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Friday, 31 August 2018

"बैरी" तीन त्रिवेणी

बैरी सावन

सिकुड़े से बैठे रहे डरे डरे  सहमे  से
कनस्तर प्याले पारात गीत गाते रहे ।

"बैरी सावन "बरसता रहा रात भर।

बैरी नदिया

किनारे पे बैठ इंतजार किया किये
शाम ढलने तक न आया परदेशी

"बैरी नदिया" उफन उफन बहती रही।

बैरी बेरोजगारी

खाली था पेट एक भी दाना न गया
 पानी पीकर  कब तक गुजारा होगा

"बैरी भूख!! कल नया काम खोजना होगा।
             
                 कुसुम कोठारी।

Thursday, 30 August 2018

ओ मधुकरी मनस्वी

रानी पद्मिनी का श्रृंगार सौन्दर्य।

ओ पुगल की पद्मिनी
सजा थाल कहां चली
नख शिख श्रृंगार रचा
ओ रूपसी मृगनयनी
कहां चली गज गामिनी
मधुर स्मित रेख रची लब पर
ओ मधुकरी मनस्वी
रत्न जड़ीत दृग जुडवां
शुक नासिका भ्रमरी
मुख उजास चंद्रिका सम उजरो
गुलाब घुल्यो ज्यों क्षीर समंदर
शीश बोरलो झबरक झूमे
चंद्र टिकुली चढी  ललाट
काना झुमका नथ मोतियन की
गल साजे नव लख हार
कंगना खनके खनन खनन
पग पायल की रुनझुन
ओ गौरा सी सुभगे
कहां चली चित चोर
सांझ दीपिका झिलमिल
कभी उगती सी भोर।

       कुसुम कोठारी

Wednesday, 29 August 2018

वर्ण पिरामिड विधा मे चार पिरामिड रचनाऐं

हिमालय पर चार वर्ण पिरामिड रचनाऐं।

मै
मौन
अटल
अविचल
आधार धरा
धरा के आंचल
पाया स्नेह बंधन।

ये
स्वर्ण
आलोक
चोटी पर
बिखर गया
पर्वतों के पीछे
भास्कर मुसकाया।

हूं
मै,भी
बहती
अनुधारा
अविरल सी
उन्नत हिम का
बहता अनुराग।

लो
फिर
झनकी
मधु वीणा
पर्वत  राज
गर्व से हर्षाया
फहराया तिंरगा।

Tuesday, 28 August 2018

एक गुलाब की वेदना

एक गुलाब की वेदना

कांटो में भी हम तो महफूज़ थे।

खिलखिलाते थे ,सुरभित थे ,
हवाओं से खेलते झुलते थे ,
हम मतवाले कितने खुश थे ।

कांटो में भी हम महफूज़ थे ।

फिर तोड़ा किसीने प्यार से ,
सहलाया हाथो से , नर्म गालों से ,
दे डाला हमे प्यार की सौगातों में ।

कांटो मे भी हम महफूज़ थे ।

घड़ी भर की चाहत में संवारा ,
कुछ अंगुलियों ने हमे दुलारा ,
और फिर पंखुरी पंखुरी बन बिखरे ।

कांटो में भी महफूज थे हम ।
हां तब कितने  खुश थे हम।।
            कुसुम कोठारी ।

Monday, 27 August 2018

रात सुहानी अंबर प्रांगण

रात सुहानी अंबर प्रांगण

छाई घटाऐं मन हर्षा
पानी बरसा
रिमझिम  रिमझिम।

कृष नदियां लगी फैलने
लगी बहने
कलकल  कलकल।

फुलवा बिनन को आई राधे
बाजी पायल
छमछम छमछम।

रात सुहानी अंबर प्रांगण
तारे चमके
चमचम चमचम।

विरहन बैठी आश लगाये
आंखें बरसी
छलछल छलछल ।

       कुसुम कोठारी।

Friday, 24 August 2018

कभी सरस कभी ताण्डव

बरखा ऋतु,कभी सरस कभी ताणडव

बादल उमड़ घुमड़ कर आते
घटा घोर नीले नभ छाती
दामिनी दम दम दमकती
मन मे सिहरन सी भरती ।

कभी सरस कभी तांडव सी
बरखा की रूत आती
कभी हरित धरा मुस्काती
कभी जल मग्न हो जाती ।

कृषक मन ही मन मुस्काते
चेहरे उनके खिल खिल जाते
हल की फलक से चीर
धरा को दाना पानी देते ।

बागों मे बहारे आती
डालियाँ फूलों से लद जाती
पपीहा पी की राग सुनाता
कोयल मीठे स्वर मे गाती ।

सावन की घटा घिर आती
झरनों मे रवानी  आती
नदिया कल कल स्वर मे गाती
ऋतु गोरी मृदुल मदमाती ।

चांद तारे कहीं छुप जाते
श्यामक शावक धूम मचाते
उड़ उड़ पर्वत से टकराते
झम झम झम पानी बरसाते ।
      कुसुम कोठारी।

Thursday, 23 August 2018

इन आंखों के कितने अफसाने हैं

आंखें बेजुबान कितना बोलती है
कभी  रस कभी  जहर घोलती है
बिन तराजु  ये तो मन  तोलती है
कभी छुपाती कभी राज खोलती है।

इन आंखों के कितने अफसाने हैं
इन आंखों  के  कितने  दीवानें है
इन आंखों  में  कितने  बहाने  हैं
इन आंखों के चर्चे सदियों पुराने हैं।

आंखें कभी  जिंदगी का शुरूर है
आंखें कभी लिये कितना गुरुर है
आंखें ओढे ख्वाबों  का फितूर है
आंखे कभी झुकी कभी मगरुर है।

ये आंखें  कभी चुभते  तीर हैं
ये आंखें समेटे कितनी पीर है
ये आंखें  झुठ, कभी ताबीर है
ये आंखे कभी आम कभी मीर है।

