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Monday, 26 April 2021

किरणों का क्रंदन।


 किरणों का क्रदंन


तारों की चुनरी अब सिमटी

बीती रात सुहानी सी।

कलरव से नीरव सब टूटा

जुगनू द्युति खिसियानी सी।


ओढ़ा रेशम का पट सुंदर

सुख सपने में खोई थी

श्यामल खटिया चांदी बिछती

आलस बांधे सोई थी

चंचल किरणों का क्रदंन सुन

व्याकुल भोर पुरानी सी।।


प्राची मुख पर लाली उतरी

नीलाम्बर नीलम पहने

ओस कणों से मुख धोकर के

पौध पहनते हैं गहने 

चुगरमुगर कर चिड़िया चहकी

करती है अगवानी सी।।


वृक्ष विवर में घुग्घू सोते

 बातें जैसे ज्ञानी हो

दिन सोने में बीता फिर भी

साधु बने बकध्यानी हो

डींगें मारे ऐसे जैसे

कहते झूठ कहानी सी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 21 April 2021

आधुनिकता


 आधुनिकता


कितना पीसा कूटा लेकिन 

तेल बचा है राई में।

बहुओं में तो खोट भरी है

गुण दिखते बस जाई में।


हंस बने फिरते हैं कागा

जाने कितने पाप किये

सौ मुसटा गटक बिलाई

माला फेरे जाप किये

थैला जब रुपयों से भरता

खोट दिखाता पाई में।।


पछुवाँ आँधी में सब उड़ते

हवा मोल  जीवन सस्ता

बैग कांध पर अब लटकी है

गया तेल  लेने बस्ता

अचकन जामा छोड़ छाड़ कर 

दुल्हा सजता  टाई में।।


पर को धोखा देकर देखो

सीढ़ी एक बनाते हैं

बढ़ी चढ़ी बातों के लच्छे

रेशम बाँध सुनाते हैं

परिवर्तन की चकाचौंध ने

आज धकेला खाई में।


गुण ग्राही संस्कार तालिका

आज टँगी है खूटी पर

औषध के व्यापार बढे हैं

ताले जड़ते बूटी पर

सूरज डूबा क्षीर निधी में

साँझ घिरी कलझाई में।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा' 


(सूरज प्रतीक है=सामर्थ्यवान का, क्षीर निधी= विलासिता का साँझ =आम व्यक्ति)

Sunday, 18 April 2021

विषधर


 विषधर


वीण लेकर ढूँढ़ते हैं

साँप विषधर भी सपेरे

नाग अब दिखते नहीं हैं

विष बुझे मानव घनेरे।


जोर तानाशाह दिखते

हर गली हर क्षेत्र भरके

पूँछ दाबे श्वान बैठा

कब हिलाए और सरके

काठ की नौका पुरानी

आज लहरों को उधेड़े।।


कौन तूती की सुने जब

बज रहे गहरे नगाड़े।

घोर विस्मय देख लो जी

कोढ़ को अब थूक झाड़े।

है मचा हड़कंप भारी

दूर है उगते सवेरे।।


डूबते हैं अब किनारे

नाव चढ़ कर यान बैठी

तारने का काम प्रभु का

आदमी की जात पैठी

हो भला सबका विधाता

राम धुन मन पर उकेरे।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Wednesday, 14 April 2021

नटनागर


 नटनागर


हे  जादूगर  हे  नट  नागर  कैसी मोहनी  डारे  तू,

मैं ग्वालन एक भोरी सीधी पहुँचो हुवो कलंदर तू।


बंसी धुन में कौन सो कामण मोरे मन को बाधें तू,

जग को कोई  काज न  सूझे मोरो चैन चुरायो तू।


मैं बस तूझको ही निहारूँ जग को खैवन हारो तू,

मैं बावरी  बंसी धुन की अपनी धुन में खोयो तू।


मैं  एक नारी  बेचारी  पशु  पाखिन को प्यारो तू,

काज छोड़ सब विधि आई एक नजर न डारे तू।


           कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'।

Saturday, 10 April 2021

औचक विनाश


 औचक विनाश


लुब्ध मधुकर आ गये हैं

ताल पंकज से भरे।

बोझ झुकती डालियों से

पुष्परस बहकर झरे।


मधु रसा वो कोकिला भी

गीत मधुरिम गा रही।

वात ने झुक कान कलि के

जो सुनी बातें कही।

स्वर्ण सा सूरज जगा है

धार आभूषण खरे।।


उर्मि की आलोड़ना से

तान तटनी पर छिड़ी।

कोड भरकर दौड़ती फिर

पत्थरों से जा भिड़ी।

भेक ठुमका ताल देकर

कीट इक मुख में धरे।।


भूमि चलिता रूप लेके

ड़ोलती धसती धरा

नाश होने को सभी कुछ

आज अचला भी चरा

बाँसुरी के राग उलझे

मूक सुर कम्पित डरे।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Thursday, 8 April 2021

