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Thursday, 27 February 2020

बादलों ने ली अंगड़ाई

बादलों ने ली अंगड़ाई
खिलखिलाई दामिनी भी।
स्वागत में फिर बजे नगाड़े
कसमसाई यामिनी भी।

सागर हृदय प्रभंजन भारी
लहरें तीव्र गति दौड़ती
चंद्र मिलन को आतुर सी वो
तटों के बंधन तोड़ती
रेत कूल पर सोई-सोई
झिलमिलाई चाँदनी भी।।
बादलों ने ली अंगड़ाई
खिलखिलाई दामिनी भी।

प्राची मुख पर लाली छाई
उषा घूंघट पट खोलती।
मीठी मधुर पावन ऋचाएं
जैसे दिशाएं बोलती।
पाखी चिरिप-चिरिप स्वर बोले
थरथराई कामिनी भी ।।
बादलों ने ली अंगड़ाई
खिलखिलाई दामिनी भी।

बागों में बोली कोयलिया
मीश्री सरस रस घोलती
सुन मिलिंद गुंजार रसीली
किसलय लचीली डोलती
चंद्रमल्लिका खिली-खिली सी
मुस्कुराई कुमुदिनी भी।।
बादलों ने ली अंगड़ाई
खिलखिलाई दामिनी भी।

कुसुम कोठारी।

Tuesday, 25 February 2020

ओ कविता

नव गीत
ओ कविता

टूटे पंखों से लिखदूँ मैं,
बना लेखनी वो कविता ।
जाने कैसे हुई तिरोहित,
मेरे मन की ओ कविता ।

भाव हृदय के मूक हुए हैं,
सहचरी मेरी क्यों रुठी।
आज गगरिया छलका दो तुम,
गीतों की लय भी टूटी।
काव्य सरस सा रचना चाहूं,
प्राची की तू बन सविता।
टूटे पंखों से लिखदूँ मैं,
बना लेखनी वो कविता ।

नंदन वन की भीनी सौरभ,
मंजुषा में बंद ज्यों है।
काव्य क्षितिज भी सूना सूना,
वर्णछटा फीकी क्यों है।
झरने नीरव,रुकी घटाएं,
धीमी धीमी है सरिता।
टूटे पंखों से लिखदूँ मैं,
बना लेखनी वो कविता ।

अंतर लेख उतर कर नीचे,
आज शल्यकी में ढ़ल जा।
ओ मेरे अंतस की गंगा,
पावस ऋतु बन कर फल जा।
मंदिर का दीपक बन जलना,
करे प्रार्थना ये विनिता।
टूटे पंखों से लिखदूँ मैं,
बना लेखनी वो कविता ।।

भाव सीपिज बांधकर अवली,
सुधा चुरा लूं चंदा से।
चंचल किरणे रचूँ पत्र पर,
करतब सीखूं वृंदा से।
चटकी कलियाँ फूल खिला दूँ,
पनधट बोध लिखूं कविता।
टूटे पंखों से लिखदूँ मैं,
बना लेखनी वो कविता ।।

       कुसुम कोठारी।

Thursday, 20 February 2020

राधा जी की विरह वेदना।

राधा जी की विरह वेदना।

आज राधा की सूनी आँखें
यूँ कहती साँवरिया
जाय बसो तुम वृंदावन
कित सूरत मैं काटूँ उमरिया।

कहे कनाही एक हम हैं
कहाँ दो, जित तुम उत मैं
जित तुम राधे, उत हूं मैं
जल्दी आन मिलूंगा मैं ।

समझे न हिय की पीर
झडी मेह और बिजुरिया
कैसो जतन करूं साँवरिया
बिन तेरे बचैन है जियरा ।

बूंदों ने  झांझर झनकाई
मन की विरहा बोल गई
बांध रखा था जिस दिल को
बरखा बैरन खोल  गई ।

अकुलाहट के पौध उग आये
दाने जो विरहा के बोये
गुंचा-गुंचा "विरह"जगाये
हिय में आतुरता भर आये।

विरह वेदना सही न जावे
कैसे हरी राधा समझावे
स्वयं भी तो समझ न पावे
उर " वेदना "से है अघावे।

