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Tuesday, 31 July 2018

कोरी किताब

.                कोरी किताब

आज नई कोरी किताब खरीद लूंगी।

कल सभी कडवी यादों को
 विदा कर पहले पन्ने पर
सभी सुखद क्षणों को
सहेज कर रख लूंगी
अगला पन्ना प्यार स्नेह से भर दूंगी
अपने सभी अपनों को
निमंत्रण अगले पन्ने पर दूंगी।
आके सभी लिख देना
साथ बिताई अपनी अच्छी यादें
सुखद क्षण , कुछ अच्छे विचार
फिर उस किताब की कुछ प्रतिलिपि
बनवा भेज दूंगी सभी अपनों को।

मै सहेज रख लूंगी मेरी किताब को।
                                 कुसुम कोठारी।

Sunday, 29 July 2018

लम्हा लम्हा बिगड़ती सिमटती जिंदगी

लम्हा लम्हा बिखरती सिमटती जिंदगी

क्या है जिंदगी का फलसफा
कभी नर्म परदों से झांकती
खुशी सी जिंदगी
कभी तुषार कण सी
फिसलती सी जिंदगी
कभी ख्वाबों के निशां
ढूंढती जिंदगी
कभी खुद ख्वाब
बनती सी जिंदगी
आज हंसाती
कल रूलाती जिंदगी
लम्हा लम्हा बिखरती
सिमटती जिंदगी
कभी चंद सांसों की
दास्तान है जिंदगी
और कभी लम्बी
विराने सी फैली जिंदगी
हर बार निकलता
एक लफ्ज है लब से
क्या है जिंदगी ?
क्या यही है जिंदगी ?

        कुसुम कोठारी ।

Saturday, 28 July 2018

दिदारे रुखसार

.                दिदारे रुख सार

क्या बात की गेसुओं के बादल जाल बन गये
लाख  चाहा  होगा  न उलझे पर उलझ  गये।

चंदा से  मुख  पर  सितारे  सी बिंदी
दिदारे रुखसार को परवाने हो गये।

  अब ये  मुसाफिर दिल  कुर्बान तुझ पे
चाहे निकाल या पनाह दे,तेरे सहारे हो गये।

                 कुसुम कोठारी ।

Friday, 27 July 2018

सावन की गठरी

मन का श्रृंगार है सावन

सावन की गठरी मे
कितने अनमोल रत्न भरे ।

भूले किस्से यादों के मेले
इंद्रधनुषी आसमान
बरसती बुंदों की
गुनगुनाती बधाईयां
थिरकता झुमता तन मन
अपनों से चहकता आंगन
सौरभ से महकती बगिया
मिट्टी की सौंधी सुगंध ।

सावन की गठरी मे
कितने अनमोल रत्न भरे।

नव विवाहिताओं को
पिया के साथ पहली
फुहार का आनंद
मायके आने का चाव
मन को रिझाती बुलाती
झूले की कतारें
चाहतों की बरसती रिमझिम ।

सावन की गठरी मे
कितने अनमोल रत्न भरे।

खेती को जीवन प्राण
किसानो को अनुपम उपहार
जीवन की आस
झरनों को राग
नदियों को कलकल बहाव
सकल संसार को सरस सुधा ।

सावन की गठरी मे
कितने अनमोल रत्न भरे।।
            कुसुम कोठारी।

Thursday, 26 July 2018

किस्मत क्या है!!

.           किस्मत क्या है!!

कर्मो द्वारा अर्जित लब्ध और प्रारब्ध ही किस्मत है...

            पूर्व कृत कर्मो से
               जो संजोया है
         वो ही विधना का खेल है
           जो कर्म रूप संजो के
               आया है रे प्राणी
                उस का फल तो
                 अवश्य पायेगा
                हंस हंस बाधें कर्म
                  अब रो रो उन्हें
                      छुडाये जा
                    भाग्य, नसीब,
                  किस्मत क्या है ?
                 बस कर्मो से संचित
                      नीधी विपाक
                      बस सुकृति से
                  कुछ कर्म गति मोड़
                    और धैर्य संयम से
                            सब झेल
                          साथ ही कर
                           कृत्य अच्छे
                    और कर नव भाग्य
                         का निर्माण ।

