अरविंद सवैया में प्रकृति के कुछ रूप।
१)धरा के अँकवार
मधुमास लगा अब फूल खिले, सब ओर चली मृदु गंध बयार।
हर डाल सजे नवपल्लव जो,पहने वन देव सुशोभित हार।
अँकवार लिए तृण दूब कुशा, धरणी पहने चुनरी कचनार।।
मन है कुछ चंचल देख रहा, निखरी वसुधा बहती मधुधार।।
२)शंख रव
कलियाँ महकी-महकी खिलती, अब वास सुगंधित है चहुँ ओर।
जब स्नान करे किरणें सर में, लगती निखरी नव सुंदर भोर।
बहता रव शंख दिशा दस में, रतनार हुआ नभ का हर कोर।
मुरली बजती जब मोहन की, खुश होकर नाच उठे मन मोर।।
३) साँझ
ढलता रवि साँझ हुई अब तो, किरणें पसरी चढ़ अंबर छोर।
हर कोण लगे भर माँग रहा, नव दुल्हन ज्यों मन भाव विभोर,
खग लौट रहे निज नीड़ दिशा, अँधियार रहा कर भूमि अखोर।
तन क्लांत चले निज गेह सभी, श्रम दूर करे अब श्रांन्ति अथोर।।
४)सुधांशु
मन रे अब धीर धरो कुछ तो, तज चंचलता बन शांत सुधांशु।
तपती जगती तपनांशु दहे, हँसती निशि पाकर कांत सितांशु।
जब क्लांत हुआ तन पिंजर तो, नव जीवन सा भरता शिशिरांशु
घटता बढ़ता निज गौरव से,शिव भाल सदा भय क्रांत हिमांशु।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'