किसान और बीज
चीर धरा की छाती को फिर
अंकुर जीवन धरता
जगे स्फुरण लेता अँगड़ाई
तभी उत्थान भरता।।
सीकर सर से टपक रहा है
श्याम घटा जल छलका
अमृत झरा जब तृषित धरा पर
बीज दरक के झलका
लगता भू से निकला हलधर
अर्ध ढ़का तन रहता।।
सभी परिस्थितियों का डटकर
कर्मठ बुनते ताना
बिन माता भी शिशु को पाले
धर्म स्वयं का जाना
हल लेकर निकला किसान फिर
देह परिश्रम झरता।।
कठिन उद्योग करने वाले
कहाँ कभी रोते हैं
चीर फलक से धरा गोद में
मोती वो बोते हैं
उनका उद्यम रंग दिखाता
आँचल धरा लहरता।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत ही सुंदर ! पर इतनी मेहनत कर जग का पेट भरने वाला खुद अधपेट रह जाता है !
ReplyDeleteजी सही कहा गगन जी यही विडम्बना है।
Deleteहृदय से आभार आपका, सार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
सादर।
मर्म छूती गहन अभिव्यक्ति दी।
ReplyDelete------
पैकेट में बंद
धुले,साफ,बीने हुए
खनखनाते,
कनस्तरों,डिब्बों में
सहेजकर रखे गये अन्न
अपनी थाली में परोसे
रोटी के निवालों पर
सिर्फ़ घटते-बढ़ते मूल्यों
से सिकन उभरती है...
मिट्टी की सोंधी खुशबू,
किसान के पसीने की
गंध उनकी हाड़ तोड़ मेहनत
गौण क्यों हो जाती है...?
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सादर।
ये एक दुखद सत्य है श्वेता ने जाने कब परिस्थितियां इन के अनुकूल होगी।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21.7.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4497 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
जी हृदय से आभार आपका।
Deleteमैं चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
सादर।
सीकर सर से टपक रहा है
ReplyDeleteश्याम घटा जल छलका
अमृत झरा जब तृषित धरा पर
बीज दरक के झलका
लगता भू से निकला हलधर
अर्ध ढ़का तन रहता।।
बहुत सुंदर सार्थक अभिव्यक्ति ।