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Monday, 29 November 2021

हाइकु शिल्प आधारित लघु रचनाएं


 हाइकु शिल्प आधारित लघु रचनाएं।


अम्बर सजा

इंद्रधनुषी रंग

बौराई दिशा। 


चाँद सितारे

ले उजली सी यादें

आये आँगन। 


कौन छेडता

मन वीणा के तार

धीरे धीरे से।


दूधिया नभ

निहारिका शोभित

मन चंचल ।


हवा बासंती

बहती धीरे धीरे

गूँजे संगीत।


दरख्त मौन

बसेरा पंछियों का

 सुबह तक।


सूरज जला

पहाड़ थे पिघले

नदी उथली ।


राह के काँटे

किसने कब बाँटे

लक्ष्य को साधें।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 28 November 2021

अज्ञात कविताओं का दर्द


 अज्ञात कविताओं का दर्द।


इंतजार में पड़ी रही वो कविताएँ दबी सी किन्हीं पन्नों में,

कि कभी तो हाँ कभी तो तुम उन्हें मगन हो  गुनगुनाओगी।


जब लिखा था तो व्यंजनाएँ हृदय से फूटी थी अंदर गहरे से,

कहो ये तो सच है न कितने स्नेह से सहेजा था उन्हें।


और भूल गई उनको सफर में मिले यात्रियों की तरह,

वो कसमसाती रही तुम्हारे बस तुम्हारे होठों तक आने को।


उन में भी नेह,सौंदर्य,प्रेम,स्नेह स्पर्श था पीड़ा थी दर्द था,

आत्म वंचना, मनोहर दृश्य और  प्रकृति भी सजी खड़ी थी।


तुम्हारी ही तो कृति थी वात्सल्य से सजाया था उन्हेें,

आज पुरानी गुड़िया सी उपेक्षित किसी कोने में पड़ी है।


अलंकार पहनाए थे सभी कुछ पहना दिया,

पर एक पाँव में पाजेब आज तक नही पहनाई।


वो पहनने से छूटी पाजेब आज भी बजना चाहती है,

उन्हीं पुरानी कविताओं के एक सूने पाँव में बंध कर।


हाँ आज भी इंतजार में है ढेर से बाहर आने को,

तुम्हारे होठों पर चढ़ कर इतराने को गुनगुनाने को।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 24 November 2021

ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत की क्रांति





 





 ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत की क्रांति

राजस्थान की जोधपुर रियासत जिसे मारवाड़ भी कहा जाता है, इसमें आठ ठिकाने थे जिनमें एक आउवा भी था. ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत पाली जिले के इसी आउवा के ठाकुर थे. इन्होने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में जोधपुर रियासत और ब्रिटिश संयुक्त सेना को पराजित कर मारवाड़ में आजादी की अलख जगा दी थी.
उन्हीं वीर ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत की अंग्रेज़ो के विरुद्ध 
क्रांति के कुछ दृश्य आल्हा छंद में समेटने का प्रयास।

 *ठाकुर कुशाल सिंह चम्पावत की क्रांति।* 
आल्हा छंद में सृजन।

दोहा:-
जोधपुरी शासक रहे, तख्त सिंह था नाम।
हार मान अंग्रेज से, करे हजूरी काम।।१

एक ठिकाना आउवा, ठाकुर वीर कुशाल।
चम्पावत सरदार थे, कुशल प्रजा के पाल।।२

ठाकुर ने विद्रोह किया था,
जोधपुरी राजा के साथ।
राव बड़े छोटे कितने थे, 
आकर पकड़ा ठाकुर हाथ।।

ठोस बनाकर सेना टोली,
विद्रोही दलबल के संग।
ऊँचा रखते अपना अभिजन,
मान्य नही राजा का ढ़ंग।।

जागीर अधिप आ संग जुड़े,
औ दहका गोरा कप्तान।
जोधपुरी राजा की सेना,
आप बना था वो अगवान।।

संग विरोधी राजा ठाकुर,
राव कुशाल बने सरदार।
सेना दल बल लेकर आगे,
हाथ सुसज्जित थे हथियार।।

जोधपुरी सेना थी भारी, 
भारी अंग्रेजी हथियार।
झोंक उमंग भरे रजपूते,
मूंछें ताने थे मड़ियार।।

