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Monday, 30 April 2018
अस्तित्व
अस्तित्व और अस्मिता बचाने की लडाई
खूब लडो जुझारू हो कर लड़ो
पर रुको सोचो ये सिर्फ अस्तित्व की लड़ाई है या चूकते जा रहे संस्कारों की प्रतिछाया...
जब दीमक लगी हो नीव मे
फिर हवेली कैसे बच पायेगी
नीव को खाते खाते
दिवारें हिल जायेगी
एक छोटी आंधी भी
वो इमारत गिरायगी
रंग रौगन खूब करलो
कहां वो बच पायेगी।
नीड़ तिनकों के तो सुना
ढहाती है आंधियां
घरौंदे माटी के भी
तोडती है बारिशें
संस्कारों की जब
टूटती है डोरिया
उन कच्चे धागों पर कैसे
शामियाने टिक पायेंगे।
समय ही क्या बदला है
या हम भी हैं बदले बदले
नारी महान है माना
पर रावण, कंस भी पोषती है
सीता और द्रोपदी
क्या इस युग की बात है
काल चक्र मे सदा ही
विसंगतियां पनपती है।
पर अब तो दारुण दावानल है
जल रहा समाज जलता सदाचरण है
क्या होगा अंत गर ये शुरूआत है
केशव तो नही आयेंगे ये निश्चित है
कुछ ढूंढना होगा इसी परिदृश्य मे
अस्मिता का युद्ध स्वयं लड़ना होगा
संयम और संस्कारों को गढ़ना होगा।
कुसुम कोठारी।
खूब लडो जुझारू हो कर लड़ो
पर रुको सोचो ये सिर्फ अस्तित्व की लड़ाई है या चूकते जा रहे संस्कारों की प्रतिछाया...
जब दीमक लगी हो नीव मे
फिर हवेली कैसे बच पायेगी
नीव को खाते खाते
दिवारें हिल जायेगी
एक छोटी आंधी भी
वो इमारत गिरायगी
रंग रौगन खूब करलो
कहां वो बच पायेगी।
नीड़ तिनकों के तो सुना
ढहाती है आंधियां
घरौंदे माटी के भी
तोडती है बारिशें
संस्कारों की जब
टूटती है डोरिया
उन कच्चे धागों पर कैसे
शामियाने टिक पायेंगे।
समय ही क्या बदला है
या हम भी हैं बदले बदले
नारी महान है माना
पर रावण, कंस भी पोषती है
सीता और द्रोपदी
क्या इस युग की बात है
काल चक्र मे सदा ही
विसंगतियां पनपती है।
पर अब तो दारुण दावानल है
जल रहा समाज जलता सदाचरण है
क्या होगा अंत गर ये शुरूआत है
केशव तो नही आयेंगे ये निश्चित है
कुछ ढूंढना होगा इसी परिदृश्य मे
अस्मिता का युद्ध स्वयं लड़ना होगा
संयम और संस्कारों को गढ़ना होगा।
कुसुम कोठारी।
Tuesday, 24 April 2018
कोई कब तक सुनेगा
रो रो के सुनाते रहोगे दास्ताने गम
भला कोई कब तक सुनेगा
देते रहोगे दुहाई उजडी जिंदगी की
भला कोई कब तक सुनेगा
आशियाना तुम्हारा ही तो बिखरा ना होगा
भला कोई कब तक सुनेगा
गम से कोई जुदा कंहा जमाने मे
भला कोई कब तक सुनेगा
अदम है आदमी बिन अत़्फ के
भला कोई कब तक सुनेगा
अफ़सुर्दा रहते हो अजा़ब लिये
भला कोई कब तक सुनेगा
आब ए आइना ही धुंधला इल्लत किसे
भला कोई कब तक सुनेगा
गम़ख्वार कौन गैहान मे आकिल है चुप्पी
भला कोई कब तक सुनेगा
कुसुम कोठारी।।
अदम =अस्तित्व हीन, अत़्फ =दया
अफ़सुर्दा =उदास ,इल्लत =दोष
गैहान=जमाना, आकिल =बुद्धिमानी
भला कोई कब तक सुनेगा
देते रहोगे दुहाई उजडी जिंदगी की
