Friday, 29 March 2019

सुनहरी किरणों के घुंघरू


सुनहरी किरणों के घुंघरू

उषा ने सुरमई शैया से
अपने सिंदूरी पांव उतारे
पायल छनकी
बिखरे सुनहरी किरणों के घुंघरू
फैल गये अम्बर में
उस क्षोर से क्षितिज तक
मचल उठे धरा से मिलने
दौड़ चले आतुर हो
खेलते पत्तियों से
कुछ पल द्रुम दलों पर ठहरे
श्वेत ओस को
इंद्रधनुषी बाना पहना चले
नदियों की कल कल में
स्नान कर पानी में रंग घोलते
लाजवन्ती को होले से
छूते प्यार से
अरविंद में नव जीवन का
संदेश देते
कलियों फूलों में
लुभावने रंग भरते
हल्की बरसती झरनों की
फुहारों पर इंद्रधनुष रचते
छन्न से धरा का
आलिंगन करते,
जन जीवन को
नई हलचल देते
सारे विश्व पर अपनी
आभा छिटकाते
सुनहरी किरणों के घुंघरू।

       कुसुम कोठारी।

आँसू क्षणिकाएं

आँसू क्षणिकाएं

बह-बह नैन परनाल भये
दर्द ना बह पाय
हिय को दर्द रयो हिय में
कोऊ समझ न पाय।
~~
अश्क  बहते  गये
हम दर्द  लिखते  गये
समझ न  पाया  कोई
बंद किताबों में दबते गये ।
~~
रोने वाले सुन आंखों में
आंसू ना लाया कर
बस चुपचाप रोया कर
नयन पानी देख अपने भी
कतरा कर निकल जाते हैं।
~~
दिल के खजानों को
आंखों से न लुटाया कर
ये वो दौलत है जो रूह में
महफूज़ रहती है।
~~
दर्द को यूं सरेआम न कर
कि दर्द अपना नूर ही खो बैठे।
~~
आंखों  से मोती गिरा
हिय को हाल बताय।
लब कितने खामोश रहे
आंखें हाल सुनाय।
~~
   कुसुम कोठारी।



Tuesday, 26 March 2019

आत्म बोध

आत्म बोध

      निलंबन हुवा निलाम्बर से
         भान हुवा अच्युतता का
                  कुछ क्षण
          गिरी वृक्ष चोटी ,इतराई
         फूलों पत्तों दूब पर देख
           अपनी शोभा मुस्काई ।

        गर्व से अपना रूप मनोहर
         आत्म प्रशंसा भर लाया
       सूर्य की किरण पडी सुनहरी
        अहा शोभा द्विगुणीत हुई !
        भाव अभिमान के थे अब
                   उर्धवमुखी।

                हा भूल गई " मैं "
          अब निश्चय है अंत पास में
   मैं तुषार बूंद नश्वर,भूली अपना रूप
         कभी आलंबन अंबर का
      कभी तृण सहारे सा अस्तित्व
        पर आश्रित नाशवान शरीर         
                        या
             "मैं "आत्मा अविनाशी
          भूल गई क्यों शुद्ध स्वरूप
                      अपना।

                कुसुम कोठारी।

Saturday, 23 March 2019

कैसो री अब वसंत सखी

कैसो री अब वसंत सखी ।

जब से श्याम भये परदेशी
नैन बसत सदा मयूर पंखी
कहां बस्यो वो नंद को प्यारो
उड़ जाये मन बन पाखी
कैसो री अब वसंत सखी।

सुमन भये सौरभ विहीन
रंग ना भावे सुर्ख चटकीले
खंजन नयन बदरी से सीले
चाँद लुटाये चांदनी रुखी
कैसो री अब वसंत सखी।

धीमी बयार जीया जलाये
फीकी चंद्र की सभी कलाएं
चातकी जैसे राह निहारूं
कनक वदन भयो अब लाखी
कैसो री अब वसंत सखी।

झूठो है जग को जंजाल
जल बिंदु सो पावे काल
स्नेह विरहा सब ही झूठ
आत्मानंद पा अंतर लखि
ऐसो हो अब वसंत सखी।