            कुसुम कोठारी।

Tuesday, 21 August 2018

चनाब का पानी ठहरा होगा

तारों ने बिसात उठाली

फकत खारा पन न देख, अज़ाबे असीर होगा
मुस्ल्सल  बह गया तो फिर बस समंदर होगा ।

दिन ढलते ही आंचल आसमां का सूर्खरू होगा
रात का सागर लहराया न जाने कब सवेरा होगा।

तारों ने बिसात उठा ली असर अब  गहरा होगा
चांद सो गया जाके, अंधेरों का अब पहरा होगा ।

छुपा है पर्दो मे कितने,जाने क्या राज गहरा होगा
अब्र के छटंते ही बेनकाब  चांद का चेहरा होगा ।

साये दिखने लगे  चिनारों पे, जाने अब क्या होगा
मुल्कों के तनाव से चनाब का पानी ठहरा होगा ।
                 
                    कुसुम कोठारी।

Sunday, 19 August 2018

आतुर दिल रो रहा

अति वृष्टि और बाढ़ से आहत जन मानस।

प्रलयंकारी  न बन
हे जीवन दायिनी
विनाशिनी न बन
हे सिरजनहारिनी
कुछ तो दया दिखा
हे जगत पालिनी
गांव के गांव
तेरे तांडव से
नेस्तनाबूद हो रहे
मासूम जीवन
जल समाधिस्थ हो रहे
निरीह पशु लाचार,
बेबस बह रहे
निर्माण विनाश में
तब्दील हो रहा
मानवता का संहार देख
पत्थर दिल भी रो रहा
कहां है वो गिरीधर
जो इंद्र से ठान ले।
जल मग्न होगी धरा
पुराणों मे वर्णित है
क्या ये उसका प्राभ्यास है
हे दाता दया कर
रोक ले इस विनाश को
सुन कर विध्वंस को
आतुर दिल रो रहा।

       कुसुम कोठारी।

Friday, 17 August 2018

पहली परिचित मां

जब आंख खोली सब अजनबी थे
न था कोई परिचित ,सभी तो अजनबी थे
पहले पहल एक अद्भुत हल्की
महक लगी परिचित
मां की महक
अंजान हाथ जब छूते
तन को लिये स्नेह अपार
एक डर एक सिहरन
और गले से निकलती
छोटी छोटी सिसकियां
ढूंढती फिर परिचित हाथ
और ज्यों ही जननी के
हाथ उठा लेते कम्पित
अशक्त नाजुक देह
फिर एक आंतरिक सुरक्षा के भाव
और निरबोध वो काया
फिर हुलसत जाती
लिये अधरों पे एक स्मित रेख।

        कुसुम कोठारी

Thursday, 16 August 2018

महान साहित्यकार श्री अमृत लाल नागर


आज महान साहित्यकार श्री अमृत लाल नागर जी का जन्म दिवस है, और अद्भुत संयोग है कि उनकी महान कृति मानस का हंस के महानायक गोस्वामी तुलसीदास जी का भी आज सावन शुक्ला 7 को जन्म दिवस है
अमृतलाल नागर ( पद्म भूषण )

अमृत लाल नागर का जन्म 17 अगस्त 1916 ई0 को आगरा (उत्तर प्रदेश) में एक गुजराती ब्राह्मण परिवार में हुआ। आपके पिता का नाम राजाराम नागर था। आपके पितामह पं. शिवराम नागर 1895 से लखनऊ आकर बस गए थे। आपकी पढ़ाई हाईस्कूल तक ही हुई। फिर स्वाध्याय द्वारा साहित्य, इतिहास, पुराण, पुरातत्व व समाजशास्त्र का अध्ययन। बाद में हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला, अंग्रेजी पर अधिकार। पहले नौकरी, फिर स्वतंत्र लेखन, फिल्म लेखन का खासा काम किया। 'चकल्लस' का संपादन भी किया। आकाशवाणी, लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर भी रहे।

1932 में निरंतर लेखन किया। शुरूआत में मेघराज इंद्र के नाम से कविताएं लिखीं। 'तस्लीम लखनवी' नाम से व्यंग्यपूर्ण स्केच व निबंध लिखे तो कहानियों के लिए अमृतलाल नागर मूल नाम रखा। आपकी भाषा सहज, सरल दृश्य के अनुकूल है। मुहावरों, लोकोक्तियों, विदेशी तथा देशज शब्दों का प्रयोग आवश्यकतानुसार किया गया है। भावात्मक, वर्णनात्मक, शब्द चित्रात्मक शैली का प्रयोग इनकी रचनाओं में हुआ है।

रचनाएँ -

उपन्यास : महाकाल (1947) (1970 से ‘भूख’ शीर्षक प्रकाशित), बूँद और समुद्र (1956), शतरंज के मोहरे (1959), सुहाग के नुपूर (1960), अमृत और विष (1966), सात घूँघट वाला मुखड़ा (1968), एकदा नैमिषारण्ये (1972), मानस का हंस (1973), नाच्यौ बहुत गोपाल (1978), खंजन नयन (1981), बिखरे तिनके (1982), अग्निगर्भा (1983), करवट (1985), पीढ़ियाँ (1990)।

कहानी संग्रह : वाटिका (1935), अवशेष (1937), तुलाराम शास्त्री (1941), आदमी, नही! नही! (1947), पाँचवा दस्ता (1948), एक दिल हजार दास्ताँ (1955), एटम बम (1956), पीपल की परी (1963), कालदंड की चोरी (1963), मेरी प्रिय कहानियाँ (1970), पाँचवा दस्ता और सात कहानियाँ (1970), भारत पुत्र नौरंगीलाल (1972), सिकंदर हार गया (1982), एक दिल हजार अफसाने (1986 - लगभग सभी कहानियों का संकलन)।

नाटक : युगावतार (1956, बात की बात (1974), चंदन वन (1974), चक्कसरदार सीढ़ियाँ और अँधेरा (1977), उतार चढ़ाव (1977), नुक्कड़ पर (1981), चढ़त न दूजो रंग (1982)।