भला कोई कब तक सुनेगा
आशियाना तुम्हारा ही तो बिखरा ना होगा
भला कोई कब तक सुनेगा
गम से कोई जुदा कंहा जमाने मे
भला कोई कब तक सुनेगा
अदम है आदमी बिन अत़्फ के
भला कोई कब तक सुनेगा
अफ़सुर्दा रहते हो अजा़ब लिये
भला कोई कब तक सुनेगा
आब ए आइना ही धुंधला इल्लत किसे
भला कोई कब तक सुनेगा
गम़ख्वार कौन गैहान मे आकिल है चुप्पी
भला कोई कब तक सुनेगा
कुसुम कोठारी।।
अदम =अस्तित्व हीन, अत़्फ =दया
अफ़सुर्दा =उदास ,इल्लत =दोष
गैहान=जमाना, आकिल =बुद्धिमानी
Sunday, 22 April 2018
कदम रुकने न पाए
कदम जब रुकने लगे तो
मन की बस आवाज सुन
गर तुझे बनाया विधाता ने
श्रेष्ठ कृति संसार मे तो
कुछ सृजन करने
होंगें तुझ को
विश्व उत्थान मे,
बन अभियंता करने होंगें
नव निर्माण
निज दायित्व को पहचान तूं
कैद है गर भोर उजली
हरो तम, बनो सूर्य
अपना तेज पहचानो
विघटन नही,
जोडना है तेरा काम
हीरे को तलाशना हो तो
कोयले से परहेज
भला कैसे करोगे
आत्म ज्ञानी बनो
आत्म केन्द्रित नही
पर अस्तित्व को जानो
अनेकांत का विशाल
मार्ग पहचानो
जियो और जीने दो,
मै ही सत्य हूं ये हठ है
हठ योग से मानवता का
विध्वंस निश्चित है
समता और संयम
दो सुंदर हथियार है
तेरे पास बस उपयोग कर
कदम रूकने से पहले
फिर चल पड़।
कुसुम कोठारी।
मन की बस आवाज सुन
गर तुझे बनाया विधाता ने
श्रेष्ठ कृति संसार मे तो
कुछ सृजन करने
होंगें तुझ को
विश्व उत्थान मे,
बन अभियंता करने होंगें
नव निर्माण
निज दायित्व को पहचान तूं
कैद है गर भोर उजली
हरो तम, बनो सूर्य
अपना तेज पहचानो
विघटन नही,
जोडना है तेरा काम
हीरे को तलाशना हो तो
कोयले से परहेज
भला कैसे करोगे
आत्म ज्ञानी बनो
आत्म केन्द्रित नही
पर अस्तित्व को जानो
अनेकांत का विशाल
मार्ग पहचानो
जियो और जीने दो,
मै ही सत्य हूं ये हठ है
हठ योग से मानवता का
विध्वंस निश्चित है
समता और संयम
दो सुंदर हथियार है
तेरे पास बस उपयोग कर
कदम रूकने से पहले
फिर चल पड़।
कुसुम कोठारी।
Friday, 20 April 2018
दूर कदमों के निशाँ
राहें ना कारवाँ है
दूर मंजिल के निशाँ है।
ना जाने कैसे होगा जाना
पर इन कदमों को है
मंजिल पाना,
साथ हौसला है बस
न जाने कहां होगा
रात का बसेरा
क्या होगा उस अन्जान
जगह का फसाना
मन है उहापोह मे फसा
जाना तो होगा ।
बैठ के रहने वालो को
कब मिलते हैं मुकाम
कब तक बैठ किनारों पर
लहरें गिनता रहेगा ।
पार जो जाना है
कश्ती करनी होगी
तूफानों के हवाले
चल उठा कदम
कारवाँ भी बनेगा
मिलेगी मंजिल भी
राहें बनेगी खुद रहनुमा
हम सफर हम कदम।
कुसुम कोठारी।
दूर मंजिल के निशाँ है।
ना जाने कैसे होगा जाना
पर इन कदमों को है
मंजिल पाना,
साथ हौसला है बस
न जाने कहां होगा
रात का बसेरा
क्या होगा उस अन्जान
जगह का फसाना
मन है उहापोह मे फसा
जाना तो होगा ।
बैठ के रहने वालो को
कब मिलते हैं मुकाम
कब तक बैठ किनारों पर
लहरें गिनता रहेगा ।
