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Friday, 31 January 2020

प्रकृति की कलाएं

प्रकृति की कलाएं

ओ गगन के चँद्रमा मैं शुभ्र ज्योत्सना तेरी हूं,
तूं आकाश भाल विराजित मैं धरा तक फैली हूं।

ओ अक्षूण भास्कर, मै तेरी उज्ज्वल प्रभा हूं,
तूं विस्तृत नभ आच्छादित, मैं तेरी प्रतिछाया हूं ।

ओ घटा के मेघ शयामल, मैं तेरी जल धार हूं,
तूं धरा की प्यास हर, मैं तेरा तृप्त अनुराग हूं ।

ओ सागर अन्तर तल गहरे, मैं तेरा विस्तार हूं,
तूं घोर रोर प्रभंजन है, मैं तेरा अगाध उत्थान हूं।

ओ मधुबन के हर सिंगार, मैं तेरा रंग गुलनार हूं,
तूं मोहनी माया सा है, मैं निर्मल बासंती "बयार"हूं।

             कुसुम कोठारी।

Thursday, 30 January 2020

विधु का रूप मनोहर

विधु का रूप मनोहर

ये रजत बूटों से सुसज्जित नीलम सा आकाश,
ज्यों निलांचल पर हिरकणिका जडी चांदी तारों में,

फूलों  ने भी पहन लिये हैं वस्त्र किरण जाली के,
आई चंद्रिका इठलाती पसरी लतिका के बिस्तर में।

विधु का कैसा रुप मनोहर तारों जडी पालकी है,
भिगोता सरसी हरित धरा को निज चपल चाँदनी में ।

स्नान करने उतरा हो ज्यों निर्मल शांत झील में
जाते-जाते छोड़ गया कुछ अंश अपना पानी में ।

ये रात है या सौगात है अनुपम  कोई कुदरत की,
जादू जैसा तिलिस्म फैला सारे  विश्व आंगन में।।

              कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 29 January 2020

मधुबन में बसंत

मधुबन में बसंत

आज न कोई आना मधुबन में
आज लग्यो मधुमास सखी ,
आज नव मधुमास की
है सुरभित मधु वात सखी,
किसलय डोले कमल दल खिले
भ्रमर करे गूँजार सखी,
कच्ची कली कचनार की
झूमे मलय संग आज सखी ,
स्वर्ग से देव -देवी आये
ऐसी शोभा मन भाये सखी,
सुरपति आज बरसावे
सुरभित पारिजात सखी,
तारक दल शोभित अंबर
चंद्र अनुराग गुलाल सखी,
कृष्ण नही पाहन
वो राधा की श्वास सखी,
चिनमय चिदानँद माधव
बृषभानु सुता श्रृंगार सखी,
आज न कोई आना मधुबन में
आज राधा संग कृष्ण रचाये रास सखी ।।

कुसुम कोठारी।


माँ मेधा से भर दे झोली

बसंत पंचमी की हार्दिक शुभकामनाएं ।

             वागीश्वरी स्तुति

वंदन करूँ तुझ पाद कमल मैं
माँ  मेधा  से भर  दे  झोली ,
अगनित शीश झुके तेरे आगे
मेरा नमन भी स्वीकृत करले ,
धवल वसन मनोहर झांकी
तक-तक आँख निहाल ,
हाथ में वीणा वरद-हस्त
कुमुद पुष्प आसन विराज,
भजन न जानु दीप न चासूँ
फिर भी माँगू विद्या दान ,
तुझ चरण पखारूं वागीश्वरी
 दे-दे विनय का वरदान ,
जासे मैं मूरखा भी तोरे नाम
लिख डारूँ भजन सुजान
माँ मेधा ......।।