व्यंग्य : नवाबी मसनद (1939), सेठ बाँकेमल (1944), कृपया दाएँ चलिए (1973), हम फिदाये लखनऊ (1973), मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ (1985), चकल्लस (1986) : उपलब्ध स्फुट हास्यँ-व्यंग्य रचनाओं का संकलन।

अन्य कृतियाँ : गदर के फूल (1957 - 1857 की इतिहास-प्रसिद्ध क्रांति के संबंध में महत्त्वपूर्ण सर्वेक्षण), ये कोठेवालियाँ (1960 - वेश्याओं की समस्या पर एक मौलिक एवं अनूठा सामाजिक सर्वेक्षण), जिनके साथ जिया (1973 - साहित्यकारों के संस्मरण), चैतन्य महाप्रभु (1978 - आत्म परक लेखों का संकलन), टुकड़े-टुकड़े दास्तान (1986 - आत्मोपरक लेखों का संकलन), साहित्यत और संस्कृति (1986 - साहित्यिक एवं ललित निबंधों का संकलन), अमृत मंथन (1991 - अमृतलाल नागर के साक्षात्कार (संपादक : डॉ॰ शरद नागर एवं डॉ॰ आनंद प्रकाश त्रिपाठी), अमृतलाल नागर रचनावली (संपादक : डॉ॰ शरद नागर, 12 खंडों में, 1992), फिल्मरक्षेत्रे रंगक्षेत्रे (2003 - नागरजी के फिल्मी, रंगमंच तथा रेडियो नाटक संबंधी लेखों का संकलन), अत्र कुशलं तत्रास्तु (2004 - नागरजी एवं रामविलास शर्मा के व्यक्तिगत पत्राचार का संग्रह)।

बाल साहित्य: नटखट चाची (1941), निंदिया आजा (1950), बजरंगी नौरंगी (1969), बजरंगी पहलवान (1969), बाल महाभारत (1971), इतिहास झरोखे (1970), बजरंग स्मडगलरों के फंदे में (1972), हमारे युग निर्माता (1982), छ: युग निर्माता (1982), अक्ल बड़ी या भैंस (1982), आओ बच्चोंं नाटक लिखें (1988), सतखंडी हवेली का मालिक (1990), फूलों की घाटी (1997), बाल दिवस की रेल (1997), सात भाई चंपा (1998), इकलौता लाल (2001), साझा (2001), सोमू का जन्म-दिन (2001), शांति निकेतन के संत का बचपन (2001), त्रिलोक विजय (2001)।[1]

अनुवाद : बिसाती (1935 - मोपासाँ की कहानियाँ), प्रेम की प्याकस (1937 - गुस्तामव फ्लाबेर के उपन्यास ‘मादाम बोवरी’ का संक्षिप्त भावानुवाद), काला पुरोहित (1939 - एंटन चेखव की कहानियाँ), आँखों देखा गदर (1948 - विष्णु भट्ट गोडसे की मराठी पुस्ताक ‘माझा प्रवास’ का अनुवाद), 5. दो फक्‍कड़ (1955 - कन्हैकयालाल माणिकलाल मुन्शी के तीन गुजराती नाटक), सारस्वत (1956 - मामा वरेरकर के मराठी नाटक का अनुवाद)।

संपादन : सुनीति (1934), सिनेमा समाचार (1935-36), अल्ला कह दे (20 दिसंबर, 1937 से 3 जनवरी 1938, साप्ता्हिक), चकल्लस (फरवरी, 1938 से 3 अक्टूबर, 1938, साप्ताहिक), नया साहित्य (1945), सनीचर (1949), प्रसाद (1953-54) मासिक पत्रों का संपादन किया।।

संस्मरण : 'गदर के फूल', 'ये कोठेवालियां', 'जिनके साथ जिया।'

अन्य : मोपासां, चेखव, लाबेयर, के. एम. मुंशी, मामा वरेरकर की रचनाओं के अनुवाद व विपुल बाल-साहित्य। नाटक, रेडियो नाटक व फीचर भी अनेक। 1940 से 1947 तक फिल्म सेनेरियो का लेखन कार्य किया। 1953 से 1956 तक आकाशवाणी लखनऊ में ड्रामा प्रोड्यूसर रहे।

पुरस्कार :

‘बूँद और समुद्र’ पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा का विक्रम संवत 2015 से 2018 तक का बटुक प्रसाद पुरस्का्र एवं सुधाकर पदक,
‘सुहाग के नूपुर’ पर उत्तर प्रदेश शासन का वर्ष 1962-63 का प्रेमचंद पुरस्कार,
‘अमृत और विष’ पर वर्ष 1970 का सेवियत लैंड नेहरू पुरस्कार,
‘अमृत और विष’ पर वर्ष 1967 का साहित्य अकादेमी पुरस्काकर,
‘मानस का हंस’ पर मध्य प्रदेश शासन साहित्य परिषद का वर्ष 1972 का अखिल भारतीय वीरसिंह देव पुरस्कार,
‘मानस का हंस’ पर उत्तर प्रदेश शासन का वर्ष 1973-74 का राज्य साहित्यिक पुरस्कार,
हिंदी रंगमंच की विशिष्ट सेवा हेतु सन 1970-71 का उत्तर प्रदेश संगीत नाटक अकादमी पुरस्काार,
‘खंजन नयन’ पर भारतीय भाषा, कलकत्ता (कोलकाता) का वर्ष 1984 का नथमल भुवालका पुरस्कार,
वर्ष 1985 का उ.प्र. हिंदी संस्थान का सर्वोच्च भारत भारती सम्मान (22 दिसंबर, 1989 को प्रदत्त),
हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा 'साहित्य वाचस्पति' उपाधि से विभूषित।
 भारत सरकार द्वारा आपको 1981 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र मे पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था ।

