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Saturday, 12 October 2019

प्रेम विरहा सब ही झूठ

कैसो री अब वसंत सखी ।

जब से श्याम भये परदेशी
नैन बसत सदा मयूर पंखी
कहां बस्यो वो नंद को प्यारो
उड़ जाये मन बन पाखी
कैसो री अब वसंत सखी।

सुमन भये सौरभ विहीन
रंग ना भावे सुर्ख चटकीले
खंजन नयन बदरी से सीले
चाँद लुटाये चांदनी रुखी
कैसो री अब वसंत सखी।

धीमी बयार जीया जलाए
फीकी चंद्र की सभी कलाएं
चातकी जैसे राह निहारूं
कनक वदन भयो अब लाखी
कैसो री अब वसंत सखी।

झूठो है जग को जंजाल
जल बिंदु सो पावे काल
"प्रेम" विरहा सब ही झूठ
आत्मानंद पा अंतर लखि
ऐसो हो अब वसंत सखी।

       कुसुम कोठारी ।

लाखी - लाख जैसा मटमैला
लखि-देखना ।

7 comments:

  1. प्रेम विरह झूट ही तो होता है कुसुम जी
    जो रोम रोम में बस चुका उससे दूरी कैसी।
    आनन्द आ गया एक जबरदस्त कविता पढ़ कर।
    आपके हाथों साहित्य खूब फले।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
    १४ अक्टूबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।,

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  3. सुन्दर रचना

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  4. वाह!!अप्रतिम रचना

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  5. राधा रानी के मन के भावों का सुंदर चित्रण ,सादर नमन कुसुम जी

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  6. बेहद खूबसूरत रचना सखी 👌👌👌

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  7. बहुत सुंदर शब्द रचना। अनुपम भाव।

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