Tuesday, 19 July 2022

किसान और बीज

किसान और बीज


चीर धरा की छाती को फिर

अंकुर जीवन धरता 

जगे स्फुरण लेता अँगड़ाई 

तभी उत्थान भरता।।


सीकर सर से  टपक रहा है 

श्याम घटा जल छलका 

अमृत झरा जब तृषित धरा पर 

बीज दरक के झलका 

लगता भू से निकला हलधर 

अर्ध ढ़का तन रहता।।


सभी परिस्थितियों का डटकर 

कर्मठ बुनते ताना 

बिन माता भी शिशु को पाले

धर्म स्वयं का जाना 

हल लेकर निकला किसान फिर

देह परिश्रम झरता।।


कठिन उद्योग करने वाले 

कहाँ कभी रोते हैं 

चीर फलक से धरा गोद में 

मोती वो बोते हैं 

उनका उद्यम रंग दिखाता 

आँचल धरा लहरता।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

7 comments:

  1. बहुत ही सुंदर ! पर इतनी मेहनत कर जग का पेट भरने वाला खुद अधपेट रह जाता है !

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    1. जी सही कहा गगन जी यही विडम्बना है।
      हृदय से आभार आपका, सार्थक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सादर।

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  2. मर्म छूती गहन अभिव्यक्ति दी।
    ------
    पैकेट में बंद
    धुले,साफ,बीने हुए
    खनखनाते,
    कनस्तरों,डिब्बों में
    सहेजकर रखे गये अन्न
    अपनी थाली में परोसे
    रोटी के निवालों पर
    सिर्फ़ घटते-बढ़ते मूल्यों
    से सिकन उभरती है...
    मिट्टी की सोंधी खुशबू,
    किसान के पसीने की
    गंध उनकी हाड़ तोड़ मेहनत
    गौण क्यों हो जाती है...?
    ----
    सादर।

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    1. ये एक दुखद सत्य है श्वेता ने जाने कब परिस्थितियां इन के अनुकूल होगी।
      सस्नेह आभार आपका।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 21.7.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4497 में दिया जाएगा
    धन्यवाद
    दिलबाग

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    1. जी हृदय से आभार आपका।
      मैं चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर।

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  4. सीकर सर से टपक रहा है
    श्याम घटा जल छलका
    अमृत झरा जब तृषित धरा पर
    बीज दरक के झलका
    लगता भू से निकला हलधर
    अर्ध ढ़का तन रहता।।
    बहुत सुंदर सार्थक अभिव्यक्ति ।

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