राधा हरी की अनुराग कथा
विश्व युगों-युगों तक गावे गाथा

        कुसुम कोठारी।

रची थी हाथों में मेंहदी

रची हाथों में मेंहदी

 रची थी हाथों में मेहंदी
रंग बहुत ही भीना-भीना
माथे ओढ़ी प्रीत चुनरिया
घूंघट भी था झीना झीना।

धीरे-धीरे से पाँव उठाती
चाल चली वो मध्धम-मध्धम
नैनों में काजल था श्यामल
सपने सजे थे उज्जव उज्जल
किससे कहे मन की वो बातें
लाज का पहरा झीना-झीना।

रची  थी हाथों में मेहंदी
रंग बहुत ही भीना-भीना।

भाल पर थी सिंन्दुरी बिंदी
बल खाके नथली भी ड़ोली
कगंन खनका खनन-खनन
धीरे-धीरे से  पायल  बोली ।
पैर महावर उठते थम-थम
प्रीत का रंग भी झीना झीना।

रची  थी हाथों में मेहंदी
रंग बहुत ही भीना-भीना।

पियाजी संग जब फेरे डाले
पलकें झुकी लाज में थोड़ी
गालों पर गुलाब की रंगत
चितवन भी हल्की सी मोड़ी।
विदा होके डोली में बैठी
झरा आँख से मोती झीना-झीना।

रची  थी हाथों में मेहंदी
रंग बहुत ही भीना-भीना।

         कुसुम कोठारी।

Tuesday, 18 February 2020

सांझ सुनहली तुम बन जाओ

नवगीत मात्रा१६-१६

"साँझ सुनहली तुम बन जाओ
 मैं नभ का टुकड़ा बन जाऊँ"
सुरमई  चुनरी जब फहरे
मैं तारा बन  के टँग जाऊँ।

हरित धरा तुम सरसी सरसी
मैं अविरल सा अनुराग बनूं।
कल-कल बहती धारा है तू
मैं निर्झर उद्गम शैल बनूं ।
कभी घटा में कभी जटा में
मनहर तेरी ही छवि पाऊँ।।

साँझ सुनहली तुम बन जाओ
 मैं नभ का टुकड़ा बन जाऊँ।

महका-महका चंदन पीला
सिलबट्टे पर घिसता जाता।
तेरे भाल सजा जो घिसकर
हृदय तक आनंद पा जाता।
दीपक की ज्योति तू उज्जवल
मैं जलती बाती बन जाऊँ।।

साँझ सुनहली तुम बन जाओ
 मैं नभ का टुकड़ा बन जाऊँ।।

कुसुम कोठारी

Monday, 17 February 2020

कुसुम की कुण्डलियाँ-१०

कुसुम की कुण्डलियाँ - १०

३७ विषय-विनती

विनती है माँ पाद में , झांकी देख निहाल ।
तेरी छवि को देखके ,झुकता मेरा भाल ।
झुकता है मुझ भाल , बुद्धि से भर दे झोली ।
गाऊं मैं गुणगान ,बोल के मीठी बोली ।
कहे कुसुम कर जोड़ , बैन अंतर से सुनती ।
वीणा शोभित हाथ , शुभ्र वसना सुन विनती ।।

३८ विषय-भावुक

कैसी बेड़ी में फँसा ,भावुक मन अनजान ।
अविनाशी ये जीव है , मानो अरे सुजान ।
मानो अरे सुजान , परख लो करनी अपनी ।
छोड़  सकल ही राग , ब्रह्म की माला जपनी ।
सदा भावना शुद्ध , रहे पावन  बस ऐसी ।
मुक्त रहें हर प्राण , पाँव में बेड़ी कैसी ।।

३९ विषय-धरती

धरणी धरती क्षिति धरा ,तेरे कितने नाम ।
वसुन्धरा हे मेदिनी ,  सब मानव के धाम ।
सब मानव के धाम ,मही तू कितनी प्यारी ।
वसुधा,अचला,मान  , कामिनी  सी तू न्यारी ।
कहे कुसुम ये बात  , जले दोनों ज्यों अरणी ।
नारी तू भी भूमि  ,  क्षमा में जैसे धरणी ।।