                          कुसुम कोठारी।

Tuesday, 24 July 2018

इंसा है नसीब का पायेगा ही

इंसान है नसीब का पायेगा ही

मौत की शै पे हर एक फना होता है,
      जज्बातो की ठोकर मे क्यों
           फिर रुसवा होता हैं,
      इंसा है नसीब का पायेगा ही,
 बस इस  बात से क्यों अंजा होता है,
        ख्वाब देखो कुछ बुरा नही
   पर हर ख्वाब पुरा हो यही मत देखो
   सब की किस्मत एक नही होती
   एक ही गुलिस्ता के हर फूल का
          अंजाम अलग होता है
         एक कली सेहरे मे गूंथती
          एक मयत पर सजती है
         एक  फूल चढता श्रद्धा से
      दूजा बाजारों में रौंदा जाता है
         एक बने गमले की शोभा
        एक कचरे मे फैंका जाता है
        कुछ तो कुछ भी नही सहते
         पर डाली पर मुरझा जाते है
           बस जीने का एक बहाना
             ढूंढलो कोई अच्छा सा
            एक  ढूंढोगे लाख मिलेगे
             सप्तम सुर है सरगम मे।

                       कुसुम कोठारी।

चांद का सम्मोहन

.          चांद का सम्मोहन 
    प्राचीर से उतर चंचल उर्मियां
आंगन मे अठखेलियाँ कर रही थी
    और मै बैठी कृत्रिम प्रकाश मे
    चाँद पर कविता लिख रही थी
      मन मे प्रतिकार उठ रहा था
        उठ के वातायन खोल दूं
       शायद मन कुछ प्रशांत हो
                  आहा!!
      चांद अपनी सुषमा के साथ
        मेरी ही खिडकी पर बैठा
      थाप दे रहा था धीमी मद्धरिम
  विस्मित सी जाने किस सम्मोहन मे
      बंधी मैं छत तक आ गई
     इतनी उजली कोरी वसना
      प्रकृति, स्तभित से नयन
     चांदनी छत से आंगन तक
  पुलक पुलक क्रीड़ा कर रही थी
    गमलों के अलसाऐ ये फूलों मे
       नई ज्योत्सना भर रही थी
     मन लुभाता समीर का माधुर्य
       एक धीमी स्वर लहरी लिये
        पादप पल्लवों का स्पंदन
          दूर धोरी गैया का नन्हा
        चंद्र रश्मियों से होड़ करता
             कौन ज्यादा कोमल
           कौन स्फटिक सा धोरा
       चांदनी लजाई बोली मै हारी
       बोली मन करता तुम से कुछ
              उजाला चुरा लूं!!
         निशा धीरे धीरे  ढलने लगी
        चांदनी चांद मे सिमटने लगी
       चांद ने अपना तिलिस्म उठाया
               और प्रस्थान किया
        प्राची से एक अद्भुत रूपसी
          सुर बाला सुनहरी आंचल
         फहराती मंदाकिनी मे उतरी
          आज चांद और चांदनी से
              साक्षात्कार हुवा मेरा
                मेरे मनोभावों का
         प्रादुर्भाव हुवा, बिन कल्पना।
                  कुसुम कोठारी।

Monday, 23 July 2018

दर्द यूंही दम तौड़ता है

.  दर्द यूंही दम तोड़ता

     चाँद रोया रातभर
   शबनमी अश्क बहाये
 फूलों का दिल चाक हुवा
    खिल न पाये खुल के
 छुपाते रहे उन अश्को को
     अपने पंखुरियों तले
  धूप ने फिर साजिश रची
होले से उन को खुद मे समेटा
    और अभिमान से इतराई
      कह रही ज्यों यूं ही दर्द
       दम तोडता है थककर
      और छुप जाता न जाने
    किन परदों तले होले होले।

            कुसुम कोठारी।

Saturday, 21 July 2018

श्याम घटा झुक आई

श्याम घटा झुक आई

      चिरिप-चिरिप
        खग बोले,
    उषा ने घूघट पट
             खोले,
  देख किरण का रूप
          सुनहरा
 श्याम घटा झुक आई,
      तभी भटकता
         एक पवन
       झकोरा आया ,
          लगी चोट
          नीरद पर
 बादल ने जल बरसाया ,
        झिमिर झिमिर
          बदरी बरसी,
          धरती सरसी,
भानु ने फिर मुँह छिपाया,
ऐसी आलौकिक सुबह देख
            तन पुलका
            मन हर्षाया

