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Sunday, 31 July 2022

सावन का मृदु हास


 सावन का मृदु हास


शाख शाख बंधा हिण्डोला

ऋतु का तन भी खिला-खिला।


रंग बिरंगी लगे कामिनी 

बनी ठनी सी चमक रही

परिहास हास में डोल रही 

खुशियाँ आनन दमक रही

डोरी थामें चहक रही है

सारी सखियाँ हाथ मिला।।


रेशम रज्जू फूल बँधे हैं

मन पर छाई तरुणाई

आँखे चपला सी चपल बनी

गाल लाज की अरुणाई

मीठे स्वर में कजरी गाती 

कण-कण को ही गयी जिला।।


मेघ घुमड़ते नाच रहे हैं

मूंगा पायल झनक रही

सरस धार से पानी बरसा

रिमझिम बूँदें छनक रही

ऐसे मधुरिम क्षण जीवन को

सुधा घूंट ही गयी पिला ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 27 July 2022

गीतिका


 गीतिका /2212 1212


जब भाव शुद्ध मति भरे ।

चिर बुद्धि शुभ्र ही धरे।।


मन में सदा उजास हो।

परिणाम हो सभी खरे।।


हर कार्य पर हिताय हो।

तो क्यों रहें डरे-डरे।।


भर नीर के जलद सभी।

खा चोट वो तभी झरे।।


नव हो विकास कोंपले।

तो पात सब हरे हरे।।


सागर उफन-उफन रहा।

नाविक सधा हुआ तरे  ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 22 July 2022

गीतिका संभावनाएं.


 गीतिका 

संभावनाएं 

शासक स्वछंदी हो वहाँ प्रतिकार करना चाहिए।

उद्देश्य अपना लोक हित तो सत्य कहना चाहिए।।


बाधा न कोई रोक पाए यह अभी प्रण ठान लो।

जन हित करें उद्यम सदा तो फिर न डरना चाहिए।।


डर से कभी भी झूठ का मत साथ देना जान लो।

कोमल हृदय रख पर नहीं अन्याय सहना चाहिए।।


सब मार्ग निष्कंटक मिले ये क्यों किसी ने मान ली।

व्यवधान जो हो सामने तो धैर्य रखना चाहिए।


जब ज्ञान बढ़ता बाँटने से तो सदा ही बाँटना।

हाँ मूढ़ता के सामने बस मौन धरना चाहिए।


हर दिन सदा होता नहीं हैं एक सा यह मान लो।

दुख पीर छाया धूप है सम भाव रहना चाहिए।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 19 July 2022

किसान और बीज

किसान और बीज


चीर धरा की छाती को फिर

अंकुर जीवन धरता 

जगे स्फुरण लेता अँगड़ाई 

तभी उत्थान भरता।।


सीकर सर से  टपक रहा है 

श्याम घटा जल छलका 

अमृत झरा जब तृषित धरा पर 

बीज दरक के झलका 

लगता भू से निकला हलधर 

अर्ध ढ़का तन रहता।।


सभी परिस्थितियों का डटकर 

कर्मठ बुनते ताना 

बिन माता भी शिशु को पाले

धर्म स्वयं का जाना 

हल लेकर निकला किसान फिर

देह परिश्रम झरता।।


कठिन उद्योग करने वाले 

कहाँ कभी रोते हैं 

चीर फलक से धरा गोद में 

मोती वो बोते हैं 

उनका उद्यम रंग दिखाता 

आँचल धरा लहरता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Saturday, 16 July 2022

