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Monday, 28 November 2022

सृजन का बाना


 सृजन का बाना


अनुपम भाव सृजन गढ़ता जब

प्रतिभा से आखर मिलता 

ओजस मूर्ति कलित गढ़ने को

शिल्पी ज्यूँ काठी छिलता।


गागर आज भरा रस भीना

मधु सागर जाए छलका

बादल ओट हटा कर देखो

शशि मंजुल अम्बर झलका

बैठा कौन रचे यह गाथा

या भेदक नव पट सिलता।।


कविगण रास कवित से खेले

भूतल नभ तक के फेरे

अंबर नील भरा सा दिखता

रूपक गंगा के घेरे

मोहक कल्प तरू लहराए

रचना का डोला हिलता।।


कर श्रृंगार नये बिंबों से

रचना इठलाती प्यारी

भूषण धार चले जब कविता

दुल्हन सी लगती न्यारी 

महके काव्य सुमन पृष्ठों पर

उपवन पुस्तक का खिलता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 26 November 2022

बैठे ठाले


 बैठे ठाले


बैठे ठाले स्वेटर बुन लो

फंदे गूंथ सलाई से।


स्वेटर की तो बात दूर हैं

घर के काम लगे भारी

झाड़ू दे तो कमर मचकती

तन पर बोझ लगे सारी

रोटी बननी आज कठिन है

बेलन छोड़ कलाई से।।


पिट्जा बर्गर आर्डर कर दो

कोक पैप्सी मंगवाना

खटनी करते अब हारी मैं

पार्लर सखी संग जाना

आइसक्रीम तैयार मिले

झंझट कौन मलाई से।।


चलभाष का व्यसन अति भारी

उसमें जी उलझा रहता

कुछ देरी में काम सभी हो

बार-बार मन यह कहता

लोभ भुलावे अंतस अटका 

भागा समय छलाई से।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 21 November 2022

