सृजन का बाना
अनुपम भाव सृजन गढ़ता जब
प्रतिभा से आखर मिलता
ओजस मूर्ति कलित गढ़ने को
शिल्पी ज्यूँ काठी छिलता।
गागर आज भरा रस भीना
मधु सागर जाए छलका
बादल ओट हटा कर देखो
शशि मंजुल अम्बर झलका
बैठा कौन रचे यह गाथा
या भेदक नव पट सिलता।।
कविगण रास कवित से खेले
भूतल नभ तक के फेरे
अंबर नील भरा सा दिखता
रूपक गंगा के घेरे
मोहक कल्प तरू लहराए
रचना का डोला हिलता।।
कर श्रृंगार नये बिंबों से
रचना इठलाती प्यारी
भूषण धार चले जब कविता
दुल्हन सी लगती न्यारी
महके काव्य सुमन पृष्ठों पर
उपवन पुस्तक का खिलता।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'