पीले पत्ते सी परिणति
आलोड़ित है काल जगत का
थिर-थिर डोले त्रास भरे।
अविदित सी देखो यह विपदा
कैसे कोई धीर धरे।।
इक हिण्ड़ोले सा ये जीवन
कभी इधर औ कभी उधर।
धक्का देता समय महाबलि
कांप उठे भू धरणीधर।
पीले पत्ते जैसी परिणति
संग हवा के दूर गिरे।।
खेल खेलती विधना औचक
मानव बन कंदुक लुढ़के
गर्व टूटके बिखरा ऐसा
इक दूजे का मुंह तके।
मोम बनी है पिघली पीड़ा
ठंडी होकर ओस झरे।।
एक घड़ी की नहीं चेतना
लोभ मोह में भटका है
खाली हाथों ही जाना है
दाम अर्थ क्यों अटका है
श्वासों में अटकी है उलझन
उर्जा प्राणायाम करे।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
वर्तमान परिदृश्य में बहुत ही सटीक रचना, कुसुम दी।
ReplyDeleteआत्मीय आभार बहना।
Deleteसटीक व सामयिक रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर सराहनीय रचना
ReplyDeleteजी आत्मीय आभार आपका
Deleteआपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर ( 3034...रात की सियाही को उजाले से जोड़ोगे कैसे...?) गुरुवार 20 मई 2021 को साझा की गई है.... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteजी आत्मीय आभार ।
Deleteरचना को चर्चा में शामिल करने के लिए।
सादर।
बहुत सुंदर।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteवाकई इंसान चाँद तक जा पहुँचा है पर कोरोना के प्रकोप से जीवन को बच पाने में कितना असमर्थ है
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका अनिता जी।
Deleteसस्नेह।
कोई कैसे धीर धरे...
ReplyDeleteहृदय विदारक अत्यंत प्रभावी रचना ।
बधाई एवं शुभकामनाएं!
रचना को स्नेह देने के लिए बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
सस्नेह।
बहुत खूब कुसुम जी, बहुत ही खूब
ReplyDeleteइक हिण्ड़ोले सा ये जीवन
कभी इधर औ कभी उधर।
धक्का देता समय महाबलि
कांप उठे भू धरणीधर।
पीले पत्ते जैसी परिणति
संग हवा के दूर गिरे।।----वाह
बहुत बहुत आभार आपका अलकनंदा जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना प्रवाह मान हुई।
Deleteसस्नेह।
ReplyDeleteइक हिण्ड़ोले सा ये जीवन
कभी इधर औ कभी उधर।
धक्का देता समय महाबलि
कांप उठे भू धरणीधर।
पीले पत्ते जैसी परिणति
संग हवा के दूर गिरे।...दर्द भरे अहसासों का आभास करा गई आपकी ये भावों भरी रचना,आपको मेरी सादर शुभकामनाएं।
रचना में निहित भावों पर आपकी विहंगम दृष्टि ने रचना को सार्थकता प्रदान की जिज्ञासा जी।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका।
सस्नेह।
आज के वक़्त का पूरा खाका खींच दिया ।
ReplyDeleteऐसे माहौल में भला कोई कैसे धीरज रखे ।
सुंदर रचना
बहुत बहुत आभार आपका संगीता जी।
ReplyDeleteआपकी टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सादर सस्नेह।
खेल खेलती विधना औचक
ReplyDeleteमानव बन कंदुक लुढ़के
गर्व टूटके बिखरा ऐसा
इक दूजे का मुंह तके।
मोम बनी है पिघली पीड़ा
ठंडी होकर ओस झरे।।
सच में विधना कैसा खेल खेल रही है सृष्टि के साथ...कैसा भयावह है ये सब...
समसामयिक हालातों पर लाजवाब नवगीत।
वाह!गज़ब का सृजन दी।
ReplyDeleteनमन आपकी लेखनी को...
बहुत बहुत बधाई ।