      कुसुम कोठारी ।

Monday, 27 January 2020

काव्य का उत्थान और शुद्ध हिन्दी लेखन


काव्य का उत्थान और शुद्ध हिन्दी लेखन।

आज समीक्षक और आलोचक समय-समय पर ये जोर दे रहें हैं कि हिन्दी काव्य सृजन में भाषा की शुद्धता पर विशेष ध्यान दिया जाए ,काव्य लेखन में अहिन्दी  शब्दों का पूर्ण त्याग किया जाए, कम से कम काव्य की प्रमुख विधाओं को परिष्कृत रखा जाए।
तो कुछ लोग प्रश्न उठाते हैं कि कई तरह की त्रुटियाँ हमारे महान रचनाकारों में भी देखने को मिल जाती है।
ये लेख उसी के उत्तर में लिखने का प्रयास है।
वो समय काव्य का उत्थान काल था।
हिन्दी या देवनागरी का नहीं,ना उस समय शिक्षा का स्वरूप विस्तृत था,जिस अभिभावक को अपने बच्चों को जो साधन समझ आता वैसी शिक्षा व्यवस्था कर दिया करते थे,
कुछ तो शिक्षा के लिए किसी गुरु के पास नहीं जाते थे ,पर जन्म-जात प्रतिभा के बल पर आश्चर्यजनक सृजन करते थे ,जो आज तक एक युग के रूप में हमारे सामने उपस्थित हैं ।
धीरे -धीरे हिन्दी का विकास हुआ और उन्ही के सृजन को आधार मान कर प्रबुद्ध मनस्वियों ने बहुत से सुधार किए, नियम बनाए।
समय के साथ और शोध कार्य होते रहे,  हिन्दी का स्वरूप निखर कर सामने आया, शुद्धता और अलंकारों का निखरा रूप सामने आया ,ठीक ये वो समय भी था जब पद्य लेखन में बंधन मुक्तता आई, काव्य अपने ऊंचाइयों पर था पर छंद लेखन सीमित हो गया , बहुत परिवर्तन हुए ,आम व्यक्ति अपने भावों को साधने लगा बंधन मुक्त होकर लिखने लगा ,काव्य में विविधता आई, पर छंद और परिपाटी के लेखन को क्षति हुई ।
अब इधर कुछ वर्षों में देखने को आ रहा है , परिपाटी लेखन पर विद्वानों का आकर्षण बढ़ा है ,वो चाहते हैं परिपाटी भी बनी रहे और हिन्दी की शुद्धता पर जोर दिया जाए ,तो छंद और पुरानी विधाओं में शुद्धता और सुदृढ़ नियमावली बना कर सृजन किया जाए ,जो आने वाले समय के लिए एक उदाहरण बन जाए ,नये शोध के मार्ग खुले, हिन्दी का पूर्ण वैज्ञानिक विकास हो ,नये लोग जुड़ें और सिद्धांतों को सुंदर आधार दें , नये सृजन हो और कठिन नियमों के साथ ।
कम लिखें पर ऐसा लिखें जो हमेशा की धरोहर बन जाए।

इस संदर्भ में हम लोकोक्तियों का और मुहावरों का  प्रयोग करके काव्य को सुंदर और आम व्यवहार से जोड़ सकते हैं ,समास के यथा संभव प्रयोगों से किसी भी विधा के लेखन में बिखराव से बच सकते हैं,
और छोटी से छोटी काव्य विधाओं का सशक्तिकरण कर सकते हैं।
अलंकारों और शुद्धता  का सामंजस्य किसी भी पारम्परिक विधा को एक स्थायित्व और सौंदर्य प्रदान करेगा ।
हमें विधाओं से छेड़छाड़ नहीं करनी अपितु उनमें गहनता और भाषा बोध को उन्नत करने के प्रयास करने चाहिए।
ठोस बिंबों का सहयोग भी किसी काव्य को चमत्कारी और गूढ़ भावों से युक्त बनाने में सहायक होगा ।
रहा काव्य (नियम बद्ध काव्य या छंद लेखन ) में ब्रज-भाषा ,अवधि भाषा और आंचलिक भाषाओं के मिश्रण का होना ,तो यही सोचना है कि इन भाषाओं का अपना एक पूरा का पूरा साहित्य है और समृद्ध है ,फिर भी उस पर भी कोई लिखना चाहे तो लिखे ।
पर हर वो साहित्यकार जो कि हिन्दी के उत्थान और मृतप्राय: विधाओं के पुनरुत्थान में  प्रण प्राण से लगा हो वो चाहेगा कि हिन्दी को ऊंचाई पर लाना है ,उसे विश्व स्तर तक उठाना है तो अहिन्दी शब्दों से बचना जरूरी  है ।सभी छंद जाय ,आय ,आत जात, मात खात नहिं इत्यादि बहुत से शब्दों के बिना भी लिखे जा सकते हैं ,
दोहा , सोरठा, चौपाई, रोला कुन्ड़लियाँ और भी बहुत से छंद ।
हिन्दी एक समृद्ध भाषा है उस के पास शब्दों का जो कोष है वो नि:संदेह किसी और भाषा के पास नहीं है, बस प्रतिबद्धता जरूरी है क्योंकि सदियों से कई भाषाओं के शब्द हमने आम बोलचाल में अपना लिए हैं।
प्रयास रहे कि हिन्दी काव्य सृजन को हिन्दी रहने दिया जाए।

कुसुम कोठारी।



नायिका सौंदर्य

सजा थाल कहां चली
ओ पूगल की पद्मिनी
नख शिख श्रृंगार रचा
ओ रूपसी मृगनयनी !