          कुसुम कोठारी ।

Thursday, 19 July 2018

सावन का हिण्डोला


सावन का हिण्डोला

छोटी छोटी बूंद बरसे बदरिया
बाबुल मोहे हिण्डन की मन आयी
कदम्ब डारी डारो हिण्डोला
लम्बी डोर लकड़िन का पुठ्ठा
 भारी सजा लाडन का हिण्डोला
आई सखियाँ ,भाभी ,बहना,
वीराजी हिण्डावे दई दई झोटा
दिखन लागे रंग महल कंगूरा
आवो जी रसिया मोहे लई जावो
अबके अपने हाथो झुलावो 
ढ़ोला जी को लश्कर आयो
गोरी सजो श्रृंगार, करुं विदाई
आय पहुंती गढ़ के माही
गढ़ पोळयां में सज्यो हिण्डोलो
रेशम डोर गदरो मखमलियो
साजन हाथ से झुलन लागी
बंद अखियां सुख सपना जागी।

            कुसुम कोठारी।

आलेख हिण्डोला एक परम्परा एक अनुराग


हिण्डोला एक परम्परा एक अनुराग!! 


हिण्डोला याने झूला।
 प्रायः सभी सभ्यताओं में इस का वर्णन मिलता है राजस्थान में कई प्रांतो में इसे हिंडा या हिण्डोला बोलते हैं , और सावन के आते ही घर घर झूले पड़ जाते हैं। मजबूत और बड़े पेड़ों पर मोटी  सीधी शाखा देखकर मोटे मजबूत जेवड़े ( जूट की रस्सी या रस्सा) से पुट्ठा बांध कर छोटे बडे हिण्डे तैयार करते हैं मोटियार (मर्द) लोग। 
झूलती हैं औरतें और बच्चे। सावन की तीज से भादो की तीज तक झूले की बहार  रहती है ।
विवाहिताओं को तीज के संधारे के लिये पीहर बुलाया जाता है, जहां उन्हें पकवान, सातू (सिके चने की दाल के बेसन में पीसी चीनी और देसी घी देकर, ऊपर बदाम पिस्ता गिरी से सजी एक राजस्थानी मिठाई ,जो परम्परा से सिर्फ सावन भादों में ही बनाई जाती है), नये कपड़े और उपहार देकर विदा करते है ।
शादी के बाद का पहला सावन बहुत हरख कोड से मनाया जाता है, हवेलियों की पोळों (प्रोल ) बड़े विशाल प्रवेश द्वारों पर बडे छोटे झूले पड़ जाते हैं, सभी सखियाँ ,भाभियां ,बहने साथ मिल खूब हंसी खुशी ये त्योहार मनाते हैं ।
होड़ लगती है कौन कितना ऊपर झूला बढा पाता है, कोई भाईयों से मनुहार करती है वीरा सा हिंडा जोर से देओ, भाभियां चिहूकती है ,हां इतरा जोर से दो कि लाडन को सीधा सासरा दिख जाय ,हंसी की फूलझड़ियां छूटती है ।
छोटी उम्र की ब्याहताएं अब ससुराल से बुलावे का संदेशे की बाट जोहती  है ,कभी बादल कभी हवा कभी सुवटे के द्वारा संदेशा भिजवाती है ,पीया जी आओ मोहे लेई जावो ।और फिर विदाईयां होती है सावन के बाद, गोरी-धण चली ससुराल , गीतों मे कहती है सुवटड़ी ...

अगले बरस  बाबोसा,वीरासा ने भेज बुलासो जी,
         सावन की जद आवेला तीज जी।

उन्हीं भावों से रचित मेरी रचना..

छोटी-छोटी बूंद बरसे बदरिया
बाबुल मोहे हिण्डन की मन आई,
कदम्ब डारी डारो हिण्डोला,
लम्बी डोर लकड़िन का पुठ्ठा,
भारी सजा लाडन का हिण्डोला,
आई सखियाँ ,भाभी ,बहना,
वीराजी हिण्डावे दई-दई झोटा
दिखन लागे रंग महल कंगूरा,
आवो जी रसिया मोहे लई जावो
अबके अपने हाथो झुलावो,
ढोला जी को लश्कर लेवन आयो
गोरी सजो शृंगार, करुं विदाई,
आय पहुंती गढ़ के माही,
गढ़ पोळां में सज्यो हिण्डोलो,
रेशम डोर गदरो मखमलियो,
साजन हाथ से झुलन लागी
बंद अखियां सुख सपना जागी।

