*वीर शिरोमणि आल्हा ऊदलऔर पृथ्वीराज युद्ध।*
आल्हा मध्यभारत में स्थित ऐतिहासिक बुन्देलखण्ड के सेनापति थे और अपनी वीरता के लिए विख्यात थे। आल्हा के छोटे भाई का नाम ऊदल था ,वह भी वीरता में अपने भाई से बढ़कर ही था।
ऊदल अपनी मातृभूमि की रक्षा हेतु पृथ्वीराज चौहान से युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए आल्हा अपने छोटे भाई की वीरगति की खबर सुनकर अपना आपा खो बैठे और पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े आल्हा के सामने जो आया मारा गया 1 घण्टे के घनघोर युद्ध की के बाद पृथ्वीराज और आल्हा आमने-सामने थे दोनों में भीषण युद्ध हुआ पृथ्वीराज चौहान बुरी तरह घायल हुए, आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया ।
बुन्देलखण्ड के ये महा योद्धा अमर हो गये आज तक उनकी वीरता के चर्चे गीतों छंदों में गाए जाते हैं।
*आल्हा छंद आधारित काव्य सृजन।*
दोहा:-
नीलभुजा माँ शारदे, रखो कलम का मान।
आल्हा रचना चाहती, सम्मुख बैठो आन ।।
वंदन कर गुरु पाद में, श्रीगणेश हो काज।
ओज भरा कर दूँ सृजन, यही भावना आज।।
वे बुंदेला के सेनापति,
आल्हा वीर शिरोमणि एक।
वीर अनुज सम ऊदल भ्राता,
आज लिखूँ उन पर कुछ नेक।।१।।
दोनों ही थे देश उपाशक,
राजा परमल देते स्नेह ।
दसराज पिता माता देवल,
जिनका दसपुरवा में गेह।।२।।
उनका शोर्य अतुल अनुपम था,
दोनो अवतारी से वीर।
भीम युधिष्ठिर कहलाते थे,
रिपु छाती को देते चीर।।३।।
पृथ्वीराज नृपति अजमेरी,
सैना ले आये चंदेल।
ऊदल अगवाई कर बढ़ते,
जैसे खेले कोई खेल।।४।।
पृथ्वीराज बड़े योद्धा थे,
नभ तक फैला उनका नाम।
राव सभी थर्राते उनसे,
चढ़ आये चंदेला धाम।।५।।
नृप परिमल भयभीत हुए पर,
जोश भरा ऊदल में तेज।
ईंट बजा दूँगा मैं सबकी,
मृत्यु बने रिपुओं की सेज।।६।।
बैरी पर चढ़ने वो दौड़ा,
दल बल पैदल हस्ती घोट।
अस्त्र सुशोभित सौष्ठव दमका,
रण भेरी डंके की चोट।।७।।
युद्ध भयंकर टनटन शायक,
शत्रु रुधिर का करती पान।
ऊदल में बिजली सी बहती,
खचखच काटे मुंड़ सुजान।।८।।
भाल प्रथम गिरने से पहले,
अन्य उड़े ज्यों अंधड़ पात।
मृत तन से भूमि टपी सारी,
रक्त भरे बिखरे थे गात।।९।।
बाहु सहस्त्रा चलते भारी,
तन के भाव नही थे क्लांत।
ऊदल जैसे तांडव बनता,
चौहानी सैनिक थे श्रांत।।१०।।
पृथ्वीराज स्वयं फिर आये,
ऊदल तन में रक्त उबाल।
दोनों हाथी से बलशाली,
दोनों चलते मारुति चाल।।११।।
रक्तिम आँखों देख रहे थे,
दोनों ही थे वीर महान।
अल्प क्षणों करवाल रुके से,
सिंह मृगाशन धीर महान।।१२।।
दोहा:-
श्वांसे चलती धोंकनी, आयुध करते शोर ।
तोल रहे लोहित नयन,युद्ध छिड़ा घनधोर।।
तलवारे झन्नाई भारी,
गूंजा भीषण आहत नाद।
टूट वहाँ चट्टाने बिखरी,
अश्व खड़े थे पिछले पाद ।।१३।।
व्योम अवनि तक विद्युत कौंधी,
पाखी उड़कर भागे दूर।
दहला भय से जन-जन का मन,
मेघाक्षादित मिट्टी भूर।।१४।।
दीर्घ रथी चोटों पर चोटें,
काल थमा था विस्मित आज।
अपनी चेत नहीं दोनों को,
उनको प्यारा राष्ट्र सुराज।।१५।।
अंतिम निर्णय तक लड़ना था,
मौत सखी सा रखते भाव।
चिंता अपने तन की भूले,
खड्ग करे घावों पर घाव।।१६।।
युद्ध दिखे दावानल जैसा,
मौत लपकती हर तलवार।
धूं धूं वीर सिपाही जलते,
अग्नि बिना ही हाहाकार।।१७।।
हार विजय का भेद समझने,
सूर्य गया ज्यों ढलना भूल।
दो इन्द्रों का साहस देखे,