४० विषय-मानव

मानव सुन तन दीप में ,डाल सुमति का तेल ।
ज्ञान रूप बाती जला , जग में फैले मेल ।
जग में फैले मेल , करो बस सुंदर करनी ।
सत्य एक बस जान  , कर्म जैसी ही भरनी ।
कहे कुसुम सुन बात ,  हृदय से मारो दानव ।
रखो प्रेम सद्भाव , बनो सज्जन तुम मानव ।।

कुसुम कोठारी।

Sunday, 16 February 2020

दो त्राण भी

आज दुष्कर है जीवन, औ प्राण भी।
क्षुब्ध मानव है विकल ,दो त्राण भी।।

चँहु ओर हाहाकार, कठिन जीवन
दग्ध है ज्वालामुखी ,जले ज्यों वन ।
धधकती इस आग का, निस्त्राण भी,
आज दुष्कर है जीवन, औ प्राण भी ।।
 
चित्कारती वेदना, भ्रमित अविचल,
सृजन में संहार है, हर एक पल ।
खण्डित आशा रोती, संत्राण भी ,
आज दुष्कर है जीवन ,औ प्राण भी।।

तिमिराछन्न परिवेश, तृषित अतृप्त ,
कस्तुरी खोजता मृग, है संतप्त ।
पुकारता टूटा मन ,नरत्राण भी ,
आज दुष्कर है जीवन ,औ प्राण भी।।

               कुसुम कोठारी।

Friday, 14 February 2020

पराग और तितली

पराग और तितली

चहुँ ओर नव किसलय शोभित
बयार बसंती मन भाये
देख धरा का गात चम्पई
उर में राग औ मोह जगाये

ओ मतवारी चित्रपतंगः
तुम कितनी मन भावन हो
कैसा सुंदर रूप तुम्हारा
कैसा मोह जगाती हो ।

वन माली  करते हैं
फूलों की रखवाली
पर तुम कितनी चंचल हो
उनके वार भी जाए खाली।

आंखों से काजल के जैसे
ले लेती सौरभ सुमनों से
चहुँ ओर विलसे पराग दल
पुछे रमती ललिता से ।

थोड़ा-थोडा लेती हो
नही मानव सम लोभी तुम
संतोष धन से पूरित हो
पात-पात उड़ती हो तुम।

फूलों सी सुंदर तुम तित्तरी
फूल तुम्हें भरमाते
पर तेरा ये  सुंदर गात
इंद्रनील भरने रंग आते ।

प्रकृति बदले रूप अनेक
ये कुदरत की है सौगात
मधुर पराग रसपान करती
उडती रहती पात-पात।

  कुसुम कोठारी।

Thursday, 13 February 2020

रश्मियों की क़लम

रश्मियों की कलम से

रश्मियों की क़लम
 नव प्रभात रच दूं,
 मन झरोखा खोल कर
 तमस से मुक्ति दूं।

रात के निरव को स्वर
मधुर मुखर कर दूं ,
चाँदनी की कलम से
अंधकार हर दूं।

 पावन ऋचाएं रचूं
 श्वासों में भर दूं,
 वीणा मधुरम बजे
 वही संगीत दूं।

करे सरस काव्य सृजन
कवि बन जा मन  तूं,
कोमल भाव उकेरे
  नव कविता रच तूं।।

          कुसुम कोठारी।

Wednesday, 12 February 2020

कुण्ड़लिया कृष्ण के २६ नाम

भगवान श्रीकृष्ण के२६ नाम से बनी
कुंडलिया।

नागर नटखट निर्गुणी , गोविंदा गोपेश ।
अजया अचला अक्षरा, दामोदर देवेश ।
दामोदर देवेश  , दानवेन्द्रो दुखभंजन ।
जगन्नाथ जगदीश,  सर्वपालक सुखरंजन ।
योगिश्वर यदुराज ,अनादिह अच्युत आगर ।
सत्यवचन सद्रूप  ,निरंजन नटवर नागर।।
                            कुसुम कोठारी ।

Monday, 10 February 2020

विश्वास

.      नव गीत १४ १४

             विश्वास

 .   नैया डोली धारा में
      दिखता नहीं किनारा था।
   टूटी थी मन की आशा
       तेज धार मझधारा था।

   होंठ प्यास से सूखे थे 
       सागर पानी खारा था
   आँखो में भय की छाया
       पास न कोई चारा था ।
   टूटी थी.......