            कुसुम कोठारी।

Wednesday, 18 July 2018

झूलन चित चढ़ी मोरे

झूलन चित चढ़ी मोरे

ओढ के धानी चुनर प्रीत की
संग सांवलिया के झुलन जाऊँ
पेंग बढ़ाऊं ,
पायल बोले रुनझुन रुनझुन
मन के संदल महके
पपीहरा गीत सुनाऐ
मन नव राग सजाऐ ,
धरा " हरी "रंग रंगी
धीमे धीमे पवन झकोरे
मन मे हरख जगावे
आज राधे गोविंद की
झुलन चित चढ़ी चढ़ी जाऐ
आवो सखी राधा श्याम झुलायें ।

           कुसुम कोठारी ।



Tuesday, 17 July 2018

चल पड़ी तो नाम गाड़ी

कोई धूल से उठा शीश पर धर लिया जाता
कोई टिमटिमाता तारा आसमां भी नही पाता।

इस दुनिया के दस्तूर निराले हैं भाई
यहां गर चल पडी तो नाम है गाड़ी।

हां मे हां मिलाते हैं यहां जी हजूरी मे
कहां पेट भर पाता सिर्फ मजूरी मे ।

चले तो  सिक्का भी चल पड़ता खोटा
नही तो रूपये का भाग भी खोटा ।

चमचागिरी से पैसा बन जाता मोटा
ईमान के घर दाल रोटी का टोटा ।

गरीब पहने तो कपड़ा टोटे मे छोटा
फैशन ने पहना देखभाल कर ही छोटा।
             
                  कुसुम कोठारी।

चोर कोतवाल

चोर कोतवाल

मईया बोली सुन मोरे लला
काम पड्यो अति भारी
मै आऊँ तब तक तूं ही
कर माखन रखवारी
तूं कहत सदा ,
ग्वाल बाल ही है माखन के चोर
चोरी करत सब ,
और मेरे लल्लन पर
डालत दोष
आज तूं ही संभाल माखन मोरो,
दूंगी तूझे घनेरो
सुन मईया की बात
मनमोहन पड्यो घणे संकट मे
माखन भरो पड़्यो कटोरो
नही चख पाऊँ मै
निगरानी मे डारयो मईया
कैसी अनीति मचाई
सच माँ तूं मोसे सयानी
चोर कू ही कोतवाल बनाई
मै तो जग को ठाकुर हूं,
पर तूं मोरी भी माई।

           कुसुम  कोठारी ।

Saturday, 14 July 2018

चाँद बादल की लुक्का छिपी

"चाँद बादल की लुका छिपी"

आज चाँद के नूर पर देखो 
फिर बदरी सी छाई है ,
मौसम है कुछ  महका-बहका
चंद्रिका  घूंघट ओट कर आई है ,
क्या पीया मिलन को जाना है
जो यूं सिमटी सकुचाई है ,
अँखियां ऐसे झुकी कि 
जैसे पहली मिलन रुत आई है ,
कभी छुपाये खुद को 
बादल के मृगछौनो में ,
कभी झांकती हटा-घटा
घूंघट के कोनो से ,
निशा , चूनर तारों वाली
झिलमिल-झलकाती है ,
और कभी नीला-नीला 
अपना आंचल लहराती है ,
आज बादलों ने देखो 
चाँद से खेली छुपम छुपाई है ।

          कुसुम कोठारी ।


Friday, 13 July 2018

विश्वेश्वर

आज रथ यात्रा पर सभी को हार्दिक बधाई
.
               "विश्वेश्वर"
वो है निर्लिप्त निरंकार वो प्रीत क्या जाने
ना राधा ना मीरा बस " रमा " रंग है राचे
आया था धरा को असुरो से देने मुक्ति
आया था आते कलियुग की देने चेतावनी
आया था देने कृष्ण बन गीता का वो ज्ञान
आया था  समझाने कर्म की  महत्ता
आया था त्रेता के कुछ वचन करने पुरे
आया जन्म लेकर कोख से ,         
इसलिये रचाई बाल लीलाऐं नयनाभिराम ,
सांसारी बन आया तो रहा भी
बन मानव की दुर्बताओं के साथ
वही सलौना बालपन ,वही ईर्ष्या,
वही मैत्री ,वही शत्रुता ,वही मोह
वही माया वही भोग वही लिप्सा ,   
अभिलाषा ,वही बदलती मनोवृति
जो कि है मानव के नैसर्गिक गुण ।
वो आया था जगाने स्वाभिमान ,
सिखाने निज अस्तित्व हित संघर्ष करना
मनुष्य सब कुछ करने मे है सक्षम ,
ये बताने आया प्रत्यक्ष मानव बन ।
नही तो बैठ बैकुंठ मे सब साध लेता
क्यों आता अजन्मा इस धरा पर
हमे समझाने आया कि सब कुछ
तू कर सकता ,नही तू नारायण से कम
बस मार्ग भटक के तू खोता निज गरिमा
भूला अंहकार वश तूं बजरंगी सा
अपनी सारी पावन शक्तियां । 
                                       
            कुसुम कोठारी।

मेरी पसंद

मेरी पसंद दीदा कविता
डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी की कविता "अन्वेषण"

मेघ भी है, आस भी है और आकुल प्यास भी है,
पर बुझा दे जो हृदय की  आग वह पानी कहाँ है ?