कहां चली गज गामिनी
मधुर स्मित रेख होठ धरी
रत्न जड़ित दृग जुडवां
शुक नासिका भ्रमरी !

मुख उजास चंद्रिका सदृश
गुलाब घुल्यो ज्यों क्षीर सागर
मन मोहिनी मन हरणीं
गात लचक ज्यों चंपक डार!

शीश बोरलो झबरक झूमे
चँद्र टिकुली चढी  लिलार
काना झुमका नथ मोतियन की
सजा गले में नव लख हार!

ओ मधुकरी मनस्वी
कंगना खनके खनन-खनन
करधन लचकत डोला जाय
पग पायल की रुनझुन-रुनझुन!

ओ गौरा सी सुभगे
कहां चली चित चोर
सांझ दीपिका झिलमिल
कभी उगती भोर!

       कुसुम कोठारी

Saturday, 25 January 2020

तिरंगा उदास क्यूं

गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं

गणतंत्र दिवस और उदास तिरंगा

तीन रंग का पहने बाना
फहरा रहा जो शान से !
आज क्यों कुछ ग़मगीन !
जिस गर्व से था फ़हरा ,
जो थे उद्देश्य ,
सभी अधूरे , ढ़ह रहे मंसूबे ,
लाखों की बलिवेदी पर
लहराया था तिरंगा !
क्या उन शहीदों का कर्ज चुका पाये?
सोचो हम जो श्वास ले रहे
स्वतंत्रता की वो हवा कहाँ से आई ,
कितनी माँओं ने सपूत खोये ,
कितनी बहनों ने भाई ।
आज स्वार्थ का बेपर्दा होता खेल,
भ्रष्टाचार,आंतक,दुराचार का दुष्कर मेल,
आज चूड़ियाँ छोड़ हाथ में
लेनी है तलवार,
कोई मर्म तक छेद न जाये,
पहले करने होंगें वार,
आजादी का मूल्य पहचान लें
तो ही खुलेंगे मन के तार ,
हर तरह के दुश्मनों का
जीना करदो दुश्वार,
आओ तिरंगे के नीचे हम
आज करें यह प्रण प्राण,
देश धर्म रक्षा हित
सब कुछ हो निस्त्राण ।

       कुसुम कोठारी ।

गणतंत्र दिवस से पहले

गणतंत्र दिवस से पहले

गणतंत्र दिवस पर एक बार
फिर तिरंगा फहरायेगा ,
कुछ कश्में वादे होगें
कुछ आश्वासनों का परचम लहरायेगा ।
हम फिर भ्रमित हो भुलेंगे,
प्रजातंत्र बन गया लाठी वालों की भैंस ,
और देश बन गया मूक बधिरों का आवास ,
लाठी वाले खूब अपनी भैंस चरा रहे
हम पंगू बन बैठे गणतंत्र दिवस मना रहे ,
ना जाने देश कहां जायेगा 
हम जा रहे रसातल को ,
यद्यपि दीन-दुखी ग़ारत है
विश्व में फिर भी सर्वोच्च भारत है, 
गाना नही, अब जगना और जगाना है,
ठंडे हुवे लहू को फिर लावा बनाना है ,
मां भारती को सच में शिखर पर पहुंचाना है ,
मज़बूत इरादों वाला गणतंत्र दिवस मनाना है ।

       कुसुम कोठारी ।

Friday, 24 January 2020

जलती तीली

श़मा ज़लती है ,पिघलती है,
अंत तक अंजुमन को रौशन रखती है।
तीली बस सुलगती और बुझती है
पर कुछ जलाती,जब-जब भी जलती है।
जलाने की शक्ति, जब दीप जलाती,
ज्योति से  हर कोना पावन मंदिर का भरती।
धूप की भीनी सौरभ मन को  भाती ,
भुखे उदर को देती रोटी, चूल्हा जब जलाती।
आती लाज उसे जब तम्बाकू सुलगाती,
जब भी जलती सिगरेट वो रोती ।
ख़ुद पांवों के नीचे मसली जाती,
लेकर अधजला कलेवर कहां-कहां ठोकर खाती।
दारुण दुखद का कारण होते वो पल  ,
क्रूर लोगों के हाथ से बस्तियां जाती जल।
दिखती छोटी, है  ख़ामोश पर ,
कितनी शक्ति है  उसके अंदर ।।

कुसुम कोठारी।

नव गीत-दीन का दर्द

नवगीत
१६ १०मात्रा।

सर के ऊपर टूटी टपरी
 नही और दावा
उर की पीड़ा बाहर फ़ूटे
 बहती बन लावा ।।

सारा दिन हाड़ों को तोड़ा
जो भी काम मिला,
कभी कीच या रहे धूल में
मिलता रहा सिला ,
अवसादो के घन गहराते
साथ नही मितवा ।
उर की पीड़ा बाहर फ़ूटे
बहती बन लावा ।।