       कुसुम कोठारी ।

लाखी - लाख जैसा मटमैला
लखि-देखना ।

Friday, 22 March 2019

ऋतु वसंत


ऋतु वसंत

देखो धरा पर कैसी
निर्मल चांदनी छाई है
निर्मेघ गगन से शशि
विभा उतर के आयी है ।

फूलों पर कैसी भीनी
गंध सौरभ लहराई  है
मलय मंद मधुर मधुर
मादकता ले आयी है ।

मंजु मुकुर मौन तोड़ने
मन वीणा झनकाई है
प्रकृति सज रूप सलज
सरस सुधा सरसाई है ।

हरित धरा मुखरित शाखाएं
कोमल सुषमा बरसाई है
वन उपवन ताल तड़ाग
वल्लरियां मदमाई है।

कुसुम कलिका कल्प की
उतर धरा पर आयी हैं
नंदन कानन उतरा है
लो, वसंत ऋतु आयी है।

       कुसुम कोठारी।

Thursday, 21 March 2019

कविता सिर्फ शब्द नही होती


आज विश्व कविता दिवस।

विश्व कविता दिवस
( World Poetry Day) प्रतिवर्ष २१ मार्च को मनाया जाता है। यूनेस्को ने इस दिन को विश्व कविता दिवस के रूप में मनाने की घोषणा वर्ष 1999 में की थी जिसका उद्देश्य कवियों और कविता की सृजनात्मक महिमा को सम्मान देने के लिए था।


कविता सिर्फ शब्द नही होती,           
होती है ,अलसुबह की ताजगी         
शबनम की नमी                     
फूलों की खुशबू
चाँदनी की शीतलता
फाल्गुन की हल्की बयार
मन का पीघलता शीशा
सूरज की तपिस
टूटते अरमान
पूरी होती आरजू
अनकही बातें
खामोश सदायें
रंगीन ख्वाब
बिखरती संवरती जिंदगी
कविता कोई शब्द नही
कि पढ़ो
और आगे बढ़ो
हर कविता में एक आत्मा होती है
कविता सिर्फ़........

              कुसुम कोठारी ।

Wednesday, 20 March 2019

फाग सुनाये होली


फाग सुनाये होली

रंग और खुशी जो ले के आयी
सब कहते हैं होली
आ हमसफर तू राह बना दे
मैं भी साथ हो  ली
रुख पर तूने जो रंग डाला
उस दिन तेरी हो  ली
आ सब गिले शिकवे भुला दें
खूब खेलें हम होली
झनक झनक पैजनीया छनके
नाच नचाये होली
रंग गुलाल की इस महफिल में
फाग सुनाये होली
तन सूखा मन रंग जाए
ऐसी स्नेह की होली
चलो चलें हम आज सभी के
संग मनायें होली ।

          कुसुम कोठारी।

Tuesday, 19 March 2019

तू कैसो रंगरेज ओ कान्हा


तू कैसो रंगरेज ओ कान्हा

ना खेरूं होरी तोरे संग सांवरिया
बिन खेले तोरे रंग रची मैं
कछु नाही मुझ में अब मेरो
किस विधि चढ्यो रंग छुडाऊं
तू कैसो रंगरेज ओ कान्हा
कौन देश को रंग मंगायो
बिन डारे में हुई कसुम्बी
तन मन सारो ही रंग ड़ार् यो
ना खेरूं होरी तोरे संग.....

         कुसुम कोठारी ।

Sunday, 17 March 2019

हाइकु, प्रहार चोट वार


( हाइकु )
चोट ~प्रहार ~वार।

ऐसा प्रहार
ना हाथ  हथियार
वाणी की चोट।

वायु की चोट
वारिध डावाडोल
बरसा पानी।

मन उदास
प्रहार करे घन
न आये कंत।

वार गहरा
झेल ना पाया मन
टूटा विश्वास।

चोट पे चोट
लोहे से कनक पे
दे दनादन।

कुसुम कोठारी

हाइकु जापानी काव्य शास्त्र की सबसे छोटी विधा है जो अब भारत में बहुत मनोयोग से लिखी जा रही है  सत्रह (17) वर्णों में लिखी जाने वाली सबसे छोटी कविता है। इसमें तीन पंक्तियाँ रहती हैं। प्रथम पंक्ति में 5 वर्ण दूसरी में 7 और तीसरी में 5 वर्ण रहते हैं।

Saturday, 16 March 2019

विरह वेदना राधाजी की

विरह वेदना राधाजी की

आज राधा की सूनी आंखें
यूं कहती सांवरिया
जाय बसो तुम वृंदावन
कित सूरत मैं काटूं उमरिया।

कहे कनाही एक हम हैं
कहां दो, जित तुम उत मैं
जित तुम राधे, उत हूं मैं
जल्दी आन मिलूंगा मैं ।