महा कवि गोस्वामी तुलसीदास

आज सावन शुक्ला सप्तमी काव्य जगत के सूर्य गौस्वामी तुलसीदास जी की जयंती है, और विशेष संयोग है कि आज  17 अगस्त महान कथाकार उपन्यास कार आदरणीय अमृत लाल नागर का जन्म दिन भी है, जिन्होंने गोस्वामी जी पर मानस का हंस अमृत लाल नागर द्वारा रचित प्रसिद्ध उपन्यास है। यह उपन्यास रामचरितमानस के रचनाकार गोस्वामी तुलसीदास के जीवन पर लिखा गया है। इस उपन्यास में तुलसीदास का जो स्वरूप चित्रित किया गया है, वह एक सहज मानव का रूप है। यही कारण है कि ‘मानस का हंस’ हिन्दी उपन्यासों में ‘क्लासिक’ का सम्मान पा चुका है और हिन्दी साहित्य की अमूल्य निधि माना जाता है।

गोस्वामी तुलसीदास:
गोस्वामी तुलसीदास जन्म सन 1532 (संवत- 1589 ) भूमिराजापुर, उत्तर  प्रदेश मृत्यु सन 1623 (संवत- 1680) स्थान काशी अभिभावक आत्माराम दुबे और हुलसी ,पत्नी रत्नावली कर्म भूमि बनारस कर्म-क्षेत्र कवि, समाज सुधारक
मुख्य रचनाएँ :- रामचरितमानस, दोहावली,कविताली,गीतावली, विनय पत्रिका, हनुमान चालीसा आदिविषय सगुण भक्ति भाषा अवधी, हिन्दी नागरिकता भारतीय संबंधित लेख तुलसीदास जयंतीगुरु आचार्य रामानन्द अन्य जानकारी तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे ।

हिन्दी साहित्य के आकाश के परम नक्षत्र, भक्तिकाल की सगुण धारा की रामभक्ति शाखा के प्रतिनिधि कवि है। तुलसीदास एक साथ कवि, भक्त तथा समाज सुधारक तीनों रूपों में मान्य है।श्रीराम को समर्पित ग्रन्थ श्रीरामचरितमानस वाल्मीकि रामायण का प्रकारान्तर से ऐसा अवधी भाषान्तर है जिसमें अन्य भी कई कृतियों से महत्वपूर्ण सामग्री समाहित की गयी थी। श्रीरामचरितमानस को समस्त उत्तर भारत में बड़े भक्तिभाव से पढ़ा जाता है।
इसके बाद विनय पत्रिका तुलसीदास
कृत एक अन्य महत्वपूर्ण काव्य है।

जीवन परिचय

तुलसीदासजी का जन्म संवत 1589 को उत्तर प्रदेश(वर्तमान बाँदा ज़िला) के राजापुर नामक ग्राम में हुआ था। इनके पिता का नाम आत्माराम दुबे तथा माता का नाम हुलसी था। इनका विवाह दीनबंधु पाठक की पुत्री रत्नावली से हुआ था। अपनी पत्नी रत्नावली से अत्याधिक प्रेम के कारण तुलसी को रत्नावली की फटकार "लाज न आई आपको दौरे आए हु नाथ" सुननी पड़ी जिससे इनका जीवन ही परिवर्तित हो गया। पत्नी के उपदेश से तुलसी के मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया। इनके गुरु बाबा नरहरिदास थे, जिन्होंने इन्हें दीक्षा दी। इनका अधिकाँश जीवन चित्रकूट,
काशी तथा अयोध्या में बीता।

तुलसी का बचपन बड़े कष्टों में बीता। माता-पिता दोनों चल बसे और इन्हें भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ा था। इसी बीच इनका परिचय राम-भक्त साधुओं से हुआ और इन्हें ज्ञानार्जन का अनुपम अवसर मिल गया। पत्नी के व्यंग्यबाणों से विरक्त होने की लोकप्रचलित कथा को कोई प्रमाण नहीं मिलता। तुलसी भ्रमण करते रहे और इस प्रकार समाज की तत्कालीन स्थिति से इनका सीधा संपर्क हुआ। इसी दीर्घकालीन अनुभव और अध्ययन का परिणाम तुलसी की अमूल्य कृतियां हैं, जो उस समय के भारतीय समाज के लिए तो उन्नायक सिद्ध हुई ही, आज भी जीवन को मर्यादित करने के लिए उतनी ही उपयोगी हैं। तुलसीदास द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 39 बताई जाती है। इनमें रामचरित मानस, कवितावली,
विनयपत्रिका, दोहावली, गीतावली,जानकीमंगल, हनुमान चालीसा, बरवै रामायण आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
गोस्वामीजी श्रीसम्प्रदाय के आचार्य रामानन्द की शिष्य परम्परा में थे। इन्होंने समय को देखते हुए लोकभाषा में 'रामायण' लिखा। इसमें ब्याज से वर्णाश्रमधर्म, अवतारवाद, साकार उपासना, सगुणवाद, गो-ब्राह्मण रक्षा, देवादि विविध योनियों का यथोचित सम्मान एवं प्राचीन संस्कृति औरवेदमार्ग का मण्डन और साथ ही उस समय के विधर्मी अत्याचारों और सामाजिक दोषों की एवं पन्थवाद की आलोचना की गयी है। गोस्वामीजी पन्थ व सम्प्रदाय चलाने के विरोधी थे। उन्होंने व्याज से भ्रातृप्रेम, स्वराज्य के सिद्धान्त , रामराज्य का आदर्श, अत्याचारों से बचने और शत्रु पर विजयी होने के उपाय; सभी राजनीतिक बातें खुले शब्दों में उस कड़ी जासूसी के जमाने में भी बतलायीं, परन्तु उन्हें राज्याश्रय प्राप्त न था। लोगों ने उनको समझा नहीं। रामचरितमानस का राजनीतिक उद्देश्य सिद्ध नहीं हो पाया। इसीलिए उन्होंने झुँझलाकर कहा:

"रामायण अनुहरत सिख, जग भई भारत रीति।
तुलसी काठहि को सुनै, कलि कुचालि पर प्रीति।"

