हिण्डोला एक परम्परा एक अनुराग!!
हिण्डोला याने झूला।
प्रायः सभी सभ्यताओं में इस का वर्णन मिलता है राजस्थान में कई प्रांतो में इसे हिंडा या हिण्डोला बोलते हैं , और सावन के आते ही घर घर झूले पड़ जाते हैं। मजबूत और बड़े पेड़ों पर मोटी सीधी शाखा देखकर मोटे मजबूत जेवड़े ( जूट की रस्सी या रस्सा) से पुट्ठा बांध कर छोटे बडे हिण्डे तैयार करते हैं मोटियार (मर्द) लोग।
झूलती हैं औरतें और बच्चे। सावन की तीज से भादो की तीज तक झूले की बहार रहती है ।
विवाहिताओं को तीज के संधारे के लिये पीहर बुलाया जाता है, जहां उन्हें पकवान, सातू (सिके चने की दाल के बेसन में पीसी चीनी और देसी घी देकर, ऊपर बदाम पिस्ता गिरी से सजी एक राजस्थानी मिठाई ,जो परम्परा से सिर्फ सावन भादों में ही बनाई जाती है), नये कपड़े और उपहार देकर विदा करते है ।
शादी के बाद का पहला सावन बहुत हरख कोड से मनाया जाता है, हवेलियों की पोळों (प्रोल ) बड़े विशाल प्रवेश द्वारों पर बडे छोटे झूले पड़ जाते हैं, सभी सखियाँ ,भाभियां ,बहने साथ मिल खूब हंसी खुशी ये त्योहार मनाते हैं ।
होड़ लगती है कौन कितना ऊपर झूला बढा पाता है, कोई भाईयों से मनुहार करती है वीरा सा हिंडा जोर से देओ, भाभियां चिहूकती है ,हां इतरा जोर से दो कि लाडन को सीधा सासरा दिख जाय ,हंसी की फूलझड़ियां छूटती है ।
छोटी उम्र की ब्याहताएं अब ससुराल से बुलावे का संदेशे की बाट जोहती है ,कभी बादल कभी हवा कभी सुवटे के द्वारा संदेशा भिजवाती है ,पीया जी आओ मोहे लेई जावो ।और फिर विदाईयां होती है सावन के बाद, गोरी-धण चली ससुराल , गीतों मे कहती है सुवटड़ी ...
अगले बरस बाबोसा,वीरासा ने भेज बुलासो जी,
सावन की जद आवेला तीज जी।
उन्हीं भावों से रचित मेरी रचना..
छोटी-छोटी बूंद बरसे बदरिया
बाबुल मोहे हिण्डन की मन आई,
कदम्ब डारी डारो हिण्डोला,
लम्बी डोर लकड़िन का पुठ्ठा,
भारी सजा लाडन का हिण्डोला,
आई सखियाँ ,भाभी ,बहना,
वीराजी हिण्डावे दई-दई झोटा
दिखन लागे रंग महल कंगूरा,
आवो जी रसिया मोहे लई जावो
अबके अपने हाथो झुलावो,
ढोला जी को लश्कर लेवन आयो
गोरी सजो शृंगार, करुं विदाई,
आय पहुंती गढ़ के माही,
गढ़ पोळां में सज्यो हिण्डोलो,
रेशम डोर गदरो मखमलियो,
साजन हाथ से झुलन लागी
बंद अखियां सुख सपना जागी।
कुसुम कोठारी।
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