समझे न हिय की पीर
झडी मेह और बिजुरिया
कैसो जतन करूं सांवरिया
बिन तेरे बचैन है जियरा ।

बूंदों ने  झांझर झनकाई
मन की विरहा बोल गई
बांध रखा था जिस दिल को
बरखा बैरन खोल  गई ।

अकुलाहट के पौध उग आये
दाने जो विरहा के बोये
गुंचा गुंचा विरह जगाये
हिय में आतुरता भर आये।

विरह वेदना सही न जावे
कैसे हरी राधा समझावे
स्वयं भी तो समझ न पावे
उर वेदना से हैअघावे।

राधा हरी की अनुराग कथा
विश्व युगों युगों तक गावे गाथा

        कुसुम कोठारी।

Friday, 15 March 2019

धानी चुनर ओढ सखी


धानी चुनरी ओढ सखी

चंग मृदंग ढ़ोल ढमकत चहुँ ओर
फाल्गुन आयो मास सतरंगी
श्वास श्वास चंदन विलसत
नयनों मे केसर घुलत सुरंगी
ऋतु गुलाब आयी, मन भायी
धानी चुनरी ओढ सखी चल
होरी खेलन की मन आयी
अंबर गुलाल  छायो चहुँ ओर
तन मन भीगत  जाए
आली मिल फाग रस गाएं
होली मनाएं ।

          कुसुम कोठारी ।

राजस्थान की होली के रंग और एक संस्मरण

राजस्थान की होली के रंग और एक संस्मरण...

होली" एक रंगीन त्योहार है जो पूरे भारत वर्ष में उल्लास से मनाया जाता है। यह सभी भारतीयों के लिए एक आनंदमय उत्सव है।
पर अपने प्रांत की होली सभी के लिये मोहक असाधारण होती है वो भी बचपन की मधुर यादों के साथ।
उन दिनों राजस्थान के हर शहर की होली विशेष रंगीली होती थी।
एक महीने से चंग मृदंग और ढोलक बजने लगते सभी अपने काम निपटा कर चौक में जमा हो जाते अपने अपने मोहल्ले में अपने मित्र भायलों के साथ वाद्य की सुमधुर थाप के साथ फाग गाये जाते जो प्रायः पुरुष ही गाते
कई कई स्वांग रचते ,कितने रूप धरते ।पुरुष स्त्री दोनों किरदार निभाते नृत्य नाटिका खेली जाती। ऊपर छत छज्जों से औरतें बच्चे देखते। देर रात तक ऐसा चलता।

"फागण आयो फागणियों रंगा दे रसिया"...
(फागणियों एक तरह की रंग बिरंगी ओढनी)
होली आई रे फूलां री झोली झिरमटियोक ले।...

काजल भरियो कूंपलो पड्यो पलंग रे हेट कोरो काजलियो...

ढोला ढोल मजीरा बाजे...

नखरालो देवरियों....

और भी बहुत से गीत चंग की मस्ती में भांग का रंग, केशरिया ठंडाई भांग के बड़े (दाल भांग की पकौड़ी) भांग के बीड़े (पान)। मौसम का खुशनुमा मिजाज चढती मस्ती,बौराता फागुन।
 बस एक महीना खूब रंगा रंग कार्यक्रम कभी गोठ (पिकनिक भोज) कभी सांस्कृतिक कार्यक्रम कभी ठंडाई नमकीन सब एक रंग में रंगे दिखते थे ।
सभी ऊंच नीच बैर विरोध सब एक बार किनारे जा बैठते।
वो भी क्या दिन सुहाने हुआ करते थे।
एक प्रसंग याद आ गया ।
उन दिनों नवविवाहिताओं की होली बहुत खास हुआ करती थी।
हर देवर भाभी से अबीर गुलाल फाग खेलता था और सारे मोहल्ले भर के देवर इकट्ठा हो नयी भाभी से होली खेलते।

 भाभी अपने बचाव में पतले गीले तोलिये को बट कर एक कोड़ा बनाती और खुद को बचाने के लिए देवरों को पीटती।