स्वाति जल की कामना में,पी कहाँ?'का मंत्र पढ़कर
बादलो  को जो रुला दे, मीत !वह मानी कहाँ है ?

क्षत-विक्षत है उर धरा का,रस रसातल में समाया,
सत्व सारा जो लुटा दे, अभ्र वह दानी कहाँ है ?

पार नभ के लोक में, जो बादलो पर राज करता,
छल-पराक्रम का धनी वह इंद्र अभिमानी कहाँ है ?

मौन  पादप, वृक्ष नीरव, वायु चंचल, प्राण व्याकुल
इन्द्रधनुषी इस रसा का रंग वह धानी कहाँ है ?

सृष्टि  भीगे, रूप सरसे, जिस सुहृद से नेह बरसे, 
उस पिघलते मेह जैसे वीर का सानी कहाँ है ? 

कुछ  सरस है,  विरस भी, तृप्त कोई, दृप्त कोई
नियति जल कि थाह लेता जीव अज्ञानी कहाँ है  ?।

Wednesday, 11 July 2018

दृढ़ संकल्प का दीप

दृढ़ संकल्प का दीप

दीप जला सखी दीप जला
निराशा के तम को भगाने
आशा का एक दीप जला
राह हो कितनी भी मुश्किल
दृढ़ संकल्प का दीप जला
रिश्तों को रखना संभाले
स्नेह का एक दीप जला
सब कुछ नही पर कुछ पाना है
विश्वास का एक दीप जला
स्वर्णिम रश्मि खड़ी है द्वारे
सूरज सा एक दीप जला
दीप जला सखी दीप जला
        कुसुम कोठारी

Tuesday, 10 July 2018

ना जाने क्या हो रहा है

.      ना जाने क्या हो रहा है

    कहते रावण स्वाहा हो गया
      कंस वंश से नाश हो गया
   हिटलर भी तो दफन हो गय
फिर भी खुले आम उन सी प्रवृत्तियां
विद्रूप आधिपत्य जमाये बैठी चहुँ और
   दशानन सौ मुख लिये घुम रहा
  कंश की सारी क्रूरता तांडव कर रही
हिटलर सत्ता के द्वारा पर अट्टहास कर रहा
लगता है तीनों की आत्मा का मिलन हो गया
संसार मे शैतानों ने श्रोणित बीज बो दिये
दंभ, अत्याचार अतिचार, लालसा और भोग का
मंचन हो खुला नाटक खेला जा रहा
 सूत्र धार पीछे बैठा मुस्कुरा रहा
         मानवता कराह रही
        नैतिकता दम तोड गई
 संस्कार बीते युग की कहानी बन चुके
सदाचार ऐतिहासिक तथ्य बन सिसक रहे
    हैवानियत बेखौफ घुम रही
 नई सदी मे क्या क्या हो रहा है
इंसान इंसानियत खो के इतरा रहा है
और ऊपर वाला ना देख रहा ना सुन रहा ना बोल रहा है
जाने क्या हो रहा है जाने क्या हो रहा है।
                कुसुम कोठारी ह

Monday, 9 July 2018

विसंगतियों मे फसा मन

विसंगतियों मे फसा मन

था क्या मेरा जो खो दूंगी
मेरा ही जब मै नही अर्पण
क्या पाऊं क्या खोऊं
कागज की एक नाव पर
बैठ पार हो जाऊं
पिघलती लौ में डेरा डालूं
या चढ़ा दूं काष्ठ की हंडिया
हवा का एक सेतु बनाऊं
बिना डोर का झूला डालूं
बैठे-बैठे ख्वाब बुनूं
या सचमुच ही कुछ कर डालूं ।
था क्या मेरा......
         कुसुम कोठारी ।

