ढलती रही रात,
चंद्रिका के हाथों
धरा पर एक काव्य का
सृजन होता रहा
ऐसा अलंकृत रस काव्य
जिसे पढने
सुनहरी भास्कर
पर्वतों की उतंग
शिखा से उतर कर
वसुंधरा पर ढूंढता रहा
दिन भर भटकता रहा
कहां है वो ऋचाएं
जो शीतल चांदनी
उतरती रात मे
रश्मियों की तूलिका से
रच गई
खोल कर अंतर
दृश्यमान करना होगा
अपने तेज से
कुछ झुकना होगा
उसी नीरव निशा के
आलोक मे
शांत चित्त हो
अर्थ समझना होगा
सिर्फ़ सूरज बन
जलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा
रात का अंधकार
एक नई रौशनी का
अविष्कार करती है
वो रस काव्य सुधा
शीतलता का वरदान है
सुधी वरण करना होगा।
कुसुम कोठारी।
चंद्रिका के हाथों
धरा पर एक काव्य का
सृजन होता रहा
ऐसा अलंकृत रस काव्य
जिसे पढने
सुनहरी भास्कर
पर्वतों की उतंग
शिखा से उतर कर
वसुंधरा पर ढूंढता रहा
दिन भर भटकता रहा
कहां है वो ऋचाएं
जो शीतल चांदनी
उतरती रात मे
रश्मियों की तूलिका से
रच गई
खोल कर अंतर
दृश्यमान करना होगा
अपने तेज से
कुछ झुकना होगा
उसी नीरव निशा के
आलोक मे
शांत चित्त हो
अर्थ समझना होगा
सिर्फ़ सूरज बन
जलने से भी
क्या पाता इंसान
ढलना होगा
रात का अंधकार
एक नई रौशनी का
अविष्कार करती है
वो रस काव्य सुधा
शीतलता का वरदान है
सुधी वरण करना होगा।
कुसुम कोठारी।
बहुत सार्थक रचना। लाजवाब भाव।
ReplyDeleteवाकई शब्दों पर आप की पकड़ बहुत मजबूत है। सुन्दर शब्द चयन।
This comment has been removed by the author.
Deleteसादर आभार।
ReplyDeleteजी आपने सही कहा दोष तो आ रहा है जेंडर का और एक और त्रुटि भी है पुरी कविता मे रौशनी एक अकेला शब्द है जो हिंदी नही उर्दू का है तो आगे इसे सही कर के लिखूंगी।
ReplyDeleteआपका हार्दिक आभार एक अच्छे समालोचक की तरह आगे भी पथ प्रदर्शन करते रहियेगा।
कृपा आप माफी न मांगे आपने तो एक गलती की तरफ ध्यान आकर्षित किया है मुझे अच्छा लगा पुनःआभार
मन को छूते हुए खूबसूरत अशआर
ReplyDeleteजी आभार ।
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