शीश किलंगी साफा छोड़ा, 
वीर पहन केसरिया पाग।
भाला, ढाल, कृपाण,खड़ग लें,
निकले खेलन जैसे फाग।।

हीथ करे सेना अगवानी,
राव कुशाल इधर सरदार।
दलबल ले दोनों सम्मुख थे,
क्रोध चढ़ा था पारावार।।

रक्त उबाल लिए रजपूते
विजुगुप्सा थी वक्ष अपार।
मर्दन करना था गोरों का
हाथ कृपाण हृदय में खार।।

बात अठारह सो सत्तावन,
एक हुई थी क्रांति महान।
रजपूते सामंतों ने मिल,
तोड़ी थी गोरों की बान।।

पाली अजमेरी सीमा पर,
युद्ध छिड़ा गोरों के साथ।
सैनिक मारे तोपे छीनी, 
पैट्रिक भागा  सिर ले हाथ।।

होश फिरंगी सेना के अब,
उड़ते आँधी में ज्यों पात।
आज दिखाते रण में कौशल,
हर योद्धा करता था घात।।

प्राण लिए हाथों में ठाकुर,
काल स्वरूप बना साक्षात।
एक प्रहार कटे सिर लुढ़के,
दूर गिरे जाकर के गात।।

दोहे:-
दृश्य दिखाई दे रहा, नृत्य करे ज्यों काल।
नर मुंड़ो से भू भरी, गली नहीं रिपु दाल।।१

काट मोंक का शीश फिर, बाँध अश्व की पीठ।
ठाकुर चलते शान से, दृश्य विकट अनडीठ।।२

मुंड कटा टांगा गढ़ पोळी,
उमड़ा आया पाली गाँव।
देख बड़ा गोरा अधिकारी,
आज अधर में उसकी ठाँव।।

हँसता कोई थूक घृणा से,
बच्चे पीट रहे थे थाल।
भीरु बने थे आज महारथ,
पीट रहे थे अपना गाल।।

गोरे भागे पग शीश धरे,
मूंछ मरोड़े थे मड़ियार।
गाँव नगर में मेला सजता,
हर्ष मनाए सब नर नार।।

एक पराजय से धधके थे,
शत्रु बने ज्यूँ जलती ज्वाल।
बदला लेने की ठानी फिर,
सोच रहे थे दुर्जन चाल।।

दुर्गति का हाल गया जल्दी, 
उच्च पदाधिकारियों पास।
लारेंस लिए सेना को निकला,
मोर्चा ले ब्यावर से खास।।

धावा बोला रजपूतों पर,
सिंह कुशाल सुनी ये बात।
टूट पड़े वो सेना लेकर,
दिखलानी गोरों को जात।।

युद्ध घमासानी विप्लव सा,
खेत रहे विद्रोही राव।
पर गोरों ने मुख की खाई,
हार करारी ताजा घाव।।

ये भी तो अंत नही होगा,
जान रहे थे योद्धा वीर ।
कूट ब्रितानी चलने वाले,
आगे कोई चाल अधीर ।।

दोहे:-
हार गये गोरे समर, राजा भी बल हीन।
पर ब्रितानिए लग रहे, जैसे कोई दीन।।१

एक वर्ष के बाद में, सैन्य लिए बहु ओर।
गोरों ने दलबल सहित, धावा बोला घोर।।२

ठाकुर राव सभी मिलकर के,
व्हूय रचेंगे एक अजेय ।
गोरों को पाठ पढ़ाना है,
सोच यही  सबका था धेय।।

विधना को स्वीकार नहीं था,
रचना हो जब तक संपूर्ण।
उससे पहले घात लगा कर
अंग्रेजों ने  फेंका तूर्ण।।

तीन महीने बीत रहे थे,
वर्ष नये की थी शुरुआत।
बहु छावनियों से ले सेना,
गोरों ने की मोटी घात।।

क्रांति महा के सामन्तों पर,
टूट किया आकस्मिक वार।
लूट खसोट मचाई भारी,
कर विस्फोट सुरंग अपार।।

सुगली देवी मूर्ति उठाई,
और मचाई भारी मार।
दो बारी की हार करारी,
बदला लेने की थी खार।।

वीर लड़े अंतिम सांसों तक,
एक भिडे थे बीस समान।
साधन थे परिमित लेकिन,
काँप रही गोरों की जान।।