पार जो जाना है
कश्ती करनी होगी
तूफानों के हवाले
चल उठा कदम
कारवाँ भी बनेगा
मिलेगी मंजिल भी
राहें बनेगी खुद रहनुमा
हम सफर हम कदम।
कुसुम कोठारी।
Thursday, 19 April 2018
सूरज का विश्राम
अपनी तपन से तपा
अपनी गति से थका
लेने विश्राम ,शीतलता
देखो भास्कर उतरा
सिन्धु प्रांगन मे
करने आलोल किलोल ,
सारी सुनहरी छटा
समेटे निज साथ
कर दिया सागर को
रक्क्तिम सुनहरी ,
शोभित सारा जल
नभ भूमण्डल
एक डुबकी ले
फिर नयनो से ओझल,
समाधिस्थ योगी सा
कर साधना पूरी
कल फिर नभ भाल को
कर आलोकित स्वर्ण रेख से
क्षितिज का श्रृंगार करता
अंबर चुनर रंगता
आयेगा होले होले,
और सारे जहाँ पर
कर आधिपत्य शान से
सुनहरी सात घोड़े का सवार
चलता मद्धम गति से
हे उर्जामय नमन तूझे।
कुसुम कोठारी।
अपनी गति से थका
लेने विश्राम ,शीतलता
देखो भास्कर उतरा
सिन्धु प्रांगन मे
करने आलोल किलोल ,
सारी सुनहरी छटा
समेटे निज साथ
कर दिया सागर को
रक्क्तिम सुनहरी ,
शोभित सारा जल
नभ भूमण्डल
एक डुबकी ले
फिर नयनो से ओझल,
समाधिस्थ योगी सा
कर साधना पूरी
कल फिर नभ भाल को
कर आलोकित स्वर्ण रेख से
क्षितिज का श्रृंगार करता
अंबर चुनर रंगता
आयेगा होले होले,
और सारे जहाँ पर
कर आधिपत्य शान से
सुनहरी सात घोड़े का सवार
चलता मद्धम गति से
हे उर्जामय नमन तूझे।
कुसुम कोठारी।
Monday, 16 April 2018
मेरा डर
आजकल डर के कारण
सांसे कुछ कम ले रही हूं
अगली पीढ़ी के लिये
कुछ प्राण वायु छोड़ जाऊं,
डरती हूं क्या रहेगा
उनके हिस्से
बिमार वातावरण
पानी की कमी
दूषित खाद्य पदार्थ
डरा भविष्य
चिंतित वर्तमान
जीने की जद्दोजहद
झूठ, फरेब
बेरौनक जिंदगी
स्वार्थ
अविश्वास
धोखा फरेब
अनिश्चित जीवन
वैर वैमनस्य
फिर से दिखता
आदम युग
यह भयावह
चिंतन मुझे डराता है
सोचती हूं अभीसे
पानी की
एक एक बूंद का
हिसाब रखूं
कुछ तो सहेजू
उनके लिये
कुछ अच्छे संस्कार
दया कोमल भाव
सहिष्णुता
मजबूत नींव
धैर्य आदर्श
कि वो अपने
पूर्वजों को कुछ
आदर से याद करें
चैन से जी सके
और अपनी अगली पीढ़ी को
कुछ अच्छा देने की सोचें....
कुसुम कोठारी।
सांसे कुछ कम ले रही हूं
अगली पीढ़ी के लिये
कुछ प्राण वायु छोड़ जाऊं,
डरती हूं क्या रहेगा
उनके हिस्से
बिमार वातावरण
पानी की कमी
दूषित खाद्य पदार्थ
डरा भविष्य
चिंतित वर्तमान
जीने की जद्दोजहद
झूठ, फरेब
बेरौनक जिंदगी
स्वार्थ
अविश्वास
धोखा फरेब
अनिश्चित जीवन
वैर वैमनस्य
फिर से दिखता
आदम युग
यह भयावह
चिंतन मुझे डराता है
सोचती हूं अभीसे
पानी की
एक एक बूंद का
हिसाब रखूं
कुछ तो सहेजू
उनके लिये
कुछ अच्छे संस्कार
दया कोमल भाव
सहिष्णुता
मजबूत नींव
धैर्य आदर्श
कि वो अपने
पूर्वजों को कुछ
आदर से याद करें
चैन से जी सके
और अपनी अगली पीढ़ी को
कुछ अच्छा देने की सोचें....
कुसुम कोठारी।
Saturday, 14 April 2018
मां हूं
हां मै पागल हूं
मां हूं ना!!