श्वासों का सट्टा


 श्वासों का सट्टा


हर दिवस की आस उजड़ी

दर्द बहता फूट थाली

अब बगीचा ठूँठ होगा

रुष्ठ है जब दक्ष माली।


फड़फड़ाता एक पाखी

देह पिंजर बैठ भोला

तोड़कर जूनी अटारी

कब उड़ेगा छोड़ झोला

ठाँव फिर भू गोद में ही

व्यूढ़ का है कौन पाली।।


मौन हाहाकार रोता

खड़खड़ाती जिर्ण द्वारी

सत निचोड़ा गात निर्बल

काल थोड़ा शेष पारी

श्वास सट्टा हार बैठी

खेलती विधना निराली।।


भ्रम का कुहरा जगत ये 

ड़ोलता ज्यों सिंधु धारा

बीच का गोता लगाकर

इक लहर ढूढ़े किनारा

बाँध कर मुठ्ठी अवाई

जा रहे सब हाथ खाली।।


बगीचा=यहां काया है

दक्ष माली=स्वास्थ्य या सांसें

जीर्ण द्वारी=वृद्धावस्था

व्यूढ़=निर्जीव

पाली =पालने वाला

अवाई=आगमन


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 16 November 2022

यौतुक की जलती वेदी


 यौतुक की जलती वेदी


विद्रुप हँसकर यौतुक बोला

मेरा पेट कुए से मोटा

लिप्सा मेरी नहीं पूरता

थैला मुद्रा का छोटा।


दुल्हा बिकता ढेर दाम में

दाम चुकाने वाला खाली

वस्तु उसे ठेंगा मिलती है

खाली होती घर की थाली

बिकने वाला खून चूसता

मानुषता का पूरा टोटा।


बेटी घर को छोड़ चले जब

दहरी फफक-फफक रोती है

घर में जो किलकारी भरती

भार सिसकियों का ढोती है

रस्मों के अंधे सागर में

नहीं सुधा का इक भी लोटा।।


बहता शोणित स्वयं लजाया

निकला हिय से धीरे-धीरे

एक कलिका भँवर फंसी है

काल खड़ा है तीरे-तीरे

शोषण का लेकर डंका 

लालच देता रहता झोटा।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


यौतुक=दहेज,

Sunday, 13 November 2022

भोला बचपन


 बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷


भोला सच्चा बचपन


ख़्वाबों के दयार पर एक झुरमुट है यादों का।

एक मासूम परिंदा फुदकता यहाँ वहाँ यादों का।


सतरंगी धागों का रेशमी इंद्रधनुषी शामियाना।

जिसके तले मस्ती में झूमता एक भोला बचपन ।


सपने थे सुहाने उस परी लोक की सैर के।

वो जादुई रंगीन परियाँ जो डोलती इधर-उधर।


मन उडता था आसमानों के पार कहीं दूर ।

एक झूठा सच धरती आसमान है मिलते दूर ।


संसार छोटा सा लगता ख़्याली घोडे का था सफ़र। 

एक रात के बादशाह बनते रहे सँवर-सँवर ।


दादी की कहानियों में नानी थी चाँद के अंदर 

सच की नानी का चरखा ढूंढ़ते नाना के घर ।


वो झूठ भी था सब तो कितना सच्चा था बचपन।

ख़्वाबों के दयार पर एक मासूम सा बचपन।


एक इंद्रधनुषी स्वप्निल रंगीला  बचपन।। 


              कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 11 November 2022

जौहर स्यूं पैला


 जौहर स्यूं पैला (राजस्थानी गीत)


नख शिख तक श्रृंगार रच्यो 

कठा चाली ऐ पद्मिणी

हाथ सजायाँ थाल रजत रो

मदरी चाली मृगनयणी।


आँख्याँ झरतो तेज सूर सो

टीकी करती दप-दप भाल

पाँत सिंदुरी केशा बिच में

शोभ रह्या रतनारी गाल


चंद्रिका सो उजालों मुखड़ों

क्षीर समंद गुलाब घुल्यो

निरख रयो है चाँद बावलो

लागे आज डगर भुल्यो।


पण घिरी उदासी मुखड़े पर

डबके आँख्याँ भरयोड़ी

सजी-धजी गणगौरा स्यूँ

 गूँज रही गढ़ री पोड़ी


नैण नमायाँ रानी बोली

सत्यानाशी रूप भयो

आँख रिपु के बन्यो किरकिरी

आज हाथ से माण गयो


बैरी आज गढ़ द्वार पहुंच्या

छत्री धार केशर बाण

आण बचाने रजपूता री

छतराण्या तजसी स्व प्राण।


जौहर की तो आग जले हैं

निछावर होसी हर नार

रूप सुहागण दुल्हन जैसो

दृग नहीं आँसू री धार।


एक पद्मिणी खातिर देखो

लख मानस प्राण गँमासी

स्व प्राणा रो मोह नहीं पण

एक दाग साथे जासी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 7 November 2022

मनोरम उषा काल


 मनोरम  उषा काल


सुरमई सी वादियों में

भोर ने संगीत गाया

खिल उठा गिरिराज का मन

हाथ में शिशु भानु आया।


खग विहग मधु रागिनी से

स्वागतम गाते रहे तब

हर दिशा गूँजारमय हो

झांझरे झनका रही अब

और वसुधा पर हवा ने

पुष्प का सौरभ बिछाया।।


उर्मियों का स्नेह पाकर

पद्म पद्माकर खिले हैं

भृंग मधु रस पान करते

कंठ कलियों से मिले हैं

हो रहे उन्मत्त से वो

मीत मधुरिम आज पाया।।


खुल गये नीरव भगाते

मंदिरों के द्वार सारे

नेह अंतर में समेटे

धेनु छौनों को दुलारे

धुन मधुर है घंटियों में

हर दिशा है ईश माया।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 3 November 2022

भाव अहरी


 

भाव अहरी


होले खिली कलियाँ

बगीची झूम लहरी है

महका रहे उपवन

कहें क्यों धूप गहरी है।


नौबत बजी भारी

नगाड़े संग नाचो जी

भूलो अभी दुख को 

यही आनंद साचो जी

ये साँझ सिंदूरी 

हमारे द्वार ठहरी है।।


दुख मेघ गहरे तो

उढ़ोनी प्रीत की तानो

सहयोग से रहना

सभी की बात भी मानो

मन भाव सुंदर तो

विधाता साथ पहरी है।।


बीता दिवस दुख क्यों

सुहाना कल सरल होगा

बो बीज अच्छा बस

दिया जिसने वहीं भोगा

गंगा बहे पावन

बहानी भाव अहरी है।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'