रक्त पिपासु कृपानें बहती,
काट रही थी अरि के मुंड।
लेकिन शत्रु विशाल खड़ा था,
साथ दिखे फिर भारी झुंड़।।

गोला बारूद जटिल भारी,
और विशाल कटक के साथ।
अंग्रेजों ने फिर रण छेड़ा
मुठ्ठी भर रजपूत अकाथ।।

दोहे:-
कहते हैं दुर्भाग्य से, क्रांति हुई थी व्यर्थ।
पर ब्रितानियों के लिए, भारी ये प्रत्यर्थ।।१

रजपूताने में कभी, फिर न जमे थे पाँव।
गोरों का बस रह गया, एक अजमेर ठाँव।।२

वीर जुझारू थे कुशल, क्रांति कारी महान।
देश भलाई हित किया ,तन मन धन बलिदान।।३

रजपूते ये वीर थे, तीक्ष्ण तेज तलवार।
निज माटी सम्मान में,बही रक्त की धार।।४

 *कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'*

Tuesday, 23 November 2021

हरि बस चक्र थाम लो।


 हरि बस चक्र थाम लो।


हरि बस चक्र थाम लो तुम

पाप चढ़े अब धरणी पर

अब न थामना काठ मुरलिया

जग बैठा है अरणी पर।


घूम रहे सब दिशा दुशासन

दृग मोड़ कर साधु बैठे

लाज धर्म को भूल घमंडी

मूढ से शिशुपाल ऐंठे

सकल ओर तम का अँधियारा

घोर लहर है तरणी पर।।


बहुत दिनों तक रास रचाए

ग्वाल बाल सँग चोरी

और घनेरा माखन खाया

फोडी गगरी बरजोरी

सब कुछ भोगा इसी धरा से

विश्व नाचता दरणी पर।।


तुम तो गौ धन के रखवाले

दीन दुखी तुमको प्यारे

कैसे कैसे रूप रचा कर

काम किये कितने न्यारे

अब सोये हो किस शैया पर

व्याघ्र चढ़े हैं उरणी पर।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Saturday, 20 November 2021

काल विकराल


 काल विकराल

क्षुद्र नद सागर मिलन को

राह अपनी मोड़ती सी।।


हर दिशा उमड़ा हुआ है

नीरधर श्यामल भयंकर

काल दर्शाता रहा है

पल अलभ से विस्मयंकर

ये हवाएं व्याधियाँ दे

फड़फड़ा कर दौड़ती सी।।


और धरणीधर पिघलता

आग उगले आक पलपल

सिंधु अंतस में समेटे

ड़ोलती उद्धाम हलचल

फिर मचल कर उर्मिया भी

बंध तट के तोड़ती सी।।


खिलखिला धरती खसकती

हँस रही ज्यों मानवों पर

कब चढ़ाई इंद्र करेगा

चाप लेकर दानवों पर

मिल रही चेतावनी भी

चित्त को झकझोरती सी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 16 November 2021

मन मगन


 मन मगन


रागिनी उठ कर गगन तक

उर्मि बन कर झिलमिलाई।


गीत कितने ही मधुर से

हिय नगर से उठ रहे हैं

साज बजते कर्ण प्रिय जो

मधु सरस ही लुट रहे हैं

नाच उठता मन मयूरा

दूर सौरभ लहलहाई।।


आज कैसी ये लगन है

पाँव झाँझर से बजे हैं

उड़ रहा है खग बना मन

हर दिशा तारक सजे है

लो पवन भी गुनगुनाकर

कुछ महक कर सरसराई।।


कुनकुनी सी धूप मीठी 

वर्तुलों में कौमुदी सी

ढल रही है साँझ श्यामा

ज्यों हरित हो ईंगुदी सी

तान वीणा की मचलकर

गीतमय हो मुस्कुराई।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Sunday, 14 November 2021

दोला !!


 दोला !!