अपना बचपन देखा उसमे
मेरा अंश है वो
मां हूं मैं ।
मेरी प्रतिछाया
मेरी फलती आशा
चित्रकार हूं मैं।
पल पल जीया
उसे अपने अंदर
जननी हूं मैं ।
साकार हुवा सपना
उसे देख कर
पूर्ण तृप्ता हूं मैं ।
मैं गर्वित हूं
विधाता की तरह
रचना कार हूं मैं ।
खिला रहे शाश्वत वो
मेरी बगिया मे
बागबां हूं मै ।
सम्मान देता भगवान
सम, मूझ से कहता
पालन हार हूं मैं।
कुसुम कोठरी।
मां हूं ना!!
अपना बचपन देखा उसमे
मेरा अंश है वो
मां हूं मैं ।
मेरी प्रतिछाया
मेरी फलती आशा
चित्रकार हूं मैं।
पल पल जीया
उसे अपने अंदर
जननी हूं मैं ।
साकार हुवा सपना
उसे देख कर
पूर्ण तृप्ता हूं मैं ।
मैं गर्वित हूं
विधाता की तरह
रचना कार हूं मैं ।
खिला रहे शाश्वत वो
मेरी बगिया मे
बागबां हूं मै ।
सम्मान देता भगवान
सम, मूझ से कहता
पालन हार हूं मैं।
कुसुम कोठरी।
Friday, 13 April 2018
एक यवनिका गिरने को है
एक यवनिका गिरने को है।
जो सोने सा दिख रहा वो
अब माटी का ढेर होने को है
लम्बे सफर पर चल पङा
नींद गहरी सोने को है।
एक यवनिका .....।.
जो समझा था सरुप अपना
वो सरुप अब खोने को है
अब जल्दी से उस घर जाना
जहाँ देह नही सिर्फ़ रूह है
एक यवनिका ....
डाल डाल जो फूदक रहा
वो पंक्षी कितना भोला है
घात लगाये बैठा बहेलिया
किसी पल बिंध जाना है ।
एक यवनिका .....
जो था खोया रंगरलियों मे
राग मोह मे फसा हुवा
मेरा मेरा कर जो मोहपास मे बंधा हुवा
आज अपनो के हाथों भस्म अग्नि मे होने को है ।
एक यवनिका ......
कुसुम कोठारी ।
जो सोने सा दिख रहा वो
अब माटी का ढेर होने को है
लम्बे सफर पर चल पङा
नींद गहरी सोने को है।
एक यवनिका .....।.
जो समझा था सरुप अपना
वो सरुप अब खोने को है
अब जल्दी से उस घर जाना
जहाँ देह नही सिर्फ़ रूह है
एक यवनिका ....
डाल डाल जो फूदक रहा
वो पंक्षी कितना भोला है
घात लगाये बैठा बहेलिया
किसी पल बिंध जाना है ।
एक यवनिका .....
जो था खोया रंगरलियों मे
राग मोह मे फसा हुवा
मेरा मेरा कर जो मोहपास मे बंधा हुवा
आज अपनो के हाथों भस्म अग्नि मे होने को है ।
एक यवनिका ......