नियती कैसा खेल खेलती
कैसी  ये माया
कहीं बहारों के हैं मेले
कहीं दुःख छाया
दुनिया ये आनी जानी है
झूठा दिखलावा।
उर की पीड़ा बाहर फ़ूटे
बहती बन लावा ।।

आग सुलगी हृदय में ऐसी
दहके ज्यों ज्वाला
बन बैठी है लाचारी अब
चुभती बन भाला
निर्धन कितना बेबस होता
 सत्य यही कड़वा ।
उर की पीड़ा बाहर फ़ूटे
बहती बन लावा।।

कुसुम कोठारी।

कुसुम की कुण्डलियाँ-८

कुसुम की कुण्डलियाँ

२९ विषय-अनुपम
महकी मँजरी बाग में , छाया सरस स्वरूप।
किल्लोल करे सूर्य से , बिखरा मोहक रूप ।
बिखरा मोहक रूप , डाल बूंटो से निखरी ।
डोली नाची साथ , पवन सुरभित हो बिखरी ‌।
कहे कुसुम ये बात , गूंज मधुकर की चहकी  ।
मँजरी हुई निहाल ,रीझ सौरभ से महकी ।।

३० विषय-धड़कन
पावन ये शृंगार है , धड़कन का संगीत ।
बूझे कोई प्यार से , माँ ही ऐसा गीत ।
माँ ही ऐसा गीत , कंठ में मधुर समाई ।
जीवन का आधार , पूर्व भव पुण्य कमाई ।
कहे कुसुम सँग प्रीत , झूम कर नाचे सावन ।
धात्री सम है कौन , पूर्ण पवित्र औ पावन ।।

३१ विषय - वीणा
वीणा तू तो नाम की , सब तारों का काम ।
काया ज्यों बिन प्राण के ,धरी रहे निष्काम ।
धरी रहे निष्काम , नही कुछ सुर है तुझ में ।
नाम मधुरिमा झूठ , सत्व साधन है मुझ में ।
सुनो कुसुम की बात ,बात सन्मति से गुनणा ।
पड़े तार को चोट , कहें मृदु माया वीणा।।

३२ विषय-नैतिक
गहरे इसके भाव हैं ,अर्थ समेटे गूढ़ ।
नैतिक गहरा शब्द है , समझ न पाए मूढ़ ।
समझ न पाए मूढ़ , हँसी में ठोकर मारी  ।
करता भ्रष्टाचार  , छोड़ नैतिकता सारी ।
कहे कुसुम ये बात  , रहे प्रज्ञा के पहरे ।
सन्मति सद्व्यवहार , रखो अंतस में गहरे ।।

कुसुम कोठारी।

Wednesday, 22 January 2020

आह्वान

नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के जन्मदिवस पर देशवासियों को आह्वान ।

विजय शंख का नाद था गूंजा
वीरों की हुंकार भी गरजी
देेशभक्ति का भाव जगाया
मिटा के सब की खुदगर्जी

आह्वान है आज सभी को
उठो चलो प्रमाद को त्यागो,
मां जननी अब बुला रही
वीर सपूतों अब तो जागो ।

आंचल मां का तार हुवा
बाजुु है अब लहुलुहान,
क्या मां की आहुती होगी?
या फिर देना है निज प्राण ।

घात लगाये जो बैठे थे 
खसोट रहे वो खुल्ले आम
धर्म युद्ध तो लड़ना होगा
पीड़ा भोग रही आवाम ।

पाप धरा का हरना होगा ,
आज करो ये दृढ़ उदघोष
जागो तुम और जगा दो
जन-जन के मानस में जोश ।

             कुसुम कोठारी ।

Saturday, 18 January 2020

कुसुम की कुण्डलियाँ-७

कुसुम की कुण्डलियाँ-७

२५विषय :- कोयल
छाया अब मधुमास है , गाये कोयल गीत ,
कितनी मीठी रागिनी ,  घर आए मनमीत ,
घर आए मनमीत , मधुमास मधु भर लाता ,
पुष्पित है हर डाल , भ्रमित भौंरा भरमाता ,
कहे कुसुम ये बात , आज बसंत मुस्काया ,
तरुण हुवा हर पात , बाग पर यौवन छाया।।

