो
गीत बधाई गायी
चहूं ओर उल्लास प्रदिप्त
घर-घर खुशियां छायी
मन मयूर कर नृतन कहे
लो दीपमालिका आयी ।
कुसुम कोठारी ।
भर-भर खुशियां लायी
नवल ज्योति की पावन आभा
प्रकाश पुंज ले आयी
प्रज्वलित करने मन प्रकाश को
दीपशिखा लहरायी
पुलकित गात,मुदित उर बीच
ज्यों स्नेह धारा बह आयी
अमावस के अंधियारे पर
दीप चांदनी छायी
मन तारों ने झंकृत हो
गीत बधाई गायी
चहूं ओर उल्लास प्रदिप्त
घर-घर खुशियां छायी
मन मयूर कर नृतन कहे
लो दीपमालिका आयी ।
कुसुम कोठारी ।
Thursday, 17 October 2019
तुम्ही छविकार चित्रकारा
तुम्ही छविकार चित्रकारा
तप्त से इस जग में हो बस तुम ही अनुधारा
तुम्ही रंगरेज तुम्ही छविकार, मेरे चित्रकारा,
रंग सात नही सौ रंगो से रंग दिया तूने मुझको
रंगाई ना दे पाई तेरे पावन चित्रों की तुझको।
हे सुरभित बिन्दु मेरे ललाट के अविरल
तेरे संग ही जीवन मेरा प्रतिपल चला-चल,
मन मंदिर में प्रज्जवलित दीप से उजियारे हो
इस बहती धारा में साहिल से बांह पसारे हो।
सांझ ढले लौट के आते मन खग के नीड़ तुम्ही
विश्रांति के पल- छिन में हो शांत सुधाकर तुम्ही,
मेरी जीवन नैया के सुदृढ़ नाविक हो तुम्ही
सदाबहार खिला रहे उस फूल की शाख तुम्ही।।
कुसुम कोठारी।
Sunday, 13 October 2019
शरद पूर्णिमा का चांद
धवल ज्योत्सना पूर्णिमा की
अंबर रजत चुनर ओढ, मुखरित
डाल-डाल चढ़ चंद्रिका डोलत
पात - पात पर रमत चंदनिया
तारक दल सुशोभित दमकत
नील कमल पर अलि डोलत यूं
ज्यों श्याम मुखबिंद काले कुंतल
गुंचा महका , मलय सुवासित
चहुँ ओर उजली किरण सुशोभित
नदिया जल चांदी सम चमकत
कल छल कल मधुर राग सुनावत
हिम गिरी रजत सम दमकत
शरद स्वागतोत्सुक मंयक की
आभा अपरिमित सुंदर शृंगारित
शोभा न्यारी अति भारी सुखकारी।
कुसुम कोठारी।
अंबर रजत चुनर ओढ, मुखरित
डाल-डाल चढ़ चंद्रिका डोलत
पात - पात पर रमत चंदनिया
तारक दल सुशोभित दमकत
नील कमल पर अलि डोलत यूं
ज्यों श्याम मुखबिंद काले कुंतल
गुंचा महका , मलय सुवासित
चहुँ ओर उजली किरण सुशोभित
नदिया जल चांदी सम चमकत
कल छल कल मधुर राग सुनावत
हिम गिरी रजत सम दमकत
शरद स्वागतोत्सुक मंयक की
आभा अपरिमित सुंदर शृंगारित
शोभा न्यारी अति भारी सुखकारी।
कुसुम कोठारी।
Saturday, 12 October 2019
प्रेम विरहा सब ही झूठ
कैसो री अब वसंत सखी ।
जब से श्याम भये परदेशी
नैन बसत सदा मयूर पंखी
कहां बस्यो वो नंद को प्यारो
उड़ जाये मन बन पाखी
कैसो री अब वसंत सखी।
सुमन भये सौरभ विहीन
रंग ना भावे सुर्ख चटकीले
खंजन नयन बदरी से सीले
चाँद लुटाये चांदनी रुखी
कैसो री अब वसंत सखी।
धीमी बयार जीया जलाए
फीकी चंद्र की सभी कलाएं
चातकी जैसे राह निहारूं
कनक वदन भयो अब लाखी
कैसो री अब वसंत सखी।
झूठो है जग को जंजाल
जल बिंदु सो पावे काल
"प्रेम" विरहा सब ही झूठ