कुसुम कोठारी ।
Wednesday, 11 April 2018
एक छोटी सी खुशी
एक छोटी खुशी अंतर को छूले
तो कविता बनती है
आज एक झंकार सी हुई
रूकी पायल छनक उठी
एक हल्की सी आहट
दस्तक दे रही दिल के दरवाजे पर
कैसी रागिनी बज उठी
मानो कान्हा की बंसी गूंज उठी
सब कुछ नया सा लगता है
सभी रिश्तो मे ताजगी सी लगती है
समय की गति मध्यम हो जाती है
होटों पर गीत और
पांव मे थिरकन समा जाती है
एक छोटी सी खुशी भी
कविता बन जाती है।
कुसुम कोठारी।
तो कविता बनती है
आज एक झंकार सी हुई
रूकी पायल छनक उठी
एक हल्की सी आहट
दस्तक दे रही दिल के दरवाजे पर
कैसी रागिनी बज उठी
मानो कान्हा की बंसी गूंज उठी
सब कुछ नया सा लगता है
सभी रिश्तो मे ताजगी सी लगती है
समय की गति मध्यम हो जाती है
होटों पर गीत और
पांव मे थिरकन समा जाती है
एक छोटी सी खुशी भी
कविता बन जाती है।
कुसुम कोठारी।
Tuesday, 10 April 2018
अलंकृत रस काव्य
ढलती रही रात,
चंद्रिका के हाथों
धरा पर एक काव्य का
सृजन होता रहा
ऐसा अलंकृत रस काव्य
जिसे पढने
सुनहरी भास्कर
पर्वतों की उतंग
शिखा से उतर कर
वसुंधरा पर ढूंढता रहा
दिन भर भटकता रहा
कहां है वो ऋचाएं
जो शीतल चांदनी
उतरती रात मे
रश्मियों की तूलिका से
रच गई
खोल कर अंतर
दृश्यमान करना होगा
अपने तेज से
कुछ झुकना होगा
उसी नीरव निशा के
आलोक मे
शांत चित्त हो
अर्थ समझना होगा
सिर्फ़ सूरज बन
जलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा
रात का अंधकार
एक नई रौशनी का
अविष्कार करती है
वो रस काव्य सुधा
शीतलता का वरदान है
सुधी वरण करना होगा।
कुसुम कोठारी।
चंद्रिका के हाथों
धरा पर एक काव्य का
सृजन होता रहा
ऐसा अलंकृत रस काव्य
जिसे पढने
सुनहरी भास्कर
पर्वतों की उतंग
शिखा से उतर कर
वसुंधरा पर ढूंढता रहा
दिन भर भटकता रहा
कहां है वो ऋचाएं
जो शीतल चांदनी
उतरती रात मे
रश्मियों की तूलिका से
रच गई
खोल कर अंतर
दृश्यमान करना होगा
अपने तेज से
कुछ झुकना होगा
उसी नीरव निशा के
आलोक मे
शांत चित्त हो
अर्थ समझना होगा
सिर्फ़ सूरज बन
जलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा
रात का अंधकार
एक नई रौशनी का
अविष्कार करती है
वो रस काव्य सुधा
शीतलता का वरदान है
सुधी वरण करना होगा।
कुसुम कोठारी।
Sunday, 8 April 2018
उड़ान का हौसला
रोने वाले सुन आंखों मे
आंसू ना लाया कर
बस चुपचाप रोया कर
नयन पानी देख अपने भी
कतरा कर निकल जाते हैं।
जिंदगी की आंधियां बार बार
बुझाती रहती है जलते चराग
पर जो दे चुके भरपूर रौशनी
उनका एहसान कभी न भूल
उस के लिए दीप बन जल।
जिस छत तले बसर की जिंदगी
तूफानों ने उजाड़ा उसी गुलशन को
गुल ना कली ना कोई महका गूंचा
बिखरी पंखुरियों का मातम ना कर
फिर एक उड़ान का हौसला रख ।
सुख के वो बीते पल औ लम्हात
नफासत से बचाना यादों मे
खुशी की सौगातें बाधं रखना गांठ
नाजुक सा दिल बस साफ रहे
मासूमियत की हंसी होंठों पे सजी रहे।
कुसुम कोठारी।
आंसू ना लाया कर
बस चुपचाप रोया कर
नयन पानी देख अपने भी
कतरा कर निकल जाते हैं।
जिंदगी की आंधियां बार बार
बुझाती रहती है जलते चराग
पर जो दे चुके भरपूर रौशनी
उनका एहसान कभी न भूल
उस के लिए दीप बन जल।
जिस छत तले बसर की जिंदगी
तूफानों ने उजाड़ा उसी गुलशन को
गुल ना कली ना कोई महका गूंचा
बिखरी पंखुरियों का मातम ना कर
फिर एक उड़ान का हौसला रख ।
सुख के वो बीते पल औ लम्हात
नफासत से बचाना यादों मे
खुशी की सौगातें बाधं रखना गांठ