२६विषय :- अम्बर
बरसे है शशि से विभा  ,  वल्लरियों के पात ,
अम्बर निर्मल कौमुदी  ,  सजा हुआ है गात ,
सजा हुआ है गात  ,  विटप मुख चूम रही है ,
सरित सलिल रस घोल ,मधुर स्वर झूम रही है,
विधु का वैभव दूर  ,  निरख के चातक तरसे ,
जलते तारक दीप ,  धरा पे ज्योत्स्ना बरसे ।।

२७विषय-अविरल
अविरल घन काले घिरे  ,  छाये छोर दिगंत ,
भ्रम है या जंजाल है  ,  दिखे न कोई अंत ,
दिखे न कोई अंत ,  गूढ़ गहराती मिहिका ,
बची न कोई आस , त्रास में घिरी  सारिका ,
कहे कुसुम ये बात ,  राह कब होगी अविचल ,
सुनें आम की कौन ,  हुआ जग जीवन अविरल ।

२८ विषय-  सागर
सागर में उद्वेग है , सूर्य मिलन की चाह ,
उड़ता बन कर वाष्प वो , चले धूप की राह ,
चले धूप की राह , उड़े जब मारा मारा ,
मृदु होता है फिर , झेल प्रहार बेचारा ,
कहे कसुम ये बात ,सिंधु है जल का आगर ,
कुछ पल गर्वित मेघ , फिर जा मिलता सागर ।।

Thursday, 16 January 2020

अँधा बांटे रेवड़ी

अँधा बांटे रेवड़ी

सर्वेश्वर दयाल पिछले चार साल से कमर कस कर नगरपालिका में ,जन भूमि आवंटन (गरीब तबके के लिए जिनके पास रहने भर को घर नहीं, खेती की जमीन तो दूर की बात ) के लिए ऊपरी संस्थाओं में अर्जी देना चक्कर लगाना नेताओं से बातचीत करना, यहां तक जी हजूरी भी करने में कोई परहेज नही था।
शाम को चौपाल पर सभी जरुरत मंद आ जुटते थे और सर्वेश्वर दयाल जी की खूब वाह वाही होती। उनके इस निस्वार्थ सेवा के लिए सभी गदगद हो उन्हें साधुवाद देते और देवता रूप समझ उनके पांव छूते थे।
आखिर उनकी लगन रंग लाई।ऊपर से आदेश आ गये कि 25 अर्जी स्वीकारी जाएगी ,सभी जरूरत मंद  गवाह के हस्ताक्षर के साथ अपनी अर्जियां डाल दें।
सर्वेश्वर जी ने बढ़ चढ़ कर सभी को अर्जी लिखने में मदद की ।
आज गाँव में कई पक्के मकान दिखने लगे ,कुछ छोटे मकान बड़े हो गये ,छोटे खेत बड़े हो गये ,
आज सर्वेश्वर दयाल का सारा कुनबा गाँव में सबसे प्रतिष्ठित और सबसे स्थापित है ।
आखिर सर्वेश्वर दयाल ने अपनी अथक मेहनत से अपने पच्चीस सम्बंधियों को (जिनमें से कई दूसरे गाँवो से भी बुलाए गये थे)
जमीन दिलवा दी किसी को खेती की और किसी को घर की ।
जो साँझ ढ़ले सर्वेश्वर बाबू के गुणगान करते थे, आज कल माथा पीटते हुए एक आलाप लिए घूम रहे हैं ,आप भी गा सकते हैं "अंँधा बांटे रेवड़ी फिर-फिर अपनों को देय"।

पिपासा

पिपासा

कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ,
तृषा, प्यास बस जीवन छल है
क्षण -क्षण छलता जाता है ।

अदम्य पिपासा अँतर तक जो
गहरे उतरी जाती है,
दिखलाती कैसे ये सपने
पूर्ण हुवे भरमाती है,
जीवन मूल्यों से भी गिराता
अकृत्य भी करवाता है,
कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ।।

द्वेष, ईर्ष्या की सहोदर है
उच्च भाव भुलवाती है,
तृष्णा मोह राग की जाई
बंधन जकड़े जाती है ,
निज स्वरूप को जिसने समझा
सत-पथ राह लुभाता है,
कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ।।

  कुसुम कोठारी

Wednesday, 15 January 2020

परिवर्तित जलवायु और पर्यावरण

परिवर्तित जलवायु देखकर,
आज निहत्थे खड़े सभी ।

जो मेघों का सँतुलन बिगड़ा
नदियां हो गई कृष काय
सूरज तपता ब्रह्म तेज सा
धरती पुरी जलती जाय ।

धधक-धधक कर जलते उपवन
कंक्रीटों का जाल तभी
परिवर्तित जलवायु देखकर
आज निहत्थे खड़े सभी।