आदर्श सन्त कवि

उनकी यह अद्भुत पोथी इतनी लोकप्रिय है कि मूर्ख से लेकर महापण्डित तक के हाथों में आदर से स्थान पाती है। उस समय की सारी शंकाओं का रामचरितमानस में उत्तर है। अकेले इस ग्रन्थ को लेकर यदि गोस्वामी तुलसीदास चाहते तो अपना अत्यन्त विशाल और शक्तिशाली सम्प्रदाय चला सकते थे। यह एक सौभाग्य की बात है कि आज यही एक ग्रन्थ है, जो साम्प्रदायिकता की सीमाओं को लाँघकर सारे देश में व्यापक और सभी मत-मतान्तरों को पूर्णतया मान्य है। सबको एक सूत्र में ग्रंथित करने का जो काम पहलेशंकराचार्य स्वामी ने किया, वही अपने युग में और उसके पीछे आज भी गोस्वामी तुलसीदास ने किया। रामचरितमानस की कथा का आरम्भ ही उन शंकाओं से होता है जो कबीरदास की साखी पर पुराने विचार वालों के मन में उठती हैं। तुलसीदासजी स्वामी रामानन्द की शिष्यपरम्परा में थे, जोरामानुजाचार्य के विशिष्ट द्वैत सम्प्रदाय के अन्तर्भुक्त है। परन्तु गोस्वामीजी की प्रवृत्ति साम्प्रदायिक न थी। उनके ग्रन्थों मेंअद्वैत और विशिष्टाद्वैत का सुन्दर समन्वय पाया जाता है। इसी प्रकार वैष्णव, शैव, शाक्त आदि साम्प्रदायिक भावनाओं और पूजा पद्धतियों का समन्वय भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। वे आदर्श समुच्चयवादी सन्त कवि थे।

प्रखर बुद्धि के स्वामी थे ।

भगवान शंकरजी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्री अनन्तानन्द जी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्द जी (नरहरि बाबा) ने इस बालक को ढूँढ़ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा। उसे वे अयोध्या ले गये और वहाँ संवत्‌ 1561माघ शुक्ल पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कराया। बिना सिखाये ही बालक रामबोला ने गायत्री-मन्त्र का उच्चारण किया, जिसे देखकर सब लोग चकित हो गये। इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राम मन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या ही में रहकर उन्हें विद्याध्ययन कराने लगे। बालक रामबोला की बुद्धि बड़ी प्रखर थी। एक बार गुरुमुख से जो सुन लेते थे, उन्हें वह कंठस्थ हो जाता था। वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे। वहाँ श्री नरहरि जी ने तुलसीदास को रामचरित सुनाया। कुछ दिन बाद वह काशी चले आये। काशी में शेषसनातन जी के पास रहकर तुलसीदास ने पन्द्रह वर्ष तकवेद-वेदांग का अध्ययन किया। इधर उनकी लोकवासना कुछ जाग्रत्‌ हो उठी और अपने विद्यागुरु से आज्ञा लेकर वे अपनी जन्मभूमि को लौट आये। वहाँ आकर उन्होंने देखा कि उनका परिवार सब नष्ट हो चुका है। उन्होंने विधिपूर्वक अपने पिता आदि का श्राद्ध किया और वहीं रहकर लोगों को भगवान राम की कथा सुनाने लगे।

प्रसिद्धि

इधर पण्डितों ने जब यह बात सुनी तो उनके मन में ईर्ष्या उत्पन्न हुई। वे दल बाँधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उस पुस्तक को नष्ट कर देने का प्रयत्न करने लगे। उन्होंने पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे। चोरों ने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटी के आसपास दो वीर धनुषबाण लिये पहरा दे रहे हैं। वे बड़े ही सुन्दर श्याम और गौर वर्ण के थे। उनके दर्शन से चोरों की बुद्धि शुद्ध हो गयी। उन्होंने उसी समय से चोरी करना छोड़ दिया और भजन में लग गये। तुलसीदास जी ने अपने लिये भगवान को कष्ट हुआ जान कुटी का सारा समान लुटा दिया, पुस्तक अपने मित्र टोडरमल के यहाँ रख दी। इसके बाद उन्होंने एक दूसरी प्रति लिखी। उसी के आधार पर दूसरी प्रतिलिपियाँ तैयार की जाने लगीं। पुस्तक का प्रचार दिनों दिन बढ़ने लगा। इधर पण्डितों ने और कोई उपाय न देख श्रीमधुसूदन सरस्वती जी को उस पुस्तक को देखने की प्रेरणा की। श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने उसे देखकर बड़ी प्रसन्नता प्रकट की और उस पर यह सम्मति लिख दी-

आनन्दकानने ह्यास्मिञ्जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

मुख्य रचनाएँ

अपने 126 वर्ष के दीर्घ जीवन-काल में तुलसीदास जी ने कुल 22 कृतियों की रचना की है जिनमें से पाँच बड़ी एवं छः मध्यम श्रेणी में आती हैं। इन्हें संस्कृत विद्वान होने के साथ ही  हिन्दी भाषा के प्रसिद्ध और सर्वश्रेष्ठ कवियों में एक माना जाता है। तुलसीदास जी को महर्षि वाल्मीकि का भी अवतार माना जाता है जो मूल आदिकाव्य रामायण के रचयिता थे।