उस कोड़े की मार से एक बार में देव दर्शन हो जाते ।
देवर कोड़े से बचकर भाभी को रंगते और भाभी दे दनादन कोड़े चलाती उसका साथ देने दो चार भाभीयां और जुट जाती।
हमारे ताऊजी के बेटे की शादी होली से 20 दिन पहले हुई भाभी पतली सींक जैसी ज्यादा देवर थे नही।
एक चचेरे भाई साहब थे बस।
वह होली खेल कर  घर आये चाची ने कहा "भाभी से होली खेलने नही जायेगा?"
बोला "बस जा रहा हूं।"
चाची ने कहा "कोडे से बचाना खुद को"।
 भाई बोले "इतनी दुबली सी तो हैं कौन सा कोड़ा चला पायेंगी"।
और चले शान से जाते जाते चावल के माड में रंग घोल साथ ले लिया।
आंगन में ताईजी बैठी थी उन्हें प्रणाम कर पूछा "भाभी कहां है।"
 इधर हम सब बंदर सेना छत से झांक रहे थे ,सुरंगी होली देखने।
ताईजी बोली "उसे नही खेलनी होली "।
भाई ताव से बोले" कैसे नही खेलनी, इकलौता देवर हूं ,डरती हैं क्या?"।
 तभी तक अचानक भाभी प्रकट हुई और उन्हीं का माड वाला बर्तन फुर्ती से उन्हीं पर उडेल दिया।
भाईजी की आंख बंद हुइ एक क्षण को, भौजाई का कोड़ा चला दना - दन।
भाईजी बचने के फिराक में भागे, पांव फिसला माड में चारों खाने चित ।
गिरे हुवे सिपाही पर वार करना भाभी ने भी सही नही समझा और बोली" बनासा ऊठो ,थोड़ा ताजा दम होलो, फिर खेलना होली।"
बड़ी मां हंसे जा रही थी बोली "अब छोड़ बिचारे को इतना तो कूट दिया, ला ठंडाई पिला और बादाम की बर्फी ले आ "।
आज्ञाकारी बिनणी चल दी। देवर जी अभी तक हायरे ओयरे कर ताईजी के पास ही नीचे बैठ गये।

भाभी तस्तरी में सजाकर बर्फी ठंडाई ले आई।
देवर जी खिसियाऐ से बर्फी कुतर रहे थे।
ऊधर हम ऊपर से खें खें कर हंस रहे थे तालियां पीटकर ।और भाईजी दांत दिखा रहे थे जैसे खुली चेतावनी एक एक को देख लूंगा।
वहाँ भाभी का फिर कमाल।
देवरजी के पीछे खड़े होकर एक बोतल पक्का रंग धीरे धीरे उनके बालों में उडेल दिया बडी सफाई से ,जिसे हम कोढिया रंग कहते थे ।
जो कि मजाल एक महीने से पहले उतर जाए।
और ताईजी होले होले होठों के अंदर से मुस्कुरा रही थी।

लंगडाते भाईजी घर आऐ और सीधा नहाने घुस गये हम सब ने अपने आप को मां चाची के पीछे छुपा रखा था।
, मार से बचने को।
और उधर भाईसाहब पानी पानी की गुहार .....हाय इतना रंग कहां से आ गया।
शायद ही आजतक फिर कभी भईया जी ने किसी भाभी से होली खेलने की कल्पना भी की हो।
                                   कुसुम कोठारी।

Thursday, 14 March 2019

जीवन के रंग - क्षणिकाएं

क्षणिकाएं

यूं उतंग शिखरों पर
बसेरे थे जिनके
आज जहाँ में
नामो निशां नहीं उनके।
~~~~~~~~~~~
गुमान जो आईने को था
सब बिखर गया
देख के सूरत गुलनार की
सारा भ्रम उतर गया ।
~~~~~~~~~~~
निशां कदमों के कल
आंधियां उडा ले जायेगी
कुछ यादें ही दिलों में
बस शेष रह जायेगी।

कुसुम कोठारी।

Tuesday, 12 March 2019

तितली तेरे रंग


तितली तेरे रंग

चहुँ ओर नव किसलय शोभित
बयार बसंती मन भाये,
देख धरा का गात चम्पई
उर में राग, मोह जगाये,
ओ मतवारी चित्रपतंगः
तुम कितनी मन भावन हो,
कैसा सुंदर रूप तुम्हारा
कैसे मन  लुभावन हो,
वन माली करता जतन
रात दिन फूलों की रखवाली करता,
 पर तुम कितनी चतुर सुजान
आंखों के काजल के जैसे
चुरा ले जाती सौरभ सुमनों से,
चहुँ ओर विलसत पराग दल
पर ओ रमती ललिता  तुम,
थोड़ा-थोडा लेती  हो
नही मानव सम लोभी तुम,
संतोष धन से पूरित हो
तित्तरी रानी फूलों सी सुंदर तुम
फिर भी फूल तुम्हें भरमाते
प्रकृति बदल बदल कर
सजती  रूप हर मौसम,
पर तुम्हारा  सुंदर गात
इंद्रधनुष के रंग सात,
मधुर पराग रसपान कर
उडती रहती पात पात।।

   कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 10 March 2019

मधुरस मनभावन होली मनाएं 

मधुरस मनभावन होली मनाएं

आवन आतुर मधुमास सखी पवन झकोरा खाए
ऐसो  सुंदर  चाँद  गगन पर  बादल डोली सजाए

छाई  फागुन  रुत मनभावन पात- पात मुस्काए
अली भ्रमित हो डोले व्याकुल कोयल गीत सुनाए

स्वर्णिम सूर्य उदय मुलकित, अन्न धन लाभ बधाए
मां लक्ष्मी मां  सरस्वती  वरदहस्त रखन को आए

प्राणी मात्र हृदय तल बसे सदा सुंदर भाव सुहाए
पर हित खातिर स्नेह बसे उर में अंतर  मन हर्षाए

सभी पुराने बैर  भूलादें मन में प्रेम ज्योति जलाएं
स्नेह प्रेम की सुंदर मधुरस मनभावन होली मनाएं।

                    कुसुम कोठारी ।



Friday, 8 March 2019

बन तस्वीर संवरी हूं मैं

हार्दिक शुभकामनाएं

हां कतरा कतरा पिघली हूं मैं
फिर सांचे सांचे ढली हूं मैं
हां जर्रा जर्रा बिखरी हूं मैं
फिर बन तस्वीर संवरी हूं मैं 
अपनो को देने खुशी
अपनो संग चली हूं मैं
अपना अस्तित्व भूल
सब का अस्तित्व बनी हूं मैं
कुछ हाथ आंधी से बचा रहे थे
तभी रोशन हो शमा सी जली हूं मैं
छूने को  उंचाइयां
रुख संग हवाओं के बही हूं मैं।

           कुसुम कोठारी।

Wednesday, 6 March 2019

फाग पर ताँका

फाग पर ' ताँका 'विधा की रचनाएँ ~

१. आओ री सखी
       आतुर मधुमास
       आयो फागुन
       बृज में होरी आज
       अबीर भरी फाग।

२. शाम का सूर्य
       गगन पर फाग
       बादल डोली
      लो सजे चांद तारे
      चहका मन आज।

३. उड़ी गुलाल
       बैर भूलादे मन
       खेलो रे खेलो
       सुंदर मधुरस
       मनभावन फाग ।
               कुसुम कोठारी ।


ताँका (短歌) जापानी काव्य की कई सौ साल पुरानी काव्य विधा है। इस विधा को नौवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी के दौरान काफी प्रसिद्धि मिली। उस समय इसके विषय धार्मिक या दरबारी हुआ करते थे। हाइकु का उद्भव इसी से हुआ।

इसकी संरचना ५+७+५+७+७=३१ वर्णों की होती है।

Tuesday, 5 March 2019

नशेमन इख़लास

नशेमन इख़लास

ना मंजिल ना आशियाना पाया
वो  यायावर सा  भटक गया ।

तिनका तिनका जोडा कितना
नशेमन इ़खलास का उजड़ गया ।

वह सुबह का भटका कारवाँ से
अब तलक सभी से बिछड़ गया ।

सीया एहतियात जो कोर कोर
क्यूं कच्चे धागे सा उधड़ गया ।

         कुसुम कोठारी।

Sunday, 3 March 2019

शाम का ढलता सूरज

शाम का ढलता सूरज

शाम का ढलता सूरज
उदास किरणें थक कर
पसरती सूनी मुंडेर पर
थमती हलचल धीरे धीरे
नींद के आगोश में सिमटती
वो सुनहरी चंचल रश्मियाँ
निस्तेज निस्तब्ध निराकार
सुरमई संध्या का आंचल
तन पर डाले मुँह छुपाती
क्षितिज के उस पार अंतर्धान
समय का निर्बाध चलता चक्र
कभी हंसता कभी  उदास
ये प्रकृति का दृश्य है या फिर
स्वयं के मन का परिदृश्य
वो ही प्रतिध्वनित करता
जो निज की मनोदशा स्वरूप है
भुवन वही परिलक्षित करता
जो हम स्वयं मन के आगंन में
सजाते हैं खुशी या अवसाद
शाम का ढलता सूरज क्या
सचमुच उदास....... ?

         कुसुम कोठारी ।