इक हिंडोला वृक्ष बँधा है

दूजा ओझल डोले।

थिरक किवाड़ी मन थर झूले

फिर भी नींद न खोले।।


बादल कैसे काले-काले

घोर घटाएं छाई

चमक-चमक विकराल दामिनी

क्षिति छूने को धाई

मन के नभ पर महा प्रभंजन

कितने बदले चोले।।


रेशम डोर गाँठ कच्ची है

डाली सूखी टूटे

पनघट जाकर भरते-भरते

मन की गागर फूटे

विषयों के घेरे में जीवन

दोला जैसे दोले।।


बहुत कमाया खर्चा ज्यादा

बजट बिगाड़ा पूरा

रहें बटोरे निशदिन हर पल

भग्न स्वप्न का चूरा

वाँछा में आलोड़ित अंतर

कच्ची माटी तोले।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 11 November 2021

सीता स्वयंवर और परशुरामजी

आल्हा (वीर छंद)

सीता स्वयंवर और परशुरामजी


नाद उठा अम्बर थर्राया

एक पड़ी भीषण सी थाप।

तृण के सम बिखरा दिखता था

भूमि पड़ा था शिव का चाप।।


शाँत खड़े थे धीर प्रतापी, 

दसरथ  सुत राघव गुणखान।

तोड़ खिलौना ज्यों बालक के,

मुख ऊपर सजती मुस्कान।।


स्तब्ध खड़े थे सब बलशाली,

हर्ष लहर फैली चहुँ ओर।

राज्य जनक के खुशियाँ छाई

नाच उठा सिय का हिय मोर।।


हाथ भूमिजा अवली सुंदर

ग्रीवा भूपति डाला हार।

कन्या दान जनक करते

हर्षित था सारा परिवार।।

 

रोर मचा था द्रुतगति भीषण

काँप उठा था सारा खंड।

विस्मय से सब देख रहे थे

धूमिल सा शोभित सब मंड।।


ऋषि तेजस्वी कर में फरसा 

दीप्तिमान मुखमंडल तेज।

आँखें लोहित कंपित काया

मुक्त गमन तोड़े बंधेज।।


दृष्टि गई आराध्य धनुष पर

अंगारों सी सुलगी दृष्टि

घोर गर्जना बोले कर्कश

भय निस्तब्ध हुई ज्यों सृष्टि।।


घुड़के जैसे सिंह गरज हो

पात सदृश कांपे सब राव।

किसने आराध्य धनुष तोड़ा

कौन प्रयोजन फैला चाव।।


सब की बंध गई थी घिग्घी 

मूक सभी थे उनको  देख

राम खड़े थे भाव विनय के

 मंद सजे मुख पर स्मित रेख।।


बोले रघुपति शीश नमा फिर

मुझसे घोर हुआ अपराध

चाप लगा मुझको ये मोहक

देखा जो प्रत्यंचा साध।।


हाथ उठा जब साधन चाहा

भग्न हुआ ज्यूँ जूना काठ

आप कहे तो नव धनु ला दूँ 

इसके जिर्ण दिखे सब ठाठ।।


सुन कर बोल तरुण बालक के

क्रोधाअग्नि पड़ी घृत धार

रे सठ बालक सच बात बता

किसका ये दण्डित आचार।।


होगा कोई सेवक किंचित

धीर धरे चेतन परमात्म 

सेवक धृष्ट नही अनुयाई

आदर स्वामी का निज आत्म।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Monday, 8 November 2021

सुख भरे सपने


 सुख भरे सपने


रात निखरी झिलमिलाई

नेह सौ झलती रही

चाँदनी के वर्तुलों में

सोम रस भरती रही।


सुख भरे सपने सजे जब

दृग युगल की कोर पर

इंद्रनीला कान्ति शोभित

व्योम मन के छोर पर

पिघल-पिघल कर निलिमा से

सुर नदी झरती रही।।


गुनगुनाती है दिशाएँ

राग ले मौसम खड़ा

बाँह में आकाश भरने

पाखियों सा  मन उड़ा

पपनियाँ आशा सँजोए

रात  यूँ ढलती रही।।


विटप भरते रागिनी सी

मिल अनिल की थाप से

झिलमिलाता अंभ सरि का

दीप मणि की चाप से 

उतर आई अप्सराएँ

भू सकल सजती रही ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 5 November 2021

महा लक्ष्मी


 महा लक्ष्मी


अहो द्युलोक से कौन अद्भुत

हेमांगी वसुधा पर आई

दिग-दिगंत आभा आलोकित

मरुत बसंती सरगम गाई।।


महारजत के वसन अनोखे 

दप-दप दमके कुंदन काया

आधे घूंघट चंद्र चमकता

अप्सरा सी ओ महा-माया

कणन-कणन पग बाजे घुंघरु

सलिला बन कल-कल लहराई।।


चारु कांतिमय रूप देखकर  

चाँद लजाया व्योम ताल