ओल्यूँ रो झरोखो


 आज एक राजस्थानी नवगीत।


ओल्यूँ रो झरोखो


ओल्यूँ खिड्क्याँ खड़़कावे हैं

आंक्या बांक्या झाँक रही

केई धोली केई साँवली 

खोल झरोखा ताँक रही।


खाटा मधुरा बोर जिमाती

मनड़े नेह जगावे है

कदी कूकती कोयल बोले

कद कागा बोल सुनावे है

ओल्यू मारी साथ सहेली

कोरां हीरा टाँक रही।।


कदे उड़े जा आसमान में।

पंखां सात रंग भरती

सूर थामती खोल हथेल्याँ

कदे अमावस में थकती

उभी ने निमडली रे हेटे 

आँख्या डगरा आँक रही।


टूटी उलझी डोरां बटती

कदे फिसलती बेला में

जूना केई छाप ढूंढती

जाने अनजाने मेला में

ओल्यू है हिवड़ा रो हारज

माणक मोती चाँक रही।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


ओल्यूँ=यादें 

ओल्यूँ खिड्क्याँ खड़़कावे =यादें हृदय की खिड़कियाँ खटका रही है।

आंक्या बांक्या =इधर उधर।

केई धोली केई साँवली =कुछ सफेद कुछ स्याह।

खाटा मधुरा बोर जिमाती=खट्टे मीठी बेर (यादों के)।

कदी कूकती कोयल =कभी मधुर कुकती कोयल जैसी

कदी कागा बोल=कभी कौवे सी कर्कश।

ओल्यू मारी साथ सहेली

कोरां हीरा टाँक रही=

यादें मेरी सखियों सी है आँचल की कौर पर हीरे जड़ी सी।

सूर थामती= सूर्य को पकड़ती

कदे अमावस में थकती=

कभी अमावस सी उदास थकी सी।

उभी ने निमडली रे हेटे आँख्या डगरा आँक रही=

कभी नीम के नीचे खड़ी पथ निहारती सी।

डोरां=डोर। बेला=समय।

जूना=पूरानी। हारज=हार।

माणक मोती चाँक रही=रत्नों से जड़ी है यादें।

Wednesday, 13 July 2022

स्वार्थी मानव


 स्वार्थी मानव


उतरी शिखर चोटी

खरी वो पावनी विमला।

जाकर मिली सागर

बनी खारी सकल अमला।


मैला किया उसको

हमारी मूढ़ मतियों ने

पूजा मगन मन से

अनोखी वीर सतियों ने

वरदान बन बहती

कभी था रूप भी उजला।।


मानव बड़ा खोटा

पहनकर स्वार्थ की पट्टी

है खेलता खेला

उथलकर काल की घट्टी

दलदल बनाता है

निशाना भी स्वयं पहला।।


खोदे गहन गढ्ढे

भयानक आपदा होगी

प्राकृत प्रलय भारी

निरपराधी भुगत भोगी

ज्वालामुखी पिघले

हृदय पत्थर नहीं पिघला।।


कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"

Sunday, 10 July 2022

पावस की आहट


 पावस की आहट


दस्तक दे रहा दहलीज पर कोई 

चलूँ उठ के देखूँ कौन है 

कोई नहीं द्वार पर

फिर ये धीमी-धीमी मधुर थाप कैसी? 

