Tuesday, 18 May 2021

पीले पत्तों सी परिणति


 पीले पत्ते सी परिणति


आलोड़ित है काल जगत का

थिर-थिर डोले त्रास भरे।

अविदित सी देखो यह विपदा 

कैसे कोई धीर धरे।।


इक हिण्ड़ोले सा ये जीवन

कभी इधर औ कभी उधर‌।

धक्का देता समय महाबलि

कांप उठे भू धरणीधर।

पीले पत्ते जैसी परिणति

संग हवा के दूर गिरे।।


खेल खेलती विधना औचक

मानव बन कंदुक लुढ़के

गर्व टूटके बिखरा ऐसा

इक दूजे का मुंह तके।

मोम बनी है पिघली पीड़ा

ठंडी होकर ओस झरे।।


एक घड़ी की नहीं चेतना

लोभ मोह में भटका है

खाली हाथों ही जाना है

दाम अर्थ क्यों अटका है

श्वासों में अटकी है उलझन

उर्जा प्राणायाम करे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

21 comments:

  1. वर्तमान परिदृश्य में बहुत ही सटीक रचना, कुसुम दी।

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  2. बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना

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    1. जी आत्मीय आभार आपका ‌

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  3. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर ( 3034...रात की सियाही को उजाले से जोड़ोगे कैसे...?) गुरुवार 20 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. जी आत्मीय आभार ।
      रचना को चर्चा में शामिल करने के लिए।
      सादर।

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका।

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  5. वाकई इंसान चाँद तक जा पहुँचा है पर कोरोना के प्रकोप से जीवन को बच पाने में कितना असमर्थ है

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    1. बहुत बहुत आभार आपका अनिता जी।
      सस्नेह।

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  6. कोई कैसे धीर धरे...
    हृदय विदारक अत्यंत प्रभावी रचना ।
    बधाई एवं शुभकामनाएं!

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    1. रचना को स्नेह देने के लिए बहुत बहुत आभार आपका।
      ब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
      सस्नेह।

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  7. बहुत खूब कुसुम जी, बहुत ही खूब
    इक हिण्ड़ोले सा ये जीवन

    कभी इधर औ कभी उधर‌।

    धक्का देता समय महाबलि

    कांप उठे भू धरणीधर।

    पीले पत्ते जैसी परिणति

    संग हवा के दूर गिरे।।----वाह

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    1. बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना प्रवाह मान हुई।
      सस्नेह।

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  8. इक हिण्ड़ोले सा ये जीवन

    कभी इधर औ कभी उधर‌।

    धक्का देता समय महाबलि

    कांप उठे भू धरणीधर।

    पीले पत्ते जैसी परिणति

    संग हवा के दूर गिरे।...दर्द भरे अहसासों का आभास करा गई आपकी ये भावों भरी रचना,आपको मेरी सादर शुभकामनाएं।

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    1. रचना में निहित भावों पर आपकी विहंगम दृष्टि ने रचना को सार्थकता प्रदान की जिज्ञासा जी।
      बहुत बहुत आभार आपका।
      सस्नेह।

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  9. आज के वक़्त का पूरा खाका खींच दिया ।
    ऐसे माहौल में भला कोई कैसे धीरज रखे ।
    सुंदर रचना

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  10. बहुत बहुत आभार आपका संगीता जी।
    आपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
    सादर सस्नेह।

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  11. खेल खेलती विधना औचक

    मानव बन कंदुक लुढ़के

    गर्व टूटके बिखरा ऐसा

    इक दूजे का मुंह तके।

    मोम बनी है पिघली पीड़ा

    ठंडी होकर ओस झरे।।
    सच में विधना कैसा खेल खेल रही है सृष्टि के साथ...कैसा भयावह है ये सब...
    समसामयिक हालातों पर लाजवाब नवगीत।

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  12. वाह!गज़ब का सृजन दी।
    नमन आपकी लेखनी को...
    बहुत बहुत बधाई ।

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