औचक विनाश
लुब्ध मधुकर आ गये हैं
ताल पंकज से भरे।
बोझ झुकती डालियों से
पुष्परस बहकर झरे।
मधु रसा वो कोकिला भी
गीत मधुरिम गा रही।
वात ने झुक कान कलि के
जो सुनी बातें कही।
स्वर्ण सा सूरज जगा है
धार आभूषण खरे।।
उर्मि की आलोड़ना से
तान तटनी पर छिड़ी।
कोड भरकर दौड़ती फिर
पत्थरों से जा भिड़ी।
भेक ठुमका ताल देकर
कीट इक मुख में धरे।।
भूमि चलिता रूप लेके
ड़ोलती धसती धरा
नाश होने को सभी कुछ
आज अचला भी चरा
बाँसुरी के राग उलझे
मूक सुर कम्पित डरे।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"
बहुत बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
Deleteउत्साहवर्धन हुआ सार्थक प्रतिक्रिया से।
इतना प्राकृतिक सौंदर्य को दमित कर प्राकृतिक आपदा से डरा दिया ।
ReplyDeleteखूबसूरती से इस विनाश को भी लिखा जो विनाश लग नहीं रह ।
वाक्य का अर्थ ही बदल गया । दमित / वर्णित
Deleteढेर सा स्नेह आभार संगीता जी, आपने गीत के भावों को गहनता से देखा है सच कहूं तो मैं इस रचना में यही कहना चाह रही थी कि कैसे सुंदर सुखमय पल क्षण में विनाश में बदलते हैं ,ये होता है आँखों के सामने ।
Deleteऔर विनाश को मैंने अंतिम पहरे में दिखाया है प्रतीक है बाँसुरी __
बाँसुरी के राग उलझे
मूक सुर कम्पित डरे।।
आप की पठन क्षमता की कायल हूं मैं पढ़कर उसकी तहतक जाना ये एक उत्तम पाठक का ही नहीं एक अच्छे रचनाकार का भी लक्षण है।
सस्नेह आभार।
होता है ऐसा कई बार ओटो करेक्शन में,और भाव भी बदल जाते हैं । सबके साथ हो रहा है खैर!
Deleteसस्नेह
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 11 अप्रैल 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका दिव्याजी।
Deleteमैं मुखरित मौन पर उपस्थित रहूंगी।
सस्नेह।
सार्थक लेखन, सुन्दर गीत।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteगीत सार्थक हुआ आपकी टिप्पणी से।
सादर।
बहुत ही सुंदर रचना का सृजन हुआ है आपकी कलम से। ।।।।
ReplyDeleteजी आभार आपका पुरुषोत्तम जी, लेखनी को उत्साहित करती प्रतिक्रिया।
Deleteसादर।
नमस्ते,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 12-04 -2021 ) को 'भरी महफ़िलों में भी तन्हाइयों का है साया' (चर्चा अंक 4034) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।
चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।
यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
#रवीन्द्र_सिंह_यादव
बहुत बहुत आभार आपका, चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
Deleteमैं उपस्थित रहूंगी।
सादर।
कोरोना की विभीषिका के बीच यह मधुमय अभिव्यक्ति आनंद से अभिषिक्त कर गई.
ReplyDeleteअभिनन्दन और आभार.
ढेर सा आभार! तपती धरा पर कुछ छींटे स्नेह जल के सुखद लगे ये जान रचना गर्वानवित हुई।
Deleteसस्नेह।
बाँसुरी के राग उलझे
ReplyDeleteमूक सुर कम्पित डरे।
क्या बात है प्रिय कुसुम बहन | आपके इस सरस , मधुर लेखन से मन मुदित हुआ | सुकोमल शब्दवली में भावों की तो कोई कमी ही नहीं | |हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई |
आपके मन की प्रसन्नता वाक्यों में झलक रही है रेणु बहन।
Deleteआपका स्नेह सदा मेरे लिए अमूल्य है ।
आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
सस्नेह बहना।
बहुत बढ़िया।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteबहुत बढ़िया।
ReplyDeleteसादर आभार आपका।
Deleteभूमि चलिता रूप लेके
ReplyDeleteड़ोलती धसती धरा
नाश होने को सभी कुछ
आज अचला भी चरा
बाँसुरी के राग उलझे
मूक सुर कम्पित डरे।।
...एक साथ कई विभिषिकाओं को इंगित करती आपकी स्वर्णिम पंक्तियां,बहुत कुछ कह गईं,समझने के लिए बार बार पढ़ना पड़ा,बहुत अच्छा , माधुर्य भरा लेखन,मन प्रफुल्लित और द्रवित दोनो हुआ । सार्थक रचना ।बहुत बहुत शुभकामनाएं कुसुम जी ।
आपने मेरी रचना को अपना अमूल्य समय दिया जिज्ञासा जी मन प्रसन्न हुआ।
Deleteआपकी विस्तृत प्रतिक्रिया से रचना को नये आयम मिले
सस्नेह आभार आपका।
बहुत सुंदर और सार्थक सृजन सखी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी ।
Deleteउत्साहवर्धन हुआ आपकी प्रतिक्रिया से।
सस्नेह।
जितनी गहनता इस कविता के एक-एक पद को रचा गया है, उतनी ही सूक्ष्मता से इसका पारायण एवं मनन भी किया जाना चाहिए। जो आपने कहा है कुसुम जी, वही सत्य है इस काल का। इस सत्य को आत्मसात कर उचित कर्म किए जाएं तथा प्रकृति एवं सृष्टि के संरक्षण हेतु सन्नद्ध हुआ जाए, यही समय की मांग है। कविता असाधारण है, इसीलिए ध्यानाकर्षण भी असाधारण ही चाहती है।
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