Sunday, 8 July 2018

चांद भी तपता है

चांद भी तपता है

तपता हुवा चांद उतर आया
विरहन की आंखों मे
चांदनी जला रही है तन- मन,
झरोखे मे उतर उतर
कैसी तपिश है ये
अंतर तक दहक  गया
जेठ की तपती दोपहरी जैसे
सन्नाटे उतर आये मन मे
यादों के गर्म थपेड़े
मन झुलसाय
मुरझाये फूलों सा
रूप कुम्हलाय
नैनो का नीर गालों की
गर्मी मे समा कर सूख जाय
ज्यों धरा के तपते गात पर
तन्वंगी होता नदीयों का पानी
लताओं जैसे निस्तेज
घुंघराले उलझे केश
मलीन चीर की सिलवटें ऐसे जैसे
धरती का सूख कर सिकुड जाना
प्यासे पंछियों सा भटकता मन
उड़ता तृषा शांति की तलाश मे
हां चांद भी तपता है.....
            कुसुम कोठारी ।

Friday, 6 July 2018

वर्षा तो अभी अल्हड़ है

वर्षा तो अभी अल्हड़ है

वर्षा तो अभी अल्हड है
कोई न जाने कैसी राह चली
मस्त,मदंग,मतंग मतवाली
अपनी चाल चली
कोई देखे हसरत से
फिर भी नही रुकी
कहीं सरसा हो सरसी
कहीं प्रचंड बरसी
कभी मेघ औ पवन के
षड्यंत्रों मे उलझी
कभी स्वतंत्र निज मौज में
संग समीर रची ।
वर्षा अभी.......
         कुसुम कोठारी ।

Thursday, 5 July 2018

आज सखी ....... ( मेघ मल्हार )

आज सखी मन खनक खनक जाये

मन की झांझर ऐसी झनकी
रुनझुन रुनझुन बोल रही है
छेडी सरगम मधुर रागिनी
मन के भेद भी खोल रही है।
आज सखी मन खनक खनक जाय।

प्रीत गगरिया छलक रही है
ज्यो  अमृत  उड़ेल रही  है
मन को घट  रीतो प्यासो है
बूंद - बूंद रस घोल  रही  है
आज सखी मन खनक खनक जाय ।

काली घटा घन घड़क रही है
बृष्टि टापुर टुपुर टपक रही है
हवा सुर सम्राट तानसेन ज्यों
राग मल्हार  दे  ठुमक रही है
आज सखी मन खनक खनक जाय ।
              कुसुम कोठारी।

Monday, 2 July 2018

सरसती बूंदों का श्रृंगार मेघ मल्हार

मदमाती बूंदों का श्रृंगार मेघ मल्हार

   घुमड़ता मेघ, मल्हार गा रहा
 मदमाती बूंदों का श्रृंगार गा रहा
  सरसती धरा का प्यार गा रहा
  खिलते फूलों का अनुराग गा
कलियों का सोलह सिंगार गा रहा
  गूंचा गूंचा मकती नज्मे गा रहा
 रुत का खिलता अरमान गा रहा
 पपीहरा  मीठी  सी राग गा  रहा
मन मोर ठुमक ठुमक नाच गा रहा
 नदियों का कल कल राग गा रहा
  मदमाता  सावन  फूहार गा रहा
  भीना सरस रस काव्य गा रहा।।

           कुसुम कोठारी।

Sunday, 1 July 2018

अभिशप्त न रहो

अभिशप्त न रहो

क्यों बांध रखा है स्वयं को
बांध के पानी की तरह
तुम उतंग पहाड़ों का सरगम हो
निर्झर बन निकल पड़ो
सुसुप्त स्रोतो से
बह निकलो नदी की
उन्मुक्त धार बनके
सागर सा अंतर मंथन लिये
प्रशांत हो बैठे क्यों हो
क्यो बेकल हो लहरों की तरह आजाद किनारों से खेलते नही
अरमानों को सजाओ
अभिशप्त न करो
अभिलाषाओं का दमन न करों
ये पल ये समय बीते हुवे क्षण
कभी भी नही आयेंगे लौट
जो संजोना हो अभी बस अभी
समय की निर्बाध धारा मे
निःसहाय से न बहो
तैर कर आंनद उठाओ
टूटे पत्ते नही कि हवा का झोंका             
या जल तंरग बहा ले जाय तुम्हें
हवाओं के रुख पर हर कोई बहता है
विपरीत दिशा मे राह बनाओ
कुछ भी करो बस अभिशप्त न रहो।
युग का महा संगीत सुनो
मन का अह्लाद मुखरित करो
सिर्फ जीने के लिये नही जीयो
गरल नही जीवन अमृत पीयो।

          कुसुम कोठरी।