उल्लाला छंद


 उल्लाला छंद 15/13


मानव ही सबसे श्रेष्ठ है, इस जगती की शान वो ।

यदि करता हो सतकर्म तो मानवता की आन वो।।


बंधन बांधो अब प्रेम के, मन में सुंदर भाव हो ।

जीवन को मानो युद्ध पर, जीने का भी चाव हो।।


लो होली आई रंग ले, बीता फाल्गुन मास भी ।

जी भरकर खेलो फाग सब, बाँधों मन में आस भी।।


गंगा सी निर्मल मन सरित, अनुरागी हो भावना।

सब के हिय में उल्लास हो, ऐसी मंजुल चाहना।।


जब उपवन करुणा का खिले, पावन होते योग हैं।

खिलती कलियाँ मन बाग में, मिटते सारे रोग हैं ।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Tuesday, 6 April 2021

गाँव पलायन बेटे


 गाँव से पलायन बेटे


फागुन के महीने में आम के पेड़ मंजरियों या "मौरों" से लद जाते हैं, जिनकी मीठी गंध से दिशाएँ भर जाती हैं । चैत के आरंभ में मौर झड़ने लग जाते हैं और 'सरसई' (सरसों के बराबर फल) दिखने लगते हैं । जब कच्चे फल बेर के बराबर हो जाते हैं, तब वे 'टिकोरे' कहलाते है । जब वे पूरे बढ़ जाते हैं और उनमें जाली पड़ने लगती है, तब उन्हे 'अंबिया' कहते हैं।

अंबिया पक कर आम जिसे रसाल कहते हैं।

                        ~ ~ ~


चंदन  सा बिखरा हवाओं में

मौरों की खुशबू है फिजाओं में

ये किसीके आने का संगीत है

या मौसम का रुनझुन गीत है।


मन की आस फिर जग गई  

नभ पर अनुगूँज  बिखर गई

होले से मदमाता शैशव आया

आम द्रुम सरसई से सरस आया ।


देखो टिकोरे से भर झूमी डालियाँ

कहने लगे सब खूब आयेगी अंबिया

रसाल की गांव मेंं होगी भरमार

इस बार मेले लगेंगे होगी बहार।


लौट आवो एक बार फिर घर द्वारे

सारा परिवार खड़ा है आँखें पसारे

चलो माना शहर में खुश हो तुम

पर बिन तुम्हारे यहाँ खुशियाँ हैं गुम।


           कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Saturday, 3 April 2021

समय पाहुना


 समय पाहुना


सुखद पल सलौने सपन तोड़ सोये।

लिखे छंद कोरे मसी में भिगोये।


घड़ी दो घड़ी मेघ काले भयानक

तड़ित रेख हिय पर गिरी है अचानक।

बहे कोर तक स्रोत उपधान धोये।।


सुना दर्द का मोल किसने न माना।

गई बात मुख से लुटा ज्यों खजाना।

कहीं ठेस खाकर गिरे पर न रोये।।


व्यथा की हवेली अड़ी सी खड़ी हैं।

खुशी की तिजोरी दुखों से जड़ी हैं।

समय पाहुना भी कई राह खोये।।


मचलती रही मीन जल उड़ चला था।

रहित जल नदी एक पोखर भला था।

गले रुंधते से दृगों ने छुपोये।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Friday, 2 April 2021

इल्ज़ाम ढ़ूढते हैं


 इल्ज़ाम ढूंढ़ते हो !


ये क्या कि पत्थरों के शहर में 

शीशे का आशियाना ढूंढ़ते हो!


आदमियत  का पता  तक  नही

गज़ब करते हो इन्सान ढूंढ़ते हो !


यहाँ पता नही किसी नियत का

ये क्या कि आप ईमान ढूंढ़ते हो !


आईनों में भी दगा भर गया यहाँ 

अब क्यों सही पहचान ढूंढ़ते हो !


घरौदें  रेत के बिखरने ही तो थे

तूफ़ानों पर क्यूँ इल्ज़ाम ढूंढ़ते हो !


जहाँ  बालपन भी  बुड्ढा  हो गया 

वहाँ मासुमियत की पनाह ढूंढ़ते हो !


भगवान अब महलों में सज़ के रह गये 

क्यों गलियों में उन्हें सरे आम ढूंढ़ते हो। 


              कुसुम कोठारी "प्रज्ञा "