कौन मिटेगा जड़ आमूल।।१८।।
ताड़ित टूट गिरी फिर ऐसी,
गूंजी चौहानी ललकार।
देह धरा पर ऊदल घायल,
चार दिशा में हाहाकार।।१९
परमल सेना क्लांत दुखी थी,
शत्रु दिशा में जय जयकार।
पृथ्वीराज नमन सिर करते,
योद्धा देखा पहली बार।।२०।।
दोह,:-
और साँझ ढल ही गई, रवि अप्रभ निस्तेज ।।
मूक हुई चारों दिशा, वीर शयन भू सेज।।
हरकारा हय पर चढ़ दौडा,
बात सुनाई रण की खार।
आँख फटी सी जिव्हा जकड़ी,
खौला रक्त उछाले मार।।२१।।
भ्रात अनुज प्राणों से प्यारा,
खेत रहा ये कैसी घात।
वीर अजेय महान कहे सब,
कैसे मन स्वीकारे बात।।२२।।
क्रोध उठा थर थर थर्राया,
हाथ उठाली फिर करवाल।
नाम बतादो उस अधमी का,
काटूँगा जा उसका भाल।।२३।।
शांत रहें हे वीर शिरोमणि,
साँझ समय है युद्ध विराम।
कल का सूरज रण में उतरें,
रोकें तब तक अपना भाम।।२४।।
घायल नाहर विचलित घूमे,
काल निशा कब होगी अंत।
घोर व्यथा आलोड़ित तन मन,
टीस उठाव हृदय अभ्यंत।।२५।।
जैसे तैसे रात बिताई,
शस्त्र लिये निकला बलवीर।
सौ सौ टुकड़े कर डालूंगा,
रक्त बहा दूँ छाती चीर।।२६।।
चढ़ घोड़े पर एड लगाई,
उड़ता सा पहुँचा रण क्षेत्र।
श्वास मचलती ज्वार सलिल सी,
लोहित से थे दोनों नेत्र।।२७।।
आँखें ढूंढ़ रही पृथ्वी को,
खच खच काट रहा हर शीश।
कंठ प्रचंड सटाल दहाड़ा,
ओट छुपा क्यों भीरु अधीश।।२८।।
दोहा:-
आल्हा थे भीषण कुपित, जैसे जलती आग।
सौ-सौ योद्धा मारते, रण भू खेले फाग।।१
कट कट चौहानी गिरे, पृथा हुई थी लाल।
हाथी हय चिंघाड़ते,जैसे घूमें काल।।२।।
सैन्य हुआ निर्बल सा हारा,
रुक के ठहरी सारी सृष्टि।
ले हुंकार सुभट फिर आये,
केशी जैसी क्रोधित दृष्टि।।२९।।
दो व्याघ्र समक्ष खड़े निर्भय,
मार छलाँग प्रथम अब कौन।
सारी सेना निस्तब्ध रुकी,
और दिशाएँ साधे मौन।।३०।।
भाई का हत्यारा सम्मुख,
देख जली मन में फिर आग।
आल्हा तलवार उठा दौड़े,
शत्रु दिखे ज्यों काला नाग।३१।।।
पृथ्वीराज सुभट थे योद्धा,
तोल रहे बैरी की चाल।
ज्यों उछली आल्हा की काया,
चौहानी चमकी करवाल।।३२।।
दोहा:-
तेज तान से दो सुभट, खेल रहे ज्यों खेल।
तड़ तड़ तलवारें तड़ित, रक्त रंग थे चेल।।
वार करे आपस में दोनों,
साथ सटकते सौ सौ वीर।
भारी थे दूजे पर योद्धा,
आँखों से भी चलते तीर।।३३।।
रक्त लुहान कलेवर दिखते,
लाल रतन से झूमे आज।
अपनी आन बड़ी दोनों को,
वर्तुल जैसे घूमे आज।।३४।।
और तभी सौ हाथी बल से
एक किया आल्हा ने वार।
हाथों से रजपूत सुभट के
टूट गिरी भारी तलवार।।३५।।
हाथ उठा आल्हा का ऊपर
तेज प्रवाह उकट दे शीश
वाणी गूंजी ठहरो बेटे
प्राण दया दो बन तुंगीश।।३६।।
गुरु वाणी सुन वीर रुका जब,
सम्मुख थे गुरु गोरखनाथ।
शूर क्षमा कर दो तुम इनको,
पृथ्वी चाहे पृथ्वी साथ।।३७।।
करने इनको काम बहुत से,
इनके हाथ धरा की लाज।
हो रजपूत सुभट तुम दोनों
देश हितार्थ करो बहु काज।।३८।।
नतमस्तक हो गुरु के आगे,
आल्हा ने फैंकी तलवार।
छोड़ चला वो फिर रण भू को,
त्याग दिया घर नृप संसार।।३९।।
आल्हा वीर अमर कहलाते,
उत्तर भारत में यश गान
गाँव नगर में गाथा उनकी,
राज्य महोबा के सम्मान।।४०।।
समापन दोहे:-
अमर हुए इतिहास में, बुंदेला के वीर ।
गाथा गाते भागता, जन जन-मन से भीर।।
आल्हा ऊदल पर किया, छंद वीर रस गान।
भूल चूक करिये क्षमा, अल्प ज्ञान है जान।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'