आत्मानंद पा अंतर लखि
ऐसो हो अब वसंत सखी।
कुसुम कोठारी ।
लाखी - लाख जैसा मटमैला
लखि-देखना ।
जब से श्याम भये परदेशी
नैन बसत सदा मयूर पंखी
कहां बस्यो वो नंद को प्यारो
उड़ जाये मन बन पाखी
कैसो री अब वसंत सखी।
सुमन भये सौरभ विहीन
रंग ना भावे सुर्ख चटकीले
खंजन नयन बदरी से सीले
चाँद लुटाये चांदनी रुखी
कैसो री अब वसंत सखी।
धीमी बयार जीया जलाए
फीकी चंद्र की सभी कलाएं
चातकी जैसे राह निहारूं
कनक वदन भयो अब लाखी
कैसो री अब वसंत सखी।
झूठो है जग को जंजाल
जल बिंदु सो पावे काल
"प्रेम" विरहा सब ही झूठ
आत्मानंद पा अंतर लखि
ऐसो हो अब वसंत सखी।
कुसुम कोठारी ।
लाखी - लाख जैसा मटमैला
लखि-देखना ।
Wednesday, 9 October 2019
पत्थरों के शहर
पत्थरों के शहर
ये क्या कि पत्थरों के शहर में
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!
आदमियत का पता तक नहीं
ग़ज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !
यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !
आईनों में भी दग़ा भर गया यहां
अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !
घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे,
तूफ़़ानों पर क्यूं इल्ज़ाम ढूंढते हो !
जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
वहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो!
भगवान अब महलों में सज के रह गये
क्यों गलियों में उन्हें सरेआम ढूंढ़ते हो।
कुसुम कोठारी।
ये क्या कि पत्थरों के शहर में
शीशे का आशियाना ढूंढते हो!
आदमियत का पता तक नहीं
ग़ज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !
यहाँ पता नही किसी नियत का
ये क्या कि आप ईमान ढूंढते हो !
आईनों में भी दग़ा भर गया यहां
अब क्या सही पहचान ढूंढते हो !
घरौदें रेत के बिखरने ही तो थे,
तूफ़़ानों पर क्यूं इल्ज़ाम ढूंढते हो !
जहां बालपन भी बुड्ढा हो गया
वहां मासूमियत की पनाह ढूंढ़ते हो!
भगवान अब महलों में सज के रह गये
क्यों गलियों में उन्हें सरेआम ढूंढ़ते हो।
कुसुम कोठारी।
Monday, 7 October 2019
पुतला नहीं प्रवृति का दहन
पुतला नही प्रवृति का दहन
मन का रावण
आज भी खड़ा है
सर तान कर
अंगद के पाँव जैसा,
सदियां बीत गई
रावण जलाते
पुतला भस्म होता रहा हर बार
रावण वहीं खड़ा रहा
अपने दंभ के साथ
सीना ताने
क्या जलाना है ?
पुतला या प्रवृति
बस लकीर पीट रहें हैं
बैठे बैठे हम
काश साल में
एकबार ही सही ,
मन की आसुरी
सोच बदलते
राम न बनते ,
रावण से नाता तोड़ते
तो सचमुच दशहरा
सार्थक होता ।
कुसुम कोठारी ।
मन का रावण
आज भी खड़ा है
सर तान कर
अंगद के पाँव जैसा,
सदियां बीत गई
रावण जलाते
पुतला भस्म होता रहा हर बार
रावण वहीं खड़ा रहा
अपने दंभ के साथ
सीना ताने
क्या जलाना है ?
