आज एक राजस्थानी नवगीत।
ओल्यूँ रो झरोखो
ओल्यूँ खिड्क्याँ खड़़कावे हैं
आंक्या बांक्या झाँक रही
केई धोली केई साँवली
खोल झरोखा ताँक रही।
खाटा मधुरा बोर जिमाती
मनड़े नेह जगावे है
कदी कूकती कोयल बोले
कद कागा बोल सुनावे है
ओल्यू मारी साथ सहेली
कोरां हीरा टाँक रही।।
कदे उड़े जा आसमान में।
पंखां सात रंग भरती
सूर थामती खोल हथेल्याँ
कदे अमावस में थकती
उभी ने निमडली रे हेटे
आँख्या डगरा आँक रही।
टूटी उलझी डोरां बटती
कदे फिसलती बेला में
जूना केई छाप ढूंढती
जाने अनजाने मेला में
ओल्यू है हिवड़ा रो हारज
माणक मोती चाँक रही।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
ओल्यूँ=यादें
ओल्यूँ खिड्क्याँ खड़़कावे =यादें हृदय की खिड़कियाँ खटका रही है।
आंक्या बांक्या =इधर उधर।
केई धोली केई साँवली =कुछ सफेद कुछ स्याह।
खाटा मधुरा बोर जिमाती=खट्टे मीठी बेर (यादों के)।
कदी कूकती कोयल =कभी मधुर कुकती कोयल जैसी
कदी कागा बोल=कभी कौवे सी कर्कश।
ओल्यू मारी साथ सहेली
कोरां हीरा टाँक रही=
यादें मेरी सखियों सी है आँचल की कौर पर हीरे जड़ी सी।
सूर थामती= सूर्य को पकड़ती
कदे अमावस में थकती=
कभी अमावस सी उदास थकी सी।
उभी ने निमडली रे हेटे आँख्या डगरा आँक रही=
कभी नीम के नीचे खड़ी पथ निहारती सी।
डोरां=डोर। बेला=समय।
जूना=पूरानी। हारज=हार।
माणक मोती चाँक रही=रत्नों से जड़ी है यादें।
वाह
ReplyDeleteउत्साह वर्धन के लिए हृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
मिटटी की सुगंध बिखेरती , सुरों में पिरोयी रचना के लिए अभिनन्दन !
ReplyDeleteजी रचना सार्थक हुई आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से।
Deleteब्लॉग पर सदा स्वागत है आपका।
सादर।
सच में यादें ऐसी ही होती हैं । अपनी आंचलिक महक लिए बहुत सुन्दर नवगीत , ओल्यूँ जैसी कसक समेटे ।
ReplyDeleteढेर सारा स्नेह आभार मीना जी, सच कहा आपने अपनी मिट्टी की महक ही अलग सुख देती है।
Deleteआपकी सराहना से लेखन सार्थक हुआ।
सस्नेह।
मैंने प्रथम बार आपकी कोई राजस्थानी भाषा में सिरजी गई रचना पढ़ी। स्वयं राजस्थानी हूँ, अतः स्वाभाविक है कि इसके आस्वादन से मेरा हृदय गदगद हो उठा है। आभार एवं अभिनंदन।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जितेंद्र जी, कम लिखती हूँ पर बीच बीच में लिखती रही हूँ राजस्थानी भाषा में , मेरी अपनी भाषा है तो खिंचाव रहता ही है।
Deleteआप को रचना में अपनत्व मिला रचना सार्थक हुई।
पुनः आभार।
सादर।
बड़ा ही मीठा!
ReplyDeleteजी हृदय से आभार आपका विश्व मोहन जी।
Deleteसादर।
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१८-०७ -२०२२ ) को 'सावन की है छटा निराली'(चर्चा अंक -४४९४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
हृदय से आभार आपका प्रिय अनिता ,रचना को चर्चा पर रखने के लिए,ये सदा सुखद है।
Deleteमैं चर्चा पर उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।
बहुत सुंदर मीठे शब्दों से बुनी गयी रचना!--ब्रजेन्द्र नाथ
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका आदरणीय।
Deleteब्लॉग पर आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
सादर।
आंचलिक भाषा की मधुर सुगंध बिखेरता बहुत ही सुंदर गीत ।
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका जिज्ञासा जी।
ReplyDeleteआपकी बहुमूल्य टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ।
सस्नेह।
कुसुम जी, पहलीबार राजस्थानी भाषा की खूबसूरती को पढ़ा, हालांकि थोड़ाबहुत बोलचाल में सुनाई दे जाती है परंतु यह गीत तो जबरदस्त रहा...और वो भी अनुवाद के साथ...वाह ...गजब
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