हिमनद सारे पिघल रहे हैं
दरक रहे हैं धरणीधर
सागर बंधन तोड़ रहे हैं
नीर स्तर भी हुआ अधर ।

क्या होगा जाने जग जीवन
संकट में है जान अभी
परिवर्तित जलवायु देखकर
आज निहत्थे खड़े सभी।

बेमौसम बरसातें ओले
प्रलयंकारी बाढ़  बढ़ी
खेती बंजर सूखी धरती
असंतुलन की धार चढ़ी।

पर्यावरण की हानि होती
सुधरे ना हालात कभी
परिवर्तित जलवायु देखकर
आज निहत्थे खड़े सभी ।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 14 January 2020

कुसुम की कुण्डलियाँ ६

कुसुम की कुण्डलियाँ -६

२१
विषय-कुनबा
छोटा कुनबा हो चले  ,  रहे प्रेम संचार  ,
एक दूसरे के लिए  ,  हो मन में बस प्यार  ,
हो मन में बस प्यार  ,  करें बातें हितकारी ,
सजता इससे धाम  ,  सदा हो मंगलकारी ,
सुनो कुसुम की बात ,भाव न हो कभी खोटा ,
अन्तर तक हो प्रेम  ,  सदन हो चाहे छोटा  ।।

२२
विषय-पीहर
पारस पीपल पुष्प से  ,  पंथ के हैं प्रमाण ,
पिता पितामह पूज्य है  , पीहर प्रेम प्रणाम ,
पीहर प्रेम प्रणाम , पालते पालक पीड़ा ,
पलक पसारे प्राण ,प्रथम प्रधान का बीड़ा ,
पले कुसुम परिवार , प्रीत प्रबंध हो पावस ,
परस  प्रेम परिणाम ,प्रथम प्रतिपादित पारस।।

२३
विषय- पनघट
पनघट आई गूजरी , चंदन महका आज ,
बहकी बहकी चाल है , आँखों में है लाज ,
आंँखों में है लाज  ,  झूम मन नाचे गाए ,
द्रुम छेड़े नव राग , श्याम ज्यों बँसी बजाए ,
कहे कुसुम ये राज , पवन सँवारे केश लट ,
निज उलझा है जाल,देख ललिता को पनघट।

२४
विषय-सैनिक
सैनिक मेरे देश का  ,  सदा हमारी  आन ,
देश  सुरक्षा वारता  , अपना तन मन प्राण ,
अपना तन मन प्राण  , पहनकर रखता वर्दी ,
करता है कर्तव्य  ,  कड़क हो चाहे सर्दी ,
कहे कुसुम हो धन्य  ,  कार्य उनका ये दैनिक ,
बनता पहरेदार  ,  देश का रक्षक सैनिक ।।

कुसुम कोठारी।

Monday, 13 January 2020

नमी दुल्हन और उषा सौंदर्य

नई दुलहन और उषा सौन्दर्य   
         
दुल्हन ने अपनी तारों जड़ी चुनरी समेटी,
नींद से उठ कर
चाँद जैसे आभूषण
सहेज रख दिये संदूक में,
बादलों से निकलता भास्कर
ज्यों उषा सी नवेली
दुल्हन का चमकता चेहरा ,
फैलती लालीमा
जैसे  मांग का दमकता सिंदूर,
धीरे-धीरे धूप धरा पर यों बिखरती
ज्यों कोई नवेली लाज भरे नयन लिए ,
मन्द कदम उठाती
अधर-अधर आगे बढती ,
पंक्षियों की मनभावन चिरिप-चिरिप
यूं लगे मानो धीर-धीरे बजती
पायल के रुनझुन की स्वर लहरी,
ओस से भीगे फूल
जैसे अपनो का साथ छुटने की
नमी आंखों में,
खिलती कलियाँ
ज्यों मंद हास
नव जीवन की शुरुआत का उल्लास।

            कुसुम कोठारी ।

Friday, 10 January 2020

तिमिर के पार जिजीविषा

तिमिर के पार जिजीविषा

दूर तिमिर के पार
एक आलौकिक
ज्योति-पुंज है,
एक ऐसा उजाला,
जो हर तमस  पर भारी है
अनंत सागर में फसी
नैया हिचकोले खाती है,
दूर-दूर तक कहीं
प्रतीर नजर नही आते हैं,
प्यासा नाविक
नीर कीबूंद को तरसता है,
घटाऐं घनघोर,
पानी अब बरसने को
विकल है ,
अभी सैकत से अधिक
अम्बू की चाहत है,
पानी न मिला तो प्राणों का
अविकल गमन है,
प्राण रहे तो किनारे
जाने का युद्ध अनवरत है,
लो बरस गई बदरी
सुधा बूंद सी शरीर में दौड़ी है ,
प्रकाश की और जाने की
अदम्य प्यास जगी  है ,
हाथों की स्थिलता में
अब ऊर्जा  का संचार है,
समझ नही आता
प्यास बड़ी थी या
जीवन बड़ा है,
तृषा बुझते ही
फिर जीवन के लिये
संग्राम शुरू है,
आखिर वो तमिस्त्रा के
उस पार कौन सी प्रभा है ,
ये कैसी जिजीविषा है।