रचनासामान्य परिचय रामचरितमानस“रामचरित” (राम का चरित्र) तथा “मानस” (सरोवर) शब्दों के मेल से “रामचरितमानस” शब्द बना है। अतः रामचरितमानस का अर्थ है “राम के चरित्र का सरोवर”। सर्वसाधारण में यह “तुलसीकृत रामायण” के नाम से जाना जाता है तथा यह हिन्दू धर्म की महान काव्य रचना है।
दोहावली में दोहा और सोरठा की कुल संख्या 573 है। इन दोहों में से अनेक दोहे तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है।कवितावली   सोलहवीं शताब्दी में रची गयी कवितावली में श्री रामचन्द्र जी के इतिहास का वर्णन कवित्त, चौपाई, सवैया आदि छंदों में की गई है। रामचरितमानस के जैसे ही कवितावली में सात काण्ड हैं  गीतावली, जो कि सात काण्डों वाली एक और रचना है, में श्री रामचन्द्र जी की कृपालुता का वर्णन है। सम्पूर्ण पदावली राम-कथा तथा रामचरित से सम्बन्धित है। मुद्रित संग्रह में 328 पद हैं।विनय पत्रिका विनय पत्रिका में 279 स्तुति गान हैं जिनमें से प्रथम 43 स्तुतियाँ विविध देवताओं की हैं और शेष रामचन्द्र जी की ।
कृष्ण गीतावली ,कृष्ण गीतावली में श्रीकृष्ण जी 61 स्तुतियाँ है , कृष्ण की बाल्यावस्था और 'गोपी - उद्धव संवाद' के प्रसंग कवित्व व शैली की दृष्टि से अत्यधिक सुंदर हैं।रामलला नहछू यह रचना सोहर छ्न्दों में है और रामके विवाह के अवसर के नहछू का वर्णन करती है। नहछू नख काटने एक रीति है, जो अवधी क्षेत्रों में विवाह और यज्ञोपवीत के पूर्व की जाती है।वैराग्य संदीपनी यह चौपाई - दोहों में रची हुई है। दोहे और सोरठे 48 तथा चौपाई की चतुष्पदियाँ 14 हैं। इसका विषय नाम के अनुसार वैराग्योपदेश है ।
रामाज्ञा प्रश्नरचना अवधी में है और तुलसीदास की प्रारम्भिक कृतियों में है।
यह एक ऐसी रचना है, जो शुभाशुभ फल विचार के लिए रची गयी है किंतु यह फल-विचार तुलसीदास ने राम-कथा की सहायता से प्रस्तुत किया है।जानकी मंगल इसमें गोस्वामी तुलसीदास जी ने आद्याशक्ति भगवती श्री जानकी जी तथा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के मंगलमय विवाहोत्सव का बहुत ही मधुर शब्दों में वर्णन किया है।सतसई दोहों का एक संग्रह ग्रंथ है। इन दोहों में से अनेक दोहे 'दोहावली' की विभिन्न प्रतियों में तुलसीदास के अन्य ग्रंथों में भी मिलते हैं और उनसे लिये गये है।पार्वती मंगल इसका विषय शिव - पार्वती विवाह है। 'जानकी मंगल' की भाँति यह भी सोहर और हरिगीतिका छन्दों में रची गयी है। इसमें सोहर की 148 द्विपदियाँ तथा 16 हरिगीतिकाएँ हैं। इसकी भाषा भी 'जानकी मंगल की भाँति अवधी है।बरवै रामायणबरवै रामायण रचना के मुद्रित पाठ में स्फुट 69 बरवै हैं, जो 'कवितावली' की ही भांति सात काण्डों में विभाजित है।हनुमान चालीसाइसमें प्रभु राम के महान् भक्तहनुमान के गुणों एवं कार्यों का चालीस (40) चौपाइयों में वर्णन है। यह अत्यन्त लघु रचना है जिसमें पवनपुत्र श्री हनुमान जी की सुन्दर स्तुति की गई है।

तुलसीदास के सम्मान में जारीडाक टिकट भी जारी कीये गये ।

तुलसीदास जी जबकाशी के विख्यात् घाटअसीघाट पर रहने लगे तो एक रात कलियुग मूर्त रूप धारण कर उनके पास आया और उन्हें पीड़ा पहुँचाने लगा। तुलसीदास जी ने उसी समय हनुमान जी का ध्यान किया। हनुमान जी ने साक्षात् प्रकट होकर उन्हें प्रार्थना के पद रचने को कहा, इसके पश्चात् उन्होंने अपनी अन्तिम कृति विनय-पत्रिका लिखी और उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया। श्रीराम जी ने उस पर स्वयं अपने हस्ताक्षर कर दिये और तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया। निधन संवत्‌ 1680 मेंश्रावण कृष्ण सप्तमी शनिवार को तुलसीदास जी ने "राम-राम" कहते हुए अपना शरीर परित्याग किया। तुलसीदास के निधन के संबंध में. निम्नलिखित दोहा बहुत यप्रचलित है-

संवत सोलह सौ असी ,असी गंग के तीर ।
श्रावण शुक्ला सप्तमी ,तुलसी तज्यो शरीर ।।
तुलसीदास जी रचित सरस भजन...
भज मन राम चरण ...
भज मन राम चरण सुखदाई
जिहि चरनन से निकसी सुरसरि संकर जटा समाई ।
जटा संकरी नाम परयो है, त्रिभुवन तारन आई ॥

जिन चरनन की चरनपादुका भरत रह्यो लव लाई ।
सोइ चरन केवट धोइ लीने तब हरि नाव चलाई ॥

सोइ चरन संत जन सेवत सदा रहत सुखदाई ।
सोइ चरन गौतमऋषि-नारी परसि परमपद पाई ॥

दंडकबन प्रभु पावन कीन्हो ऋषियन त्रास मिटाई ।
सोई प्रभु त्रिलोकके स्वामी कनक मृगा सँग धाई ॥

कपि सुग्रीव बंधु भय-ब्याकुल तिन जय छत्र फिराई ।
रिपु को अनुज बिभीषन निसिचर परसत लंका पाई ॥

सिव सनकादिक अरु ब्रह्मादिक सेष सहस मुख गाई ।
तुलसीदास मारुत-सुतकी प्रभु निज मुख करत बड़ाई ॥

