ऩदारद आदमियत
चारों तरफ़ कैसा तूफ़ान है
हर दीपक दम तोड रहा है
इन्सानों की भीड जितनी बढी है
आदमियत उतनी ही ऩदारद है
हाथों में तीर लिये हर शख़्स है
हर नज़र नाख़ून लिये बैठी है
स्वार्थ का खेल हर कोई खेल रहा है
मासूमियत लाचार दम तोड रही है
शांति के दूत कहीं दिखते नही है
हर और शिकारी बाज़ उड रहे है
कितने हिस्सों में बंट गया मानव है
अमन औ चैन मुंह छुपा के रो रहे है।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत ही मर्मांतक सत्य को दर्शाती रचना प्रिय कुसुम बहन।इंसानियत स्वार्थी तत्वों के बीच फंसी ज़ार-ज़ार रो रही है।ईश्वर ही मालिक है अब दुनिया का।शान्ति के दूत स्वपन मात्र बनकर रह गये।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका रेणु बहन आपकी विस्तृत सारगर्भित टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसही कहा आपने इंसानियत स्वार्थी तत्वों के बीच फंसी ज़ार-ज़ार रो रही है।आपकी प्रतिपंक्तियाँ रचना के सामानांतर भाव को और भी स्पष्ट कर रही है।
सस्नेह आभार आपका।
शांति के दूत कहीं दिखते नही है
ReplyDeleteहर और शिकारी बाज़ उड रहे है
सही कहा अब ऐसा लगता है ये शिकारी बाज बची खुची मानवता को भी नोंच नोंच कर समाप्त कर जायेंगे
बहुत ही मर्मस्पर्शी सृजन सामयिकता पर।
जी सुधा जी समय के साथ हर काल परिवर्तन में बहुत कुछ बदलता रहा है पर इन दस सालों में तो बदलाव कल्पनातीत हो रहा हैं और वो भी अधोगामी ।
Deleteआपकी सार्थक प्रतिक्रिया से रचना को नव उर्जा मिली।
सस्नेह आभार आपका।
बहुत बहुत सुन्दर रचना
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (१२ -०३ -२०२२ ) को
'भरी दोपहरी में नंगे पाँवों तपती रेत...'(चर्चा अंक-४३६७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी हृदय से आभार आपका, चर्चा पर रचना को देखना सदा सुखद अहसास देता है।
Deleteसादर सस्नेह।
सुन्दर सृजन।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका उत्साहवर्धन हेतु।
Deleteसादर।
शांति के दूत कहीं दिखते नही है
ReplyDeleteहर और शिकारी बाज़ उड रहे है
बेहद सुंदर भावपूर्ण
बहुत बहुत आभार आपका भारती जी।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
सस्नेह।