   कर को जोड़ दुआ मांगी
      प्रभु ही एक दुलारा था।
   हाथ थामने आयेगा
      दृढ़ विश्वास हमारा था ।
   टूटी थी.....

    देखा फिर भारी अचरज
        पास खड़ा इक नाविक था
   ज्ञानी जन सच कहते हैं
        तुम बिन कौन सहारा था ।
    टूटी  थी.....

              कुसुम कोठारी।

Saturday, 8 February 2020

कुसुम की कुण्डलियाँ-९

कुसुम की कुण्डलियाँ-९

३३ विषय-विजयी
दानव विजयी मात हे , विजया तुझे प्रणाम ।
भीति भगवती भंजना ,सुखद सकल परिणाम।
सुखद सकल परिणाम ,क्लेश  काया के हरती।
जग में शुचि विस्तार , हर्ष के वर्तुल भरती ।
कहे कुसुम कर जोड़ , कठिन भव पाया  मानव ।
तू कर परोपकार , भगा दे मन का दानव ।।

३४ विषय-भारत
भारत देश महान है , हम सब का सम्मान ।
सब राष्ट्रों में श्रेष्ठ ये, हिन्द मान बहुमान ।
हिन्द मान बहुमान , शीश पर ताज हिमाला ।
सागर पाँव पखार ,बाँह  नदियों की माला ।
कहे कुसुम ये बात , ऋचाएं और सगारत ।
कर्म करें सब शुद्ध , सदा शुचिता मम भारत ।।

३५ विषय- छाया
छाया गहरी शांत है , सूरज जैसा रंग ।
प्यारे लगते पथिक को  ,उष्ण राह में संग ।
उष्ण राह में संग ,  खिले रहते मन भावन ।
कृष्ण चूड़ तुम नाम , तुम्ही संत और सावन ।
कहे कुसुम ये बात, रूप है अनुपम पाया ,
आ राही तू बैठ, सरस गुलमोहर  छाया ।।

३६ विषय-निर्मल
बिखरे नभ सारंग है , निर्मल श्वेत वलक्ष ।
नीलांबर से झांकते , भागे भोर अलक्ष ।
भागे भोर अलक्ष ,  व्योम आंगन में खेले ।
मेघों के ये माल ,थाप समीर की झेले ।
कहे कुसुम ये बात  ,विभा में आभा  निखरे ‌।
शुक्ल हय के सवार , पवन प्रहार से बिखरे ।।

कुसुम कोठारी।

Thursday, 6 February 2020

पँखुरी ---एक गुलाब की वेदना

" पँखुरी "
एक गुलाब की वेदना ।

काँटो में भी महफूज़ थे हम।
हाँ तब कितने ख़ुश थे हम।

खिल-खिलाते थे ,सुरभित थे ,
हवाओं से खेलते झूलते थे ,
हम मतवाले कितने ख़ुश थे ।

काँटो में भी महफूज़ थे हम।

फिर तोड़ा किसीने प्यार से ,
सहलाया हाथो से ,नर्म गालों से ,
दे डाला हमें प्यार की सौगातों में ।

काँटो में भी महफूज़ थे हम।

घड़ी भर की चाहत में सँवारा ,
कुछ अँगुलियों ने हमे दुलारा ,
और फिर पँखुरी-पँखुरी बन बिखरे ।

