स्वार्थी मानव
उतरी शिखर चोटी
खरी वो पावनी विमला।
जाकर मिली सागर
बनी खारी सकल अमला।
मैला किया उसको
हमारी मूढ़ मतियों ने
पूजा मगन मन से
अनोखी वीर सतियों ने
वरदान बन बहती
कभी था रूप भी उजला।।
मानव बड़ा खोटा
पहनकर स्वार्थ की पट्टी
है खेलता खेला
उथलकर काल की घट्टी
दलदल बनाता है
निशाना भी स्वयं पहला।।
खोदे गहन गढ्ढे
भयानक आपदा होगी
प्राकृत प्रलय भारी
निरपराधी भुगत भोगी
ज्वालामुखी पिघले
हृदय पत्थर नहीं पिघला।।
कुसुम कोठारी "प्रज्ञा"
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 14 जुलाई 2022 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!
!
हृदय से आभार आपका भाई रविन्द्र जी।
Deleteपाँच लिंक पर रचना को शामिल करने हेतु।
सादर ।
मनुष्य ने केवल अपना ही स्वार्थ साधा है । लेकिन खुद ही विनाश भी झेला है ।
ReplyDeleteजी संगीता जी सही कहा आपने मनुष्य आज के सुख साधन हित कर के लिए गहन खड्डे खोद रहा है।
Deleteसकारात्मकता प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
सादर आभार आपका।
बहुत सुंदर और प्रभावी सृजन
ReplyDeleteजी रचना सार्थक हुई आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से।
Deleteसादर आभार आपका।
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल शनिवार (16-07-2022) को चर्चा मंच "दिल बहकने लगा आज ज़ज़्बात में" (चर्चा अंक-4492) पर भी होगी!
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जी हृदय से आभार आपका आदरणीय, चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए।
Deleteमैं चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
सादर।
बहुत सुंदर समय के प्रवाह को गढ़ा है आपने प्रिय दी। निर्मल पावन खेल है नियति का यह।
ReplyDeleteहर कोई उलझ जाता है भंवर में।
सराहनीय।
सादर
आपकी सुंदर विश्लेषणात्मक टिप्पणी से रचना में नव ऊर्जा का संचार हुआ प्रिय अनिता।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
मानव बड़ा खोटा
ReplyDeleteपहनकर स्वार्थ की पट्टी
है खेलता खेला
उथलकर काल की घट्टी
दलदल बनाता है
निशाना भी स्वयं पहला
स्वार्थी मानव स्वयं ही इस विद्धंश का पहला निशाना है
बहुत सटीक एवं लाजवाब
उत्कृष्ट सृजन
आपकी सुंदर विस्तृत प्रतिक्रिया ने रचना के मर्म को और भी मुखरित किया सुधाजी।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका।
सस्नेह।
खुद के बनाए उलझन में ही उलझ गया है मानव सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteब्लॉग पर सदा स्नेह बनाए रखें।
सस्नेह।
खुद ही खुद के द्वारा उलझन में पड़ गया है इंसान। बहुत सुंदर रचना, कुसुम दी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका ज्योति बहन, आपकी उत्साहवर्धक उपस्थिति सदा लेखन में नव ऊर्जा भरती है।
Deleteसस्नेह।
अति उत्तम
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका अनामिका जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
Deleteब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
सस्नेह।
निरपराधी भुगत भोगी। कितना कटु सत्य है यह!
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका जितेंद्र जी।
Deleteआपकी उपस्थिति से रचना सार्थक हुई।
सादर।
खोदे गहन गढ्ढे
ReplyDeleteभयानक आपदा होगी
प्राकृत प्रलय भारी
निरपराधी भुगत भोगी
ज्वालामुखी पिघले
हृदय पत्थर नहीं पिघला।।
.. चिंतनपूर्ण रचना ।
रचना में निहित भावों पर चिंतन कर के रचना को सार्थकता प्रदान की आपने जिज्ञासा जी।
Deleteसस्नेह आभार।