नाजुक सा दिल बस साफ रहे
मासूमियत की हंसी होंठों पे सजी रहे।
कुसुम कोठारी।
सप्तम सुर है सरगम मे
मौत की शै पे हर एक फना होता है,
जज्बातो की ठोकर मे क्यों
फिर रुसवा होता हैं,
इंसा है नसीब का पायेंगे ही,
बस इस बात से क्यों अंजा होता है,
ख्वाब देखो कुछ बुरा नही
पर हर ख्वाब पुरा हो यही मत देखो
सब की किस्मत एक नही होती
एक ही गुलिस्ता के हर फूल का
अंजाम अलग होता है
एक कली सेहरे मे गूंथती
एक मयत पर सजती है
एक फूल चढता श्रद्धा से
दूजा बाजारों में रौदा जाता है
एक बने गमले की शोभा
एक कचरे मे फैंका जाता है
कुछ तो कुछ भी नही सहते
पर डाली पर मुरझा जाते है
बस जीने का एक बहाना
ढूंढलो कोई अच्छा सा
एक ढूंढोगे लाख मिलेगे
सप्तम सुर है सरगम मे
...........कुसुम कोठारी
जज्बातो की ठोकर मे क्यों
फिर रुसवा होता हैं,
इंसा है नसीब का पायेंगे ही,
बस इस बात से क्यों अंजा होता है,
ख्वाब देखो कुछ बुरा नही
पर हर ख्वाब पुरा हो यही मत देखो
सब की किस्मत एक नही होती
एक ही गुलिस्ता के हर फूल का
अंजाम अलग होता है
एक कली सेहरे मे गूंथती
एक मयत पर सजती है
एक फूल चढता श्रद्धा से
दूजा बाजारों में रौदा जाता है
एक बने गमले की शोभा
एक कचरे मे फैंका जाता है
कुछ तो कुछ भी नही सहते
पर डाली पर मुरझा जाते है
बस जीने का एक बहाना
ढूंढलो कोई अच्छा सा
एक ढूंढोगे लाख मिलेगे
सप्तम सुर है सरगम मे
...........कुसुम कोठारी
Wednesday, 4 April 2018
उड़ान जान ले कठिन
उड़ान जान ले बड़ी कठिन है
कोई तेरे साथ नही है
इन राहों में धूप गरम है
दूर तक कोई छांव नही है
सहारे की भी उम्मीद ना रखना
निज हौसलों पर तूं उड़ना
अपनी राह तुम स्वयं बनाना
अपने आप को पाना हो जो
बनी राह पर ना तूं चलना
कितनी भी कठिनाई हो
बस तूं हरदम आगे बढ़ना
तेरी राहें स्वयं बनेगी
दरिया ,बाधा सब निपटेंगी
तूं अपना नूर जगाये रखना
रोक ना पाये कोई तुझ को
यह निश्चय बस ठान के चलना
उड़ान जान ले......
कुसुम कोठारी ।
(चित्र सौजन्य गूगल)
कोई तेरे साथ नही है
इन राहों में धूप गरम है
दूर तक कोई छांव नही है
सहारे की भी उम्मीद ना रखना
निज हौसलों पर तूं उड़ना
अपनी राह तुम स्वयं बनाना
अपने आप को पाना हो जो
बनी राह पर ना तूं चलना
कितनी भी कठिनाई हो
बस तूं हरदम आगे बढ़ना
तेरी राहें स्वयं बनेगी
दरिया ,बाधा सब निपटेंगी
तूं अपना नूर जगाये रखना
रोक ना पाये कोई तुझ को
यह निश्चय बस ठान के चलना
उड़ान जान ले......
कुसुम कोठारी ।
(चित्र सौजन्य गूगल)
Sunday, 1 April 2018
देखो घिर आई घटायें भी
ये वादियां ये नजारे, देखो घिर आई घटायें भी
पहाड़ो की नीलाभ चोटियों पर झुकने लगा आसमां भी।
झील का शांत जल बुला रहा,कुदरत मुस्कान बिखेर रही
ये लुभावनी घूमती घाटियां हरित रंग रंगी धरा भी।
किसी कोने से झांक रही सुनहरी सूर्य किरण
हरी दूब पर इठलाती लजीली धूप की लाली भी ।
छेड़ी राग मधुर, मस्त, सुरभित हवाऔं ने
प्रकृति के रंग रंगा देखो आज मन आंगन भी।
कुसुम कोठारी ।
पहाड़ो की नीलाभ चोटियों पर झुकने लगा आसमां भी।
झील का शांत जल बुला रहा,कुदरत मुस्कान बिखेर रही
ये लुभावनी घूमती घाटियां हरित रंग रंगी धरा भी।
किसी कोने से झांक रही सुनहरी सूर्य किरण
हरी दूब पर इठलाती लजीली धूप की लाली भी ।
छेड़ी राग मधुर, मस्त, सुरभित हवाऔं ने
प्रकृति के रंग रंगा देखो आज मन आंगन भी।
कुसुम कोठारी ।
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