       कुसुम कोठारी।

Thursday, 9 January 2020

कुसुम की कुण्ड़लियाँ-५

कुसुम की कुण्डलियाँ ५

१७ -विषय- बाबुल

बाबुल तेरा अंगना ,छोड़ चली हूं आज ,
हाथ में मेंहदी रची , आंखों में है लाज
आंखों में है लाज , सजा सपने मतवाली ,
आज चली परदेश  ,लाड़ से पलने वाली
कहे कुसुम ये बात , ब्याह कर भेजा काबुल ,
पूछे बेटी आज  ,दूर क्यों भेजा बाबुल।

१८-विषय- भैया

राखी भेजी प्रेम से  ,प्रेम भरा उपहार।
भैया यादों में रखो ,गूंथ पुष्प ज्यों हार।
गूंथ पुष्प ज्यों हार ,  सहेजे बहना तेरी
रखना मन में प्यार , यही विनती है मेरी,
कहे कुसुम ये बात , एक उपवन के पाखी
बहता है अनुराग  ,भाव है सुंदर राखी।

१९ -विषय-बहना

बहना कहे उदास हो , छूटा अब परिवार  ,
मां बाबा की लाडली  ,  चली दूसरे द्वार ,
चली दूसरे द्वार  ,  भरा नयनों में पानी ,
भ्राता  कहे भर अंक  , रहे तू  बनके रानी ,
मैं तो तेरे साथ  ,  मान तू मेरा कहना  ,
यही जगत की रीत , खुशी से रह तू बहना ।

२० -विषय-सखियाँ

सखियाँ सुख की खान है , मीठा मधु रस पान ,
हिलमिल हँसती खेलती  , एक एक की प्राण ,
एक एक की प्राण ,  खुशी में झूमे नाचे
करे कुंज में केलि , हाथ सुरंग रँग राचे ,
कहे कुसुम ये बात  ,रखो  पुतली भर अखियाँ,
ये जीवन का सार , जगत में प्यारी सखियाँ। ।।
कुसुम कोठारी।

Wednesday, 8 January 2020

खाके चोट पत्थरों की

खाके चोट पत्थरों की

गिरे हैं पहाड़ों से संभल जायेंगे तो क़रार आयेगा।
खाके चोट पत्थरों की संवर जायेंगे तो क़रार आयेगा।

नीले पहाडों से उतर ये जल धारे गिरते हैं चट्टानों पर
झरने बन बह निकले कल-कल तो क़रार आयेगा।

कहीं घोर शोर ऊंचे नीचे, फूहार मोती सी नशीली ,
विकल बेचैन  ,मिलेगें सागर से तो क़रार आयेगा।

जिससे मिलने की लिये गुज़ारिश चले अलबेले
पास मीत के पहुंच दामन में समा जायेंगे तो क़रार आयेगा।

सफ़र पर निकले दीवानें मस्ताने गुज़र ही जायेंगे ,
लगाया जो दाव वो जीत जायेंगे तो क़रार आयेगा।

इठलाके चले बन नदी फिर बने आब ए- दरिया
जा मिलेगें ये जल धारे समन्दर से तो क़रार आयेगा।

                 कुसुम कोठरी।

Tuesday, 7 January 2020

गीत:-जली बाती

जली बाती खिले सपने

लहरा साँझ का आँचल श्याम
जली बाती ,खिले सपने।।

भाल निशा के चाँद चमकता
उपवन का कोना महका
खिली-खिली थी रजत चाँदनी
तारों का सुंदर डेरा
आशा पास सभी हो अपने
जली बाती खिले सपने।।

जीवन हो मधुबन सा सुंदर
भ्रमर गूँजाते चहुँ दिशा 
गूँजे  कोकिल कूक मनोहर
कमल खिले ताल-तलैया
मधुरिमा सौरभ लगी बहने
जली बाती खिले सपने।।

आँचल में तारे अब भरके
चारों औ उजियारे थे
क्षितिज कोर सिंदूर भरे से
मन मयूर भी नाचे थे
सतरंगी फाग लगा रचने
जली बाती खिले सपने ।।