Wednesday, 15 August 2018

सोम सुधा बन बरसो तुम

आ जाओ तुम कविता बन।

जीवन आंगन में रुनझुन रुनझुन
पायल बन छनको बस तुम
आ जाओ तुम कविता बन।

सूनी सांझ, खग लोटे नीड़ों में
  कलरव बन छा जाओ तुम
आ जाओ तुम कविता बन।

संतप्त हृदय एकाकी मन उपवन
सोम सुधा रस बन बरसो तुम
आ जाओ तुम कविता बन।

शब्द भाव अहसास बहुत है
अर्थ  बन सज जाओ तुम
आ जाओ तुम कविता बन।

निश्छल मन के कोरे सर सलिल में
कमलिनी बन खिल जाओ तुम
आ जाओ तुम कविता बन।

             कुसुम कोठारी ।

Tuesday, 14 August 2018

तीन रंग का पहने बाना

स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

तीन रंग का पहने बाना
फहरा रहा जो शान से
आज क्यों कुछ गमगीन है
जिस गर्व से था फहरा ,जो थे उद्देश्य
सभी अधूरे , ढ़ह रहे मनसूबे
लाखों की बलिवेदी पर लहराया था तिरंगा
क्या उन शहीदों का कर्ज चुका पाये?
सोचो हम जो श्वास ले रहे  स्वतंत्रता की
वो हवा कहाँ से आई
कितनी माँओं ने सपूत खोये
कितनी बहनों ने भाई ।
आज स्वार्थ का बेपर्दा होता खेल ,
भ्रष्टाचार,आंतक,दुराचार का दुष्कर मेल
आज चुड़ीयाँ छोड़ हाथ मे लेनी है तलवार
कोई मर्म तक छेद न जाये, पहले करने होंगें वार
आजादी का मूल्य पहचान लें
तो ही खुलेंगे मन के तार
हर तरह के दुश्मनों का जीना करदो दुश्वार
आओ तिरंगे के नीचे हम आज करें यह प्रण
देश धर्म रक्षा हित सब कुछ हो निस्तृण ।

              कुसुम कोठारी ।

Monday, 13 August 2018

स्वतंत्रता दिवस से पहले

.  स्वतंत्रता दिवस से पहले

स्वतंत्रता दिवस पर एक बार
    फिर तिरंगा फहरायेगा
      कुछ कश्मे वादे होगें
       कुछ आश्वासनो का
         परचम लहरायेगा
   हम फिर भ्रमित हो भुलेंगे
          प्रजातंत्र बन गया
        लाठी वालों की भैंस
          और देश बन गया
      मूक बधिरों का आवास
           लाठी वाले खूब !
        अपनी भैंस चरा रहे
           हम पंगू बन बैठे
     स्वतंत्रता दिवस मना रहे ।
     ना जाने देश कहां जायेगा
       हम जा रहे रसातल को
      यद्यपि दीन दुखी गारत है
             विश्व में फिर भी
             सर्वोच्च भारत है 
         गाना नही अब जगना
               और जगाना है
              ठंडे हुवे लहू को
           फिर लावा बनाना है
          मां भारती को सच में
            शिखर पर लाना है
           मजबूत इरादों वाला
       स्वतंत्रता दिवस मनाना है।

                 कुसुम कोठारी ।

Sunday, 12 August 2018

मै "आशा" कहलाती

बूझो कौन?

मै शब्द शब्द चुनती हूं
अर्थ सजाती हूं
दिल की पाती ,
नेह स्याही लिख आती हूं

फूलों से थोड़ा रंग,
थोड़ी महक चुराती हूं
फिर खोल अंजुरी
हवा में बिखराती हूं

चंदा की चांदनी
आंखो में भरती हूं
और खोल आंखे
मधुर सपने बुनती हूं

सूरज की किरणो को
जन जन पहुँचाती हूं
हवा की सरगम पर
गीत गुनगुनाती हूं

बूझो कौन ?नही पता!
मैं ही बतलाती हूं
जब निराशा छाने लगे
मैं " आशा " कहलाती हूं ।

        कुसुम कोठारी ।

Friday, 10 August 2018

आज नया एक गीत ही लिख दूं

आज नया एक गीत ही लिख दूं।

              वीणा का गर
              तार न झनके
              मन  का कोई
            साज ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं

               मीहिका से
           निकला है मन तो
            सूरज की कुछ
            किरणें लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।

               धूप सुहानी
            निकल गयी तो 
               मेहनत का
           संगीत ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।

             कुछ खग के
           कलरव लिख दूं
          कुछ  कलियों की
           चटकन लिख दूं
आज नया एक गीत ही लिख दूं।

           क्षितिज मिलन की
                मृगतृष्णा है
               धरा मिलन का
              राग ही लिख दूं।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।

                 चंद्रिका ने
              ढका विश्व को
              शशि प्रभा की
            प्रीत ही लिख दूं ।
आज नया एक गीत ही लिख दूं।

              कुसुम कोठारी ।

खून था शहीदों का

लहू था शहीदों का

कण कण रज रंग गया
लहू था शहीदों का
कौन चुका पायेगा ऋण
मातृभूमि के सपूतों का
अब मिट्टी में वो उर्वरकता नही
जो ऐसे सपूत पैदा कर दे
अब प्रतिष्ठा के मान दण्ड
बदल रहे हैं प्रतिपल
देश भक्ति  अब बस
है बिते युग की बातें
परोसी हुई मिली आजादी
कौन कीमत पहिचाने
अपना दर्द सर्वोपरि है
दर्द देश का कौन जाने
वर्षों से एक भी प्रताप
सा योद्धा नही देखा
ना राज गुरु ना भगत सिंह
ना कोई सुख देव दिखा
ना आजाद ना पटेल
ना कोई सुभाष दिखा
और बहुत थे नामी गुमनामी
अब कदाचित ऐसे महा वीर
दृष्टि गोचर  होते नही
ये धरा का दुर्भाग्य है
या है कोई संकेत कयामत का
सब कुछ समझ से बाहर है
कोई राह सुलझी नही।
अब मिट्टी मे वो उर्वरकता रही नही।
                 
