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Thursday, 16 January 2020

पिपासा

पिपासा

कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ,
तृषा, प्यास बस जीवन छल है
क्षण -क्षण छलता जाता है ।

अदम्य पिपासा अँतर तक जो
गहरे उतरी जाती है,
दिखलाती कैसे ये सपने
पूर्ण हुवे भरमाती है,
जीवन मूल्यों से भी गिराता
अकृत्य भी करवाता है,
कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ।।

द्वेष, ईर्ष्या की सहोदर है
उच्च भाव भुलवाती है,
तृष्णा मोह राग की जाई
बंधन जकड़े जाती है ,
निज स्वरूप को जिसने समझा
सत-पथ राह लुभाता है,
कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
बूंद - बूंद छलकाता है ।।

  कुसुम कोठारी

10 comments:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार शुक्रवार 17 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सखी , मुखरित मौन पर आना सदा अच्छा लगता है।
      मैं चर्चा पर उपस्थित जरूर दूंगी।

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  2. वाह बहुत अच्छा लिखा दी वास्तव में ही पिपासा शब्द के पूरे अर्थ उभर कर आए हैं

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    1. बहुत सा स्नेह आभार अनु आपकी सार्थक सराहना से रचना को अर्थ मिले और मुझे उत्साह और ऊर्जा।

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  3. वाह!!कुसुम जी ,बहुत खूब !

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  4. भावपूर्ण और प्रभावी रचना

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  5. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शनिवार (१८ -०१ -२०२०) को "शब्द-सृजन"- 4 (चर्चा अंक -३५८४) पर भी होगी।
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ….
    -अनीता सैनी

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  6. बहुत सुन्दर लेखन, हमेशा की तरह प्रभावशाली विषय वस्तु को समाहित करती रचना। आपकी लेखनी को नमन है।

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  7. बेहद खूबसूरत अभिव्यक्ति।

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  8. जीवन मूल्यों से भी गिराता
    अकृत्य भी करवाता है,
    कैसा तृष्णा घट भरा-भरा
    बूंद - बूंद छलकाता
    वाह!!!
    बहुत ही लाजवाब सृजन

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