लहरा साँझ का आँचल श्याम
जली बाती ,खिले सपने।।

       कुसुम कोठारी।

Sunday, 5 January 2020

कुसुम की कुण्डलियाँ -४

कुसुम की कुण्डलियाँ-४

13 जीवन
जीवन जल की बूंद है,क्षण में जाए छूट,
यहां सिर्फ काया रहे , प्राण तार की टूट ,
प्राण तार की टूट, धरा सब कुछ रह जाता
जाए खाली हाथ ,बँधी मुठ्ठी तू आता ,
कहे कुसुम ये बात , सदा कब रहता सावन ,
सफल बने हर काल, बने उत्साही जीवन ।।

14 उपवन
महका उपवन आज है, निर्मेघ नभ अतुल्य
द्रुम पर पसरी चाँदनी ,दिखती चाँदी तुल्य
दिखती चाँदी तुल्य ,हिया में प्रीत जगाती,
भूली बिसरी याद, चाह के दीप जलाती
पहने  तारक वस्त्र , निशा का आँगन चमका ,
आये साजन द्वार , आज सुरभित मन महका ।।

15 कविता
रूठी रूठी शल्यकी ,गीत लिखे अब कौन ,
कैसे मैं कविता रचूं  , भाव हुए  हैं मौन  ,
भाव हुए  हैं मौन  , नही अवली में मोती
नंदन वन की गंध , उड़ी उजड़ी  सी रोती ,
कहे कुसुम ये बात ,बिना रस लगती  झूठी ,
सुनो सहचरी मूक ,  नहीं रहना तुम रूठी ।।

16 ममता
ममता माया छोड़ दी, छोड़ दिया संसार ,
राग अक्ष से बँध गया, नहीं मोक्ष आसार,
नही मोक्ष आसार , रही अन्तर बस आशा  ,
अपना आगत भूल ,  फिरे शफरी सा प्यासा ,
कहे कुसुम ये बात  हृदय में पालो समता
रहो सदा निर्लिप्त ,रखो निर्धन से ममता।।

कुसुम कोठारी।।

Thursday, 2 January 2020

दुआ -ए-हयात

जोखिम की मानिंद हो रही बसर है ज़िंदगी ,
देखो तो खूबसूरत सा एक भँवर है ज़िदगी ।।

खिल के मिलना है धूल में किस्म-ए-नक्बत,
जी लो जी भर माना ख़तरे की डगर है ज़िंदगी।।

बरसता  रहा  आब-ए-चश्म  रात भर बेज़ार ,
भीगी  हुई  चांदनी  का  शजर  है ज़िंदगी ।।

मिलने को तो मिलती रहे दुआ-ए-हयात रौशन ,
उसका करम  है उसको नज़र है ज़िंदगी ।।

माना  डूबती  है कश्तियां किनारों  पर भी ,
डाल दो  लहरों  पर जोखिम  का सफर है जिंदगी ।।

                कुसुम कोठारी ।

नक्बत = दुर्भाग्य, विपदा
आब ए चश्म =आंसू
शजर =पेड़

लो आया नया विहान

लो आया नया विहान
प्रकृति लिये खड़ी कितने उपहार,
चाहो तो समेट लो अपनी झोली में
अंखियों की पलकों में ,
दिल की कोर में ,साँसों की सरगम में ।
लो आया नया विहान.…

देखो उषा की सुनहरी लाली कितनी मन भावन ,
उगता सूरज ,ओस की शीतलता
पंक्षियों की चहक ,फूलों की महक
भर लो अंतर तक ,कलियों की चटक ।
लो आया नया विहान ।

कोयल की कुहूक मानो कानो में मिश्री घोलती ,
भंवरे की गुंजार ,नदियों की कल-कल,
सागर का प्रभंजन ,लहरों की प्रतिबद्धता
जो कर्म का पाठ पढाती बंधन में रह के भी ।
लो आया नया विहान।

झरनों का राग,पहाड़ों की अचल दृढ़ता ,
सुरमई साँझ का लयबद्ध संगीत ,
नीड़ को लौटते विहंग ,अस्त होता भानु ,
निशा के दामन का अंधेरा कहता
लो आया नया विहान .....

गगन में इठलाते मंयक की उजास भरती रोशनी ,
किरणों का चपलता से बिखरना ,
तारों की टिम - टिम ,दूर धरती गगन का मिलना
बादलों की हवा में उडती डोलियाँ ।
लो आया नया विहान ।

बरसता सावन ,मेघों का मंडराना,
तितलियों  की सुंदरता,न जाने क्या-क्या?
 जिनका कोई मूल्य नही चुकाना
पर जो अनमोल  है' अभिराम भी ।
लो आया नया विहान।।

            कुसुम कोठारी ।