                कुसुम कोठारी।

Thursday, 9 August 2018

याद करें शहीदों को

याद करलें शहीदों को

मातृभूमि की बलिवेदी पे शीश लिये, हाथ जो चलते थे
हाथों मे अंगारे ले के ज्वाला में जो जलते थे
अग्नि ही पथ था जिनका, अलख जगाये चलते थे
जंजीरों मे जकड़ी मां को आजाद कराना था
शिकार खोजते रहते थे जब सारी दुनिया सोती थी
जिनकी हर सुबहो, भाल तिलक रक्त  से होती थी
आजादी का शंख नाद जो बिना शंख ही करते थे
जब तक मां का आंचल कांटो से मुक्त ना कर देगें
तब तक चैन नही लेंगे सौ सौ बार शीश कटा लेंगे
दनदन बंदूकों के आगे सीना ताने चलते थे
 जुनून  मां को आजाद कराने का लिये चलते थे
ना घर की चिंता ना मात पिता,भाई  बहन ना पत्नी की
कोई रिश्ता ना बांध सका जिनकी मौत प्रेयसी थी
ऐसे शहीदों पर हर एक देशवासी को है अभिमान
नमन करें उनको जो आजादी की नीव  का पत्थर बने
एक विशाल भवन के निर्माण हेतू हुवे बलिदान।
                    कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 8 August 2018

मानिनी का मान

तीन क्षणिकाएं "मान" "निराशा" "यादें"

.         मान

सावन का यूं बरसना
बरस के रुकना
रुक के फिर बरसना
मानो मानिनी का मान
तोड़ने  की ठानी है किसी ने।

.           निराशा

लहरों का गुनगुनाते हुवे
तट से टकराकर यूं लौट जाना
ज्यौं आज भी
कान्हा के बंसी की स्वर लहरी
सुनने आना गोपियों का
यमुना तट पे
और लौट जाना निराश हो के।

.              यादें

हवा का यूं कुछ थाप देना
फिर राह बदलना इठलाके
मानो  भुली यादों के घेरे मे
फिर फिर जा बसना
मन की खिड़की खोल ।

      कुसुम कोठारी ।

Monday, 6 August 2018

मन पंछी

.                      मंन पंछी

सुबह उड़ता आसमां  में शाम ज़मी पर होता है
मन पंछी तेरी माया अद्भुत जाने क्या तूं बोता है

कितनी भी हो धूप प्रचंड पंख ही तेरी छाया है
जो तूने है मन में ठाना सब साबित कर पाया है

उड़ने का उन्माद ऊँचाईयों तक ले जाता है
धरा से आसमान तक पंखों  में भर लाता है

तो घायल होकर कभी तूं नीड़ में लौट आता है
फिर अगली उड़ान को तूं तैयार हो जाता है

कितने सुख और दुख कितने बांहों में भरता है
तेरे अंदर कर्ता के गुण तूं खुद भाग्य विधाता है।
                     
                      कुसुम कोठारी।

Sunday, 5 August 2018

धरा का स्वर्ग

देव लोक से अनुठी नगरी

विधाता ने जब रचा
कश्मीर धरा पर
स्वयं भी अचम्भित रह गया
ये क्या बना ङाला मैने ,
सुर और सुरपति भी थे रोष में
देवलोक से अनुठी ये नगरी
क्यों मानव लोक में ,
सुर बालायें भ्रमित
कहां रहना हो उनका
अपने सुर लोक में
या स्वर्ग से सुंदर इस लोक में ।

        कुसुम कोठारी ।

Friday, 3 August 2018

ओ नौजवान

युवाओं को आह्वान

वीर देश के गौरव हो तुम
माटी की शान तुम
भूमि का अभिमान तुम
देश की आन तुम
राह के वितान तुम।

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।

राहें विकट,हौसले बुलंद रख
चीर दे सागर का सीना
पांव आसमां पे रख
आंधी तुम तूफान तुम
राष्ट्र की पतवार तुम।

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।

भाल को उन्नत रख
हाथ में कमान रख
बन के आत्माभिमानी
शीश झुका के पर्वतों के
राह पर कदम रख।

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।

दुर्जनों को रौंद दे
निर्बलों की ढाल तुम
नेकियाँ हाथों में रख
मान तुम गुमान तुम
सागर के साहिल तुम।

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।

तूं महान कर्मकर
अर्जुन तुम कृष्ण तुम
राह दिखा दिग्भ्रमित को
गीता के संदेश तुम
अबलाओं के त्राण तुम।

ओ नौजवान बढ़ो चलो
धीर तुम गम्भीर तुम।
   
       कुसुम कोठारी ।

बरस ऋतु सावन की आई

बरस ऋतु सावन की आई

अल्हड़ शर्माती इठलाती
    मेंहदी रचे हाथों में
    बरसता सावन भर
      मुख पर उड़ाती ,
  हाथों में चेहरा छुपाती
     हटे हाथ , निकला
   ओस में भीगा गुलाब
   संग सखियों  के जाना
       पाँव में थिरकन ,
        हृदय है झंकृत
तार तार मन वीणा बाजत
  रोम रोम हरियाली छाई
सरस ऋतु सावन की आई
डाल डाल पे झुले सज गये ,
     आ सखी पेंग बढ़ाऐं ,
       रुनझुन पायलिया
       छनक छनक बोले ,
            गीत सुनाये
          जीया भरमाऐ
             नींद चुराऐ
चारों और छटा मनोहर छाई
बरस ऋतु सावन की आई ।
         कुसुम कोठरी ।

Wednesday, 1 August 2018

निशांत का संगीत

आदित्य आचमन

लो चंदन महका और खुशबू उठी हवाओं मेंं
कैसी सुषमा  निखरी  वन उपवन उद्धानों मेंं

निकला उधर अंशुमाली  गति  देने जीवन मेंं
निशांत का,संगीत ऊषा गुनगुना रही अंबर मेंं

मन की वीणा पर झंकार देती परमानंद मेंं
महा अनुगूंज बन बिखर गई सारे नीलांबर मेंं

वो देखो हेमांगी  पताका  लहराई क्षितिज मेंं
पाखियों का कलरव फैला चहूं और भुवन मेंं

कुमुदिनी लरजने लगी सूर्यसुता के पानी मेंं
विटप झुम  उठे  हवाओं के मधुर संगीत मेंं

वागेश्वरी  स्वयं  नवल वीणा ले उतरी धरा मेंं
कर लो गुनगान अद्वय आदित्य के आचमन मेंं

लो फिर आई है सज दिवा नवेली के वेश मेंं
करे  सत्कार जगायें  नव निर्माण विचारों मेंं।
                 कुसुम कोठारी ।