काँटो में भी महफूज़ थे हम ।
हां तब कितने  ख़ुश थे हम।।

            कुसुम कोठारी ।

समय की पदचाप

समय कीपदचाप।

समय की पदचाप
सुनी है किसी ने ?नहीं!
दिखती है बस पदछाप।
अपने विभिन्न रंगों में
जिसका न कोई माप।
कहीं नव निर्माण
कहीं संताप ।
सवंरती नई जिंदगियाँ कहीं
कहीं जैसे जीवन ही श्राप ।
बिखरे हैं कहीं बहारों के मेले
कहीं भयावह अगन और ताप।
कहीं क्रंदन,रुदन
कहीं सरगम के आलाप।
कहीं फहरती धर्म ध्वजा
और कहीं पाप ही पाप ।
कहीं रंगरेलियाँ
कहीं तप और जाप।।
फ़लसफ़ा जीवन का कैसा
गूँजती हर शै समय की मौन पदचाप।।

कुसुम कोठारी।

Tuesday, 4 February 2020

अद्वय आदित्य आचमन

लो चंदन महका और खुशबू उठी हवाओं में
कैसी सुषमा  निखरी  वन उपवन उद्धानों में

निकला उधर अंशुमाली  गति  देने जीवन में
निशांत का,संगीत ऊषा गुनगुना रही अंबर में

मन की वीणा पर झंकार देती परमानंद में
महा अनुगूंज बन बिखर गई सारे नीलांबर में

वो देखो हेमांगी  पताका  लहराई क्षितिज में
पाखियों का कलरव फैला चहूं और भुवन में

कुमुदिनी लरजने लगी सूर्यसुता के पानी में
विटप झुम  उठे  हवाओं के मधुर संगीत में

वागेश्वरी  स्वयं  नवल वीणा ले उतरी धरा में
कर लो गुनगान अद्वय आदित्य के आचमन में

लो फिर आई है सज दिवा नवेली के वेश में
करे  सत्कार जगायें  नव निर्माण विचारों में।

                 कुसुम कोठारी ।

Monday, 3 February 2020

क्षितिज के पार __नवगीत

नवगीत
मात्रा:-14  10

सौरभ भीनी लहराई
दिन बसंती चार ।
आ चलूं मैं साथ तेरे
क्षितिज के उस पार ।

नीले-नीले अम्बर पर
उजला रूप इंदु ।
सुनंदा के भाल पर ज्यों
सजे सुहाग बिंदु।
मन मचलती है हिलोरें
छाई है बहार।
आ चलूं मैं साथ तेरे
क्षितिज के उस पार ।।

मंदाकिनी है केसरी
गगन रंग गुलाब ।
चँहु दिशाओं में भरी है
मोहिनी सी आब ।
सजीली दुल्हन चली ज्यों
कर रूप शृंगार ।
आ चलूं मैं साथ तेरे
क्षितिज के उस पार।।

चमकते झिलमिल सितारे
क्षीर नीर सागर ।
क्षितिज के उस पार शायद
सपनों का आगर ।
चाँद तारों से सजा हो
द्वार बंदनवार ।
आ चलूं मैं साथ तेरे
क्षितिज के उस पार।।
 
         कुसुम कोठारी।

Saturday, 1 February 2020

अभी न होगा मेरा अंत

अभी न होगा मेरा अंत

अभी-अभी तो आया हूं मैं
जाने की क्यों बात अभी
अभी-अभी अंकुर फ़ूटे हैं
शैशव की है बात अभी।

हेम अंत पर आता हूं मैं
भू रसवंती का उत्थान
पत्ता-पत्ता  बूटा-बूटा
हूं निसर्ग का प्रतिदान
अभी-अभी सुधा भरनी है
वर्तुल ना हो रिक्त अभी।

डाल-डाल हरियाली होगी
चप्पा चप्पा महकेगा
धरती लेगी जब अंगड़ाई
हर पौधे पर फूल खिलेगा
अभी-अभी यौवन आया है
नहीं जरा से बात अभी।

करने कितने काम जहाँ में
सोते भाग्य जगाने है
अपनी कर्मठता के बल पर
नभ से तारे लाने हैं
अभी-अभी तो जोश भरा है
सोने की ना बात अभी ।

लटे संवारू आसमान की
स्वर्ग भूमि  पर पाना है
सूर्य उजास भर कर मुठ्ठी में
हर -घर उजियारा लाना है
अभी-अभी उमंगे जागी
रोने की ना बात अभी।

अभी आँखें खोली है
नहीं अंत की बात अभी।।

कुसुम कोठारी।