मेरे मन की ओ कविता।
काव्य सरस सा रचना चाहूँ
प्राची की तू बन सविता।
जाने कैसे हुई तिरोहित,
मेरे मन की ओ वनिता ।
भाव हृदय के मूक हुए हैं
सहचरी मेरी क्यों रुठी।
आज गगरिया छलका दो तुम
गीतों की लय भी टूटी।
टूटे पंखों कैसे लिख दूँ
बना लेखनी वो कविता ।।
नंदन वन की भीनी सौरभ
मंजुषा में बंद ज्यों है।
काव्य क्षितिज भी सूना-सूना
वर्णछटा फीकी क्यों है।
झरने नीरव रुकी घटाएं
धीमी-धीमी है सरिता।।
अंतर लेख उतर कर नीचे
आज शल्यकी में ढ़ल जा।
ओ मेरे अंतस की गंगा
पावस ऋतु बन कर फल जा।
मंदिर का दीपक बन जलना
करे प्रार्थना ये विनिता।।
भाव सीपिज अवली में बाँधु
सुधा चुरा लूँ चँदा से।
चंचल किरणे रचूँ पत्र पर
करतब सीखूँ वृंदा से।
चटकी कलियाँ फूल खिला दूँ
पनधट बोध लिखूँ भविता।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
ओ मेरे अंतस की गंगा
ReplyDeleteपावस ऋतु बन कर फल जा।
मंदिर का दीपक बन जलना
करे प्रार्थना ये विनिता।।---बहुत अच्छी रचना
बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteरचना सार्थक हुई आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से।
सादर।
बहुत ही प्यारी मनभावन कविता🙏
ReplyDeleteजी आप को पसंद आई लेखन सार्थक हुआ।
Deleteसादर आभार।
क्या खूब लिखा है आपने।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका शिवम् जी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
Deleteसादर।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (24-05-2021 ) को 'दिया है दुःख का बादल, तो उसने ही दवा दी है' (चर्चा अंक 4075) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
जी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteमैं उपस्थित रहूंगी।
चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
बहुत सुन्दर !
ReplyDeleteकाव्य-रचना में इतना माधुर्य ! इतनी विविधता ! वाह कुसुम जी !
बहुत बहुत आभार आपका सर ।
Deleteआपको ब्लाग पर टिप्पणी के साथ देखकर अच्छा लगा।
उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
सादर।
सुंदर रचना ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
सुंदर भावो से परिपूर्ण बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ज्योति बहन।
Deleteउत्साहवर्धन हुआ।
सस्नेह।
वाह ! हृदय के कोमल भावों से पिरोयी अति सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका रचना के भावों पर विशिष्ट ध्यान देने के लिए ।
Deleteउत्साहवर्धन हुआ।
सस्नेह।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।
बहुत बहुत बहुत ही सुंदरकुसुम जी कि ----"नंदन वन की भीनी सौरभ
ReplyDeleteमंजुषा में बंद ज्यों है।
काव्य क्षितिज भी सूना-सूना
वर्णछटा फीकी क्यों है।
झरने नीरव रुकी घटाएं
धीमी-धीमी है सरिता।।" वाह
बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी , आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
"....
ReplyDeleteभाव सीपिज अवली में बाँधु
सुधा चुरा लूँ चँदा से।
चंचल किरणे रचूँ पत्र पर
करतब सीखूँ वृंदा से।
चटकी कलियाँ फूल खिला दूँ
पनधट बोध लिखूँ भविता।।
....."
..........बहुत ही सुन्दर भाव से इस रचना का अंत किया। एक कवि/लेखक के लिए प्रिय रचना है यह।
बहुत बहुत आभार आपका आपने रचना पर विशेष टिप्पणी करके रचना का मान बढ़ाया है।
Deleteरचना सार्थक हुई ।
सादर।
भाव हृदय के मूक हुए हैं
ReplyDeleteसहचरी मेरी क्यों रुठी।
आज गगरिया छलका दो तुम
गीतों की लय भी टूटी।
टूटे पंखों कैसे लिख दूँ
बना लेखनी वो कविता ।।
....सुंदर भावों का अनूठा सृजन .
बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
Deleteआपकी सुंदर मोहक प्रतिक्रिया रचना को गतिमान करती सी ।
सस्नेह।
अंतर लेख उतर कर नीचे
ReplyDeleteआज शल्यकी में ढ़ल जा।
ओ मेरे अंतस की गंगा
पावस ऋतु बन कर फल जा।
मंदिर का दीपक बन जलना
करे प्रार्थना ये विनिता।।
वाह!!!
हमेशा की तरह कमाल का सृजन
आपकी ये प्रार्थना माँ सरस्वती ने स्वीकृत की है कुसुम जी शब्द शब्द पावनगंगा सा बहा है..और आपका लेखन पाठक के मन को मोह लेता है
बहुत बहुत शुभकामनाएं।