चहुँ ओर एक भीना सौरभ

दरख्त भी कुछ मदमाये से

पत्तों की सरसराहट

एक धीमा राग गुनगुना रही

कैसी स्वर लहरी फैली 

फूल कुछ और खिले-खिले

कलियों की रंगत बदली सी

माटी महकने लगी है

घटाऐं काली घनघोर 

मृग शावक सा कुलाँचे भरता मयंक

छुप जाता जा कर उन घटाओं के पीछे

फिर अपना कमनीय मुख दिखाता

फिर छुप जाता

कैसा मोहक खेल है

तारों ने अपना अस्तित्व

जाने कहाँ समेट रखा है

सारे मौसम पर मदहोशी कैसी

हवाओं में किसकी आहट

ये धरा का अनुराग है

आज उसका मनमीत

बादलों के अश्व पर सवार है

ये पहली बारिश की आहट है

जो दुआ बन दहलीज पर

बैठी दस्तक दे रही है

चलूँ किवाडी खोल दूँ

और बदलते मौसम के

अनुराग को समेट लूँ

अपने अंत: स्थल तक।


         कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 5 July 2022

वर्षा ऋतु का सौंदर्य और प्रकृति भिन्न सवैया में।


 वर्षा ऋतु का सौंदर्य और प्रकृति भिन्न सवैया में।


दुर्मिल सवैया /सरसी वसुधा 

अब देख सुधा बरसी नभसे, टप बूँद गिरी धरती पट पे।

सरसी वसुधा हरषाय रही, इक बूँद लगी लतिका लट पे।

झक चादर भीग भई कजरी, रमती सखियाँ जमुना तट पे।

अरु श्याम सखा मुरली बजती, तब गोपन दृष्टि लगी घट पे।।


किरीट सवैया /महि का रूप


मंजुल रूप अनूप रचे महि, मोहित देख छटा अब सावन।

बाग तड़ाग सभी जल पूरित, पावस आज सखी मन भावन।

मंगल है शिव नाम जपो शुभ, मास सुहावन है अति पावन ।

वारि चढ़े सब रोग मिटे फिर, साधु कहे तन दाहक धावन।।


सुंदरी सवैया/ऋतु सावन

ऋतु सावन रंग हरी वसुधा, मन भावन फूल खिले सरसे है।

जल भार भरी ठहरी बदली, अब शोर करे फिर वो बरसे है।

जब बूंद गिरे धरणी पर तो, हर एक यहाँ मनई हरसे है।

बिन पावस मौसम सूख रहे, हर ओर बियावन सा तरसे है।।


मत्तगयंद सवैया/पावस के रंग


आज सुधा बरसे नभ से जब, भू सरसी महके तन उर्वी।

खूब भली लगती यह मारुत, धीर धरे चलती जब पूर्वी।

रोर करे घन घोर मचे जब,भीषण नीरद होकर गर्वी।

कश्यप के सुत झांक रहे जब, कोण चढ़े चमके नभ मुर्वी।।


दुर्मिम सवैया/ऋतु सौंदर्य 


घन घोर घटा बरसे नभ से चँहु ओर तड़ाग भरे जल से।

चमके बिजली मनवा डरपे सरसे जल ताप हरे थल से।

मन मोहक ये ऋतु मोह गई घन ले पवमान उड़ा छल से।

अब फूट गई नव कोंपल है झुक डाल गई लदके फल से।।


प्रज्ञा सवैया/नेह की धार

शोभा कैसी धरा की दिखे मोहक ओढ़ के ओढ़नी मंजुल धानी।

कूके है कोयली बोल है पायल झांझरी ज्यों  बजे वात सुहानी।

मेघा को मोह के जाल फंसाकर व्योम पे मंडरा बादल मानी।

प्यारी सी मोहिनी सुंदरी शोभित, नेह की धार है कंचन पानी।।


गंगोदक सवैया/ऋतु मन भावन

लो बसंती हवाएँ चली आज तो, मोहिनी सी बनी रत्नगर्भा अरे।

बादलों से सगाई करेगी धरा, है प्रतिक्षा उसे मेह बूंदें झरे।

डोलची नीर ले के घटा आ गई, शीश मेघा दिखे गागरी सी धरे।

रंग रंगी सुहावे हरी भू रसा, कोकिला गीत गाए खुशी से भरे।।


गंगोदक सवैया/श्रावणी मेघ

कोकिला कूकती नाचता मोर भी, मोहिनी मल्लिका झूमती जा रही।

आज जागी सुहानी प्रभाती नई, वात के घोट बैठी घटा आ रही।

श्रावणी मेघ क्रीड़ा करें व्योम में, गोरियाँ झूम के गीत भी गा रही।

बाग में झूलती दोलना फूल का, बाँधनी लाल रक्ताभ सी भा रही।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 3 July 2022

द्वेष की अग्नि


 द्वेष की अग्नि


अगन द्वेष की ऐसी भड़की 

शब्द बुझा कर जहर गए।


बीती बातें राख झाड़ कर 

कदम बढ़ाया जीवन में 

एक ग्रंथि पर टीस मारती 

यकबक मन के आँगन में 

चोट पुरानी घाव बन गई 

शूल याद में लहर गए।।


घात लगी कोमल अंतस पर 

आँखें भूल गईं रोना 

मनोवृत्ति पर ठोकर मारी 

दरक गया कोना-कोना 

ठूँठ बनी ज्यों कोई माता 

पूत छोड़ जब शहर गये।।


शांत भाव का ढोंग रचा था 

खोल रखी थी बैर बही 

अवसर की बस बाट जोहता 

अंदर ज्वाला छदक रही 

चक्रवात अन्तस् में उठता 

भाव शून्य में ठहर गए ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'