पुतला या प्रवृति
बस लकीर पीट रहें हैं
बैठे बैठे हम
काश साल में
एकबार ही सही ,
मन की आसुरी
सोच बदलते
राम न बनते ,
रावण से नाता तोड़ते
तो सचमुच दशहरा
सार्थक होता ।
कुसुम कोठारी ।
Saturday, 5 October 2019
श्वेत सारंग दल
मेघों का काम है वर्षा के रूप में जल का वरदान बन बरसाना , प्रकृति निश्चित करती है कब, कितना, कंहा।
फिर ऐसा समय आता है पानी से मुक्त बादल नीले आसमान पर यूं ड़ोलते हैं ,निज कर्त्तव्य भार से उन्मुक्त हो वलक्ष रेशमी रूई जैसे....
व्योम पर बिखरे दल श्वेत सारंग
हो उन्मुक्त निज कर्त्तव्य भार से,
चांदनी संग क्रीड़ा करते दौड़ते
निर्बाध गति पवन संग हिलोर से।
धवल ,निर्मल , निर्दोष मेघमाला
चांद निहारता बैठ निज गवाक्ष से,
अहो मणिकांत माधुरी सी बह रही।
लो सोम-सुधा पुलक उठी स्पर्श से
मंदाकिनी रंग मिल बने वर्ण अमल
घन ओढ़नी पर तारक दल हिर कण से,
आज चंद्रिका दरिद्रा मांगे रेशम वलक्ष
नील नभ झांकता कोरी घूंघट ओट से ।
ऋतु का संदेशा लेकर चला हरकारा
शुक्ल अश्व सवार हो, मरुत वेग से,
मुकुर सा ,"नभ - गंगा" सुधा सलिल
पयोद निहारता निज आनन दर्प से ।
कुसुम कोठारी।
फिर ऐसा समय आता है पानी से मुक्त बादल नीले आसमान पर यूं ड़ोलते हैं ,निज कर्त्तव्य भार से उन्मुक्त हो वलक्ष रेशमी रूई जैसे....
व्योम पर बिखरे दल श्वेत सारंग
हो उन्मुक्त निज कर्त्तव्य भार से,
चांदनी संग क्रीड़ा करते दौड़ते
निर्बाध गति पवन संग हिलोर से।
धवल ,निर्मल , निर्दोष मेघमाला
चांद निहारता बैठ निज गवाक्ष से,
अहो मणिकांत माधुरी सी बह रही।
लो सोम-सुधा पुलक उठी स्पर्श से
मंदाकिनी रंग मिल बने वर्ण अमल
घन ओढ़नी पर तारक दल हिर कण से,
आज चंद्रिका दरिद्रा मांगे रेशम वलक्ष
नील नभ झांकता कोरी घूंघट ओट से ।
ऋतु का संदेशा लेकर चला हरकारा
शुक्ल अश्व सवार हो, मरुत वेग से,
मुकुर सा ,"नभ - गंगा" सुधा सलिल
पयोद निहारता निज आनन दर्प से ।
कुसुम कोठारी।
Thursday, 3 October 2019
जीवन यवनिका
एक यवनिका गिरने को है,
जो सोने सा दिख रहा वो
अब माटी का ढेर होने को है,
लम्बे सफर पर चल पङा
नींद गहरी सोने को है।
एक यवनिका .....।.
जो समझा था सरुप अपना
वो सरुप अब खोने को है,
अब जल्दी से उस घर जाना
जहाँ देह नही सिर्फ़ रूह है।
एक यवनिका ....
डाल डाल जो फूदक रहा
वो पंक्षी कितना भोला है,
घात लगाये बैठा बहेलिया
किसी पल बिंध जाना है ।
एक यवनिका .....
जो था खोया रंगरलियों में
राग मोह में फसा हुवा ,
मेरा-मेरा कर जो मोहपास में बंधा हुवा
आज अपनो के हाथों भस्म अग्नि में होने को है ।
एक यवनिका ......
कुसुम कोठारी ।
जो सोने सा दिख रहा वो
अब माटी का ढेर होने को है,
लम्बे सफर पर चल पङा
नींद गहरी सोने को है।
एक यवनिका .....।.
