राजस्थान की होली के रंग और एक संस्मरण...
होली" एक रंगीन त्योहार है जो पूरे भारत वर्ष में उल्लास से मनाया जाता है। यह सभी भारतीयों के लिए एक आनंदमय उत्सव है।
पर अपने प्रांत की होली सभी के लिये मोहक असाधारण होती है वो भी बचपन की मधुर यादों के साथ।
उन दिनों राजस्थान के हर शहर की होली विशेष रंगीली होती थी।
एक महीने से चंग मृदंग और ढोलक बजने लगते सभी अपने काम निपटा कर चौक में जमा हो जाते अपने अपने मोहल्ले में अपने मित्र भायलों के साथ वाद्य की सुमधुर थाप के साथ फाग गाये जाते जो प्रायः पुरुष ही गाते
कई कई स्वांग रचते ,कितने रूप धरते ।पुरुष स्त्री दोनों किरदार निभाते नृत्य नाटिका खेली जाती। ऊपर छत छज्जों से औरतें बच्चे देखते। देर रात तक ऐसा चलता।
"फागण आयो फागणियों रंगा दे रसिया"...
(फागणियों एक तरह की रंग बिरंगी ओढनी)
होली आई रे फूलां री झोली झिरमटियोक ले।...
काजल भरियो कूंपलो पड्यो पलंग रे हेट कोरो काजलियो...
ढोला ढोल मजीरा बाजे...
नखरालो देवरियों....
और भी बहुत से गीत चंग की मस्ती में भांग का रंग, केशरिया ठंडाई भांग के बड़े (दाल भांग की पकौड़ी) भांग के बीड़े (पान)। मौसम का खुशनुमा मिजाज चढती मस्ती,बौराता फागुन।
बस एक महीना खूब रंगा रंग कार्यक्रम कभी गोठ (पिकनिक भोज) कभी सांस्कृतिक कार्यक्रम कभी ठंडाई नमकीन सब एक रंग में रंगे दिखते थे ।
सभी ऊंच नीच बैर विरोध सब एक बार किनारे जा बैठते।
वो भी क्या दिन सुहाने हुआ करते थे।
एक प्रसंग याद आ गया ।
उन दिनों नवविवाहिताओं की होली बहुत खास हुआ करती थी।
हर देवर भाभी से अबीर गुलाल फाग खेलता था और सारे मोहल्ले भर के देवर इकट्ठा हो नयी भाभी से होली खेलते।
भाभी अपने बचाव में पतले गीले तोलिये को बट कर एक कोड़ा बनाती और खुद को बचाने के लिए देवरों को पीटती।
उस कोड़े की मार से एक बार में देव दर्शन हो जाते ।
देवर कोड़े से बचकर भाभी को रंगते और भाभी दे दनादन कोड़े चलाती उसका साथ देने दो चार भाभीयां और जुट जाती।
हमारे ताऊजी के बेटे की शादी होली से 20 दिन पहले हुई भाभी पतली सींक जैसी ज्यादा देवर थे नही।
एक चचेरे भाई साहब थे बस।
वह होली खेल कर घर आये चाची ने कहा "भाभी से होली खेलने नही जायेगा?"
बोला "बस जा रहा हूं।"
चाची ने कहा "कोडे से बचाना खुद को"।
भाई बोले "इतनी दुबली सी तो हैं कौन सा कोड़ा चला पायेंगी"।
और चले शान से जाते जाते चावल के माड में रंग घोल साथ ले लिया।
आंगन में ताईजी बैठी थी उन्हें प्रणाम कर पूछा "भाभी कहां है।"
इधर हम सब बंदर सेना छत से झांक रहे थे ,सुरंगी होली देखने।
ताईजी बोली "उसे नही खेलनी होली "।
भाई ताव से बोले" कैसे नही खेलनी, इकलौता देवर हूं ,डरती हैं क्या?"।
तभी तक अचानक भाभी प्रकट हुई और उन्हीं का माड वाला बर्तन फुर्ती से उन्हीं पर उडेल दिया।
भाईजी की आंख बंद हुइ एक क्षण को, भौजाई का कोड़ा चला दना - दन।
भाईजी बचने के फिराक में भागे, पांव फिसला माड में चारों खाने चित ।
गिरे हुवे सिपाही पर वार करना भाभी ने भी सही नही समझा और बोली" बनासा ऊठो ,थोड़ा ताजा दम होलो, फिर खेलना होली।"
बड़ी मां हंसे जा रही थी बोली "अब छोड़ बिचारे को इतना तो कूट दिया, ला ठंडाई पिला और बादाम की बर्फी ले आ "।
आज्ञाकारी बिनणी चल दी। देवर जी अभी तक हायरे ओयरे कर ताईजी के पास ही नीचे बैठ गये।
भाभी तस्तरी में सजाकर बर्फी ठंडाई ले आई।
देवर जी खिसियाऐ से बर्फी कुतर रहे थे।
ऊधर हम ऊपर से खें खें कर हंस रहे थे तालियां पीटकर ।और भाईजी दांत दिखा रहे थे जैसे खुली चेतावनी एक एक को देख लूंगा।
वहाँ भाभी का फिर कमाल।
देवरजी के पीछे खड़े होकर एक बोतल पक्का रंग धीरे धीरे उनके बालों में उडेल दिया बडी सफाई से ,जिसे हम कोढिया रंग कहते थे ।
जो कि मजाल एक महीने से पहले उतर जाए।
और ताईजी होले होले होठों के अंदर से मुस्कुरा रही थी।
लंगडाते भाईजी घर आऐ और सीधा नहाने घुस गये हम सब ने अपने आप को मां चाची के पीछे छुपा रखा था।
, मार से बचने को।
और उधर भाईसाहब पानी पानी की गुहार .....हाय इतना रंग कहां से आ गया।
शायद ही आजतक फिर कभी भईया जी ने किसी भाभी से होली खेलने की कल्पना भी की हो।
कुसुम कोठारी।