Sunday, 23 May 2021

मेरे मन की ओ कविता


 मेरे मन की ओ कविता।


काव्य सरस सा रचना चाहूँ

प्राची की तू बन सविता।

जाने कैसे हुई तिरोहित,

मेरे मन की ओ वनिता ।


भाव हृदय के मूक हुए हैं

सहचरी मेरी क्यों रुठी।

आज गगरिया छलका दो तुम

गीतों की लय भी टूटी।

टूटे पंखों कैसे लिख दूँ 

बना लेखनी वो कविता ।।


नंदन वन की भीनी सौरभ

मंजुषा में बंद ज्यों है।

काव्य क्षितिज भी सूना-सूना

वर्णछटा फीकी क्यों है।

झरने नीरव रुकी घटाएं

धीमी-धीमी है सरिता।।


अंतर लेख उतर कर नीचे

आज शल्यकी में ढ़ल जा।

ओ मेरे अंतस की गंगा

पावस ऋतु बन कर फल जा।

मंदिर का दीपक बन जलना

करे प्रार्थना ये विनिता।।


भाव सीपिज अवली में बाँधु

सुधा चुरा लूँ चँदा से।

चंचल किरणे रचूँ पत्र पर

करतब सीखूँ वृंदा से।

चटकी कलियाँ फूल खिला दूँ

पनधट बोध लिखूँ भविता।।


       कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

25 comments:

  1. ओ मेरे अंतस की गंगा

    पावस ऋतु बन कर फल जा।

    मंदिर का दीपक बन जलना

    करे प्रार्थना ये विनिता।।---बहुत अच्छी रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
      रचना सार्थक हुई आपकी सुंदर प्रतिक्रिया से।
      सादर।

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  2. बहुत ही प्यारी मनभावन कविता🙏

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    1. जी आप को पसंद आई लेखन सार्थक हुआ।
      सादर आभार।

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  3. क्या खूब लिखा है आपने।

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका शिवम् जी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      सादर।

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  4. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (24-05-2021 ) को 'दिया है दुःख का बादल, तो उसने ही दवा दी है' (चर्चा अंक 4075) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका।
      मैं उपस्थित रहूंगी।
      चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।

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  5. बहुत सुन्दर !
    काव्य-रचना में इतना माधुर्य ! इतनी विविधता ! वाह कुसुम जी !

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सर ।
      आपको ब्लाग पर टिप्पणी के साथ देखकर अच्छा लगा।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      सादर।

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  6. Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
      सादर।

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  7. सुंदर भावो से परिपूर्ण बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका ज्योति बहन।
      उत्साहवर्धन हुआ।
      सस्नेह।

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  8. वाह ! हृदय के कोमल भावों से पिरोयी अति सुंदर रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका रचना के भावों पर विशिष्ट ध्यान देने के लिए ।
      उत्साहवर्धन हुआ।
      सस्नेह।

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  9. बहुत बहुत सुन्दर

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    1. बहुत बहुत आभार आपका।
      सादर।

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  10. बहुत बहुत बहुत ही सुंदरकुसुम जी क‍ि ----"नंदन वन की भीनी सौरभ

    मंजुषा में बंद ज्यों है।

    काव्य क्षितिज भी सूना-सूना

    वर्णछटा फीकी क्यों है।

    झरने नीरव रुकी घटाएं

    धीमी-धीमी है सरिता।।" वाह

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    1. बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी , आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह।

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  11. "....
    भाव सीपिज अवली में बाँधु
    सुधा चुरा लूँ चँदा से।
    चंचल किरणे रचूँ पत्र पर
    करतब सीखूँ वृंदा से।
    चटकी कलियाँ फूल खिला दूँ
    पनधट बोध लिखूँ भविता।।
    ....."
    ..........बहुत ही सुन्दर भाव से इस रचना का अंत किया। एक कवि/लेखक के लिए प्रिय रचना है यह।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आपने रचना पर विशेष टिप्पणी करके रचना का मान बढ़ाया है।
      रचना सार्थक हुई ।
      सादर।

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  12. भाव हृदय के मूक हुए हैं

    सहचरी मेरी क्यों रुठी।

    आज गगरिया छलका दो तुम

    गीतों की लय भी टूटी।

    टूटे पंखों कैसे लिख दूँ

    बना लेखनी वो कविता ।।
    ....सुंदर भावों का अनूठा सृजन .

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    1. बहुत बहुत आभार आपका जिज्ञासा जी।
      आपकी सुंदर मोहक प्रतिक्रिया रचना को गतिमान करती सी ।
      सस्नेह।

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  13. अंतर लेख उतर कर नीचे
    आज शल्यकी में ढ़ल जा।
    ओ मेरे अंतस की गंगा
    पावस ऋतु बन कर फल जा।
    मंदिर का दीपक बन जलना
    करे प्रार्थना ये विनिता।।
    वाह!!!
    हमेशा की तरह कमाल का सृजन
    आपकी ये प्रार्थना माँ सरस्वती ने स्वीकृत की है कुसुम जी शब्द शब्द पावनगंगा सा बहा है..और आपका लेखन पाठक के मन को मोह लेता है
    बहुत बहुत शुभकामनाएं।

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