जो समझा था सरुप अपना
वो सरुप अब खोने को है,
अब जल्दी से उस घर जाना
जहाँ देह नही सिर्फ़ रूह है।
एक यवनिका ....
डाल डाल जो फूदक रहा
वो पंक्षी कितना भोला है,
घात लगाये बैठा बहेलिया
किसी पल बिंध जाना है ।
एक यवनिका .....
जो था खोया रंगरलियों में
राग मोह में फसा हुवा ,
मेरा-मेरा कर जो मोहपास में बंधा हुवा
आज अपनो के हाथों भस्म अग्नि में होने को है ।
एक यवनिका ......
कुसुम कोठारी ।
Tuesday, 1 October 2019
गांधी मेरी नज़र में
गांधी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं
राष्ट्रपिता को संबोधन , क्षोभ मेरे मन का :-
बापू कहां बैठे हो आंखें छलकाये
क्या ऐसे भारत का सपना था?
बेबस बेचारा पस्त थका - थका
इंसानियत सिसक रही
प्राणी मात्र निराश दुखी
गरीब कमजोर निःसहाय
हर तरफ मूक हाहाकार
कहारती मानवता,
झुठ फरेब
रोता हुवा बचपन,
डरा डरा भविष्य
क्या इसी आजादी का
चित्र बनाया था
अब तो छलकाई
आंखों से रो दो
जैसे देश रो रहा है।
कुसुम कोठारी।
आज दो अक्टूबर, मेरे विचार में गांधी।
मैं किसी को संबोधित नही करती बस अपने विचार रख रही हूं, प्रथम! इतिहास हमेशा समय समय पर लिखने वाले की मनोवृत्ति के हिसाब से बदलता रहा है, कभी इतिहास को प्रमाणिक माना जाता था आज इतिहास की प्रमाणिकता पर सबसे बड़ा प्रश्न चिंह है।
रही महापुरुषों पर आक्षेप लगाने की तो हम (हर कुछ भी लिखने वाला बिना सोचे) आज यही कर रहे हैं, चार पंक्तियाँ में किसी को भी गाली निकाल कर पढने वालों को भ्रमित और दिशा हीन कर अपने को तीस मार खाँ समझते हैं, ज्यादा कुछ आनी जानी नही, बस कुछ भी परोसते हैं, और अपने को क्रांतिकारी विचार धारा वाला दिखाते हैं, देश के लिये कोई कुछ नही कर रहा, बस बैठे बैठे समय बिताने का शगल।
हम युग पुरुष महात्मा गाँधी को देश का दलाल कहते हैं, जिस व्यक्ति ने सारा जीवन देश हित अर्पण किया ।
सोच के बताओ देश को बेच कर क्या उन्होंने महल दो महले बनवा लिये, या अपनी पुश्तों के लिये संपत्ति का अंबार छोड गये, एक धोती में रहने वाले ने अपने आह्वान से देश को इस कौने से उस कौने तक जोड दिया, देश एक जुट हुवा था तो एक इसी व्यक्तित्व के कारण उस नेता ने देश प्रेम की ऐसी लहर चलाई थी कि हर गली मुहल्ले मे देश हित काम करने वाले नेता पैदा हुवे और अंग्रेजों से विरोध की एक सशक्त लरह बनी, हर तरफ अंदर से विरोध सहना अंग्रेजों के वश में नही रहा, और जब उनके लिऐ भारत में रूकना असंभव हो गया।
कहते हैं, वो चाहते तो भगतसिंह की फांसी रूकवा सकते थे ऐसा कहने वालो की बुद्धि पर मुझे हंसी आती है, जैसे कानून उनकी बपोती था? वो भी अंग्रेजी सत्ता में, और वो अपनी धाक से रूकवा देते, ऐसा संभव है तो हम आप करोड़ों देशवासी मिल कर निर्भया कांण्ड में एक जघन्य आरोपी को सजा तक नही दिला सके कानून हमारा देश हमारा और हम लाचार हैं याने हम जो न कर पायें वो लाचारी और उन से जो न हो पाया वो अपराध अगर दो टुकड़े की शर्त पर भी आजादी मिली तो समझो सही छुटे वर्ना न जाने और कब तक अंग्रेजों के चुगल में रहते ।
