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Saturday, 10 April 2021

औचक विनाश


 औचक विनाश


लुब्ध मधुकर आ गये हैं

ताल पंकज से भरे।

बोझ झुकती डालियों से

पुष्परस बहकर झरे।


मधु रसा वो कोकिला भी

गीत मधुरिम गा रही।

वात ने झुक कान कलि के

जो सुनी बातें कही।

स्वर्ण सा सूरज जगा है

धार आभूषण खरे।।


उर्मि की आलोड़ना से

तान तटनी पर छिड़ी।

कोड भरकर दौड़ती फिर

पत्थरों से जा भिड़ी।

भेक ठुमका ताल देकर

कीट इक मुख में धरे।।


भूमि चलिता रूप लेके

ड़ोलती धसती धरा

नाश होने को सभी कुछ

आज अचला भी चरा

बाँसुरी के राग उलझे

मूक सुर कम्पित डरे।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

27 comments:

  1. बहुत बहुत सुंदर रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
      उत्साहवर्धन हुआ सार्थक प्रतिक्रिया से।

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  2. इतना प्राकृतिक सौंदर्य को दमित कर प्राकृतिक आपदा से डरा दिया ।
    खूबसूरती से इस विनाश को भी लिखा जो विनाश लग नहीं रह ।

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    1. वाक्य का अर्थ ही बदल गया । दमित / वर्णित

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    2. ढेर सा स्नेह आभार संगीता जी, आपने गीत के भावों को गहनता से देखा है सच कहूं तो मैं इस रचना में यही कहना चाह रही थी कि कैसे सुंदर सुखमय पल क्षण में विनाश में बदलते हैं ,ये होता है आँखों के सामने ।
      और विनाश को मैंने अंतिम पहरे में दिखाया है प्रतीक है बाँसुरी __
      बाँसुरी के राग उलझे

      मूक सुर कम्पित डरे।।
      आप की पठन क्षमता की कायल हूं मैं पढ़कर उसकी तहतक जाना ये एक उत्तम पाठक का ही नहीं एक अच्छे रचनाकार का भी लक्षण है।
      सस्नेह आभार।

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    3. होता है ऐसा कई बार ओटो करेक्शन में,और भाव भी बदल जाते हैं । सबके साथ हो रहा है खैर!
      सस्नेह

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  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 11 अप्रैल 2021 शाम 5.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत आभार आपका दिव्याजी।
      मैं मुखरित मौन पर उपस्थित रहूंगी।
      सस्नेह।

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  4. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
      गीत सार्थक हुआ आपकी टिप्पणी से।
      सादर।

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  5. बहुत ही सुंदर रचना का सृजन हुआ है आपकी कलम से। ।।।।

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    1. जी आभार आपका पुरुषोत्तम जी, लेखनी को उत्साहित करती प्रतिक्रिया।
      सादर।

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  6. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 12-04 -2021 ) को 'भरी महफ़िलों में भी तन्हाइयों का है साया' (चर्चा अंक 4034) पर भी होगी।आप भी सादर आमंत्रित है।

    चर्चामंच पर आपकी रचना का लिंक विस्तारिक पाठक वर्ग तक पहुँचाने के उद्देश्य से सम्मिलित किया गया है ताकि साहित्य रसिक पाठकों को अनेक विकल्प मिल सकें तथा साहित्य-सृजन के विभिन्न आयामों से वे सूचित हो सकें।

    यदि हमारे द्वारा किए गए इस प्रयास से आपको कोई आपत्ति है तो कृपया संबंधित प्रस्तुति के अंक में अपनी टिप्पणी के ज़रिये या हमारे ब्लॉग पर प्रदर्शित संपर्क फ़ॉर्म के माध्यम से हमें सूचित कीजिएगा ताकि आपकी रचना का लिंक प्रस्तुति से विलोपित किया जा सके।

    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।

    #रवीन्द्र_सिंह_यादव

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    1. बहुत बहुत आभार आपका, चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए हृदय तल से आभार।
      मैं उपस्थित रहूंगी।
      सादर।

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  7. कोरोना की विभीषिका के बीच यह मधुमय अभिव्यक्ति आनंद से अभिषिक्त कर गई.
    अभिनन्दन और आभार.

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    1. ढेर सा आभार! तपती धरा पर कुछ छींटे स्नेह जल के सुखद लगे ये जान रचना गर्वानवित हुई।
      सस्नेह।

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  8. बाँसुरी के राग उलझे
    मूक सुर कम्पित डरे।
    क्या बात है प्रिय कुसुम बहन | आपके इस सरस , मधुर लेखन से मन मुदित हुआ | सुकोमल शब्दवली में भावों की तो कोई कमी ही नहीं | |हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई |

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    1. आपके मन की प्रसन्नता वाक्यों में झलक रही है रेणु बहन।
      आपका स्नेह सदा मेरे लिए अमूल्य है ।
      आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह बहना।

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  9. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका।

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  10. भूमि चलिता रूप लेके

    ड़ोलती धसती धरा

    नाश होने को सभी कुछ

    आज अचला भी चरा

    बाँसुरी के राग उलझे

    मूक सुर कम्पित डरे।।

    ...एक साथ कई विभिषिकाओं को इंगित करती आपकी स्वर्णिम पंक्तियां,बहुत कुछ कह गईं,समझने के लिए बार बार पढ़ना पड़ा,बहुत अच्छा , माधुर्य भरा लेखन,मन प्रफुल्लित और द्रवित दोनो हुआ । सार्थक रचना ।बहुत बहुत शुभकामनाएं कुसुम जी ।

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    1. आपने मेरी रचना को अपना अमूल्य समय दिया जिज्ञासा जी मन प्रसन्न हुआ।
      आपकी विस्तृत प्रतिक्रिया से रचना को नये आयम मिले
      सस्नेह आभार आपका।

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  11. बहुत सुंदर और सार्थक सृजन सखी।

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    1. बहुत बहुत आभार सखी ।
      उत्साहवर्धन हुआ आपकी प्रतिक्रिया से।
      सस्नेह।

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  12. जितनी गहनता इस कविता के एक-एक पद को रचा गया है, उतनी ही सूक्ष्मता से इसका पारायण एवं मनन भी किया जाना चाहिए। जो आपने कहा है कुसुम जी, वही सत्य है इस काल का। इस सत्य को आत्मसात कर उचित कर्म किए जाएं तथा प्रकृति एवं सृष्टि के संरक्षण हेतु सन्नद्ध हुआ जाए, यही समय की मांग है। कविता असाधारण है, इसीलिए ध्यानाकर्षण भी असाधारण ही चाहती है।

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