और बाद मे देश को टुकड़ो में तोड़ ते रहते पहले भी राजतंत्र में देश टुकड़ो में बंटा सारे समय युद्ध में उलझा रहता था ।
कुछ करने की ललक है तो आज भी देश की अस्मिता को बचाने का जिम्मा उठाओ कुछ तो कर दिखाओ सिर्फ हुवे को कब तक कोसोगे ।
जितना मिला वो तो अपना है उसे तो संवारो।
मैं अहिंसा की समर्थक हूं, पर मैं भी हर अन्याय के विरुद्ध पुरी तरह क्रांतिकारी विचार धारा रखती हूं, मैं सभी क्रांतिकारियों को पूर्ण आदर और सम्मान के साथ आजादी प्राप्ति का महत्वपूर्ण योगदाता मानती हूं।
पर गांधी को समझने के लिये एक बार गांधी की दृष्टि से गांधी को देखिये जिस महा मानव ने जादू से नही अपनी मेहनत, त्याग, देश प्रेम, अहिंसा और दृढ़ मनोबल से सारे भारत को एक सूत्र मे बांधा था भावनाओं से, ना कि डंडे से, और जो ना उससे पहले कभी हुवा ना बाद में।
मै कहीं भी किसी पार्टी के समर्थन और विरोध में नही बल्कि एक चिंतन शील भारतीय के नाते ये सब लिख रही हूं।
जय हिंद।।
राष्ट्रपिता को संबोधन , क्षोभ मेरे मन का :-
बापू कहां बैठे हो आंखें छलकाये
क्या ऐसे भारत का सपना था?
बेबस बेचारा पस्त थका - थका
इंसानियत सिसक रही
प्राणी मात्र निराश दुखी
गरीब कमजोर निःसहाय
हर तरफ मूक हाहाकार
कहारती मानवता,
झुठ फरेब
रोता हुवा बचपन,
डरा डरा भविष्य
क्या इसी आजादी का
चित्र बनाया था
अब तो छलकाई
आंखों से रो दो
जैसे देश रो रहा है।
कुसुम कोठारी।
आज दो अक्टूबर, मेरे विचार में गांधी।
मैं किसी को संबोधित नही करती बस अपने विचार रख रही हूं, प्रथम! इतिहास हमेशा समय समय पर लिखने वाले की मनोवृत्ति के हिसाब से बदलता रहा है, कभी इतिहास को प्रमाणिक माना जाता था आज इतिहास की प्रमाणिकता पर सबसे बड़ा प्रश्न चिंह है।
रही महापुरुषों पर आक्षेप लगाने की तो हम (हर कुछ भी लिखने वाला बिना सोचे) आज यही कर रहे हैं, चार पंक्तियाँ में किसी को भी गाली निकाल कर पढने वालों को भ्रमित और दिशा हीन कर अपने को तीस मार खाँ समझते हैं, ज्यादा कुछ आनी जानी नही, बस कुछ भी परोसते हैं, और अपने को क्रांतिकारी विचार धारा वाला दिखाते हैं, देश के लिये कोई कुछ नही कर रहा, बस बैठे बैठे समय बिताने का शगल।
हम युग पुरुष महात्मा गाँधी को देश का दलाल कहते हैं, जिस व्यक्ति ने सारा जीवन देश हित अर्पण किया ।
सोच के बताओ देश को बेच कर क्या उन्होंने महल दो महले बनवा लिये, या अपनी पुश्तों के लिये संपत्ति का अंबार छोड गये, एक धोती में रहने वाले ने अपने आह्वान से देश को इस कौने से उस कौने तक जोड दिया, देश एक जुट हुवा था तो एक इसी व्यक्तित्व के कारण उस नेता ने देश प्रेम की ऐसी लहर चलाई थी कि हर गली मुहल्ले मे देश हित काम करने वाले नेता पैदा हुवे और अंग्रेजों से विरोध की एक सशक्त लरह बनी, हर तरफ अंदर से विरोध सहना अंग्रेजों के वश में नही रहा, और जब उनके लिऐ भारत में रूकना असंभव हो गया।
कहते हैं, वो चाहते तो भगतसिंह की फांसी रूकवा सकते थे ऐसा कहने वालो की बुद्धि पर मुझे हंसी आती है, जैसे कानून उनकी बपोती था? वो भी अंग्रेजी सत्ता में, और वो अपनी धाक से रूकवा देते, ऐसा संभव है तो हम आप करोड़ों देशवासी मिल कर निर्भया कांण्ड में एक जघन्य आरोपी को सजा तक नही दिला सके कानून हमारा देश हमारा और हम लाचार हैं याने हम जो न कर पायें वो लाचारी और उन से जो न हो पाया वो अपराध अगर दो टुकड़े की शर्त पर भी आजादी मिली तो समझो सही छुटे वर्ना न जाने और कब तक अंग्रेजों के चुगल में रहते ।
और बाद मे देश को टुकड़ो में तोड़ ते रहते पहले भी राजतंत्र में देश टुकड़ो में बंटा सारे समय युद्ध में उलझा रहता था ।
कुछ करने की ललक है तो आज भी देश की अस्मिता को बचाने का जिम्मा उठाओ कुछ तो कर दिखाओ सिर्फ हुवे को कब तक कोसोगे ।
जितना मिला वो तो अपना है उसे तो संवारो।
मैं अहिंसा की समर्थक हूं, पर मैं भी हर अन्याय के विरुद्ध पुरी तरह क्रांतिकारी विचार धारा रखती हूं, मैं सभी क्रांतिकारियों को पूर्ण आदर और सम्मान के साथ आजादी प्राप्ति का महत्वपूर्ण योगदाता मानती हूं।
पर गांधी को समझने के लिये एक बार गांधी की दृष्टि से गांधी को देखिये जिस महा मानव ने जादू से नही अपनी मेहनत, त्याग, देश प्रेम, अहिंसा और दृढ़ मनोबल से सारे भारत को एक सूत्र मे बांधा था भावनाओं से, ना कि डंडे से, और जो ना उससे पहले कभी हुवा ना बाद में।
मै कहीं भी किसी पार्टी के समर्थन और विरोध में नही बल्कि एक चिंतन शील भारतीय के नाते ये सब लिख रही हूं।
जय हिंद।।
वेदना के स्वर
शाख से झर रहा हूं
मैं पीला पत्ता ,
तेरे मन से उतर गया हूं
मैं पीला पत्ता
ना तुम्हें ना बहारों को
कुछ भी अंतर पड़ेगा
सूख कर मुरझाया सा
मैं पीला पत्ता ,
छोड ही दोगे ना तुम मुझे
आज कल में
लो मैं ही छोड तुम्हें चला
मैं पीला पत्ता
संग हवाओं के बह चला
मैं पीला पत्ता
अब रखा ही क्या है मेरे लिये
न आगे की नियति का पता
ना किसी गंतव्य का
मैं पीला पत्ता।।
कुसुम कोठारी ।
मैं पीला पत्ता ,
तेरे मन से उतर गया हूं
मैं पीला पत्ता
ना तुम्हें ना बहारों को
कुछ भी अंतर पड़ेगा
सूख कर मुरझाया सा
मैं पीला पत्ता ,
छोड ही दोगे ना तुम मुझे
आज कल में
लो मैं ही छोड तुम्हें चला
मैं पीला पत्ता
संग हवाओं के बह चला
मैं पीला पत्ता
अब रखा ही क्या है मेरे लिये
न आगे की नियति का पता
ना किसी गंतव्य का
मैं पीला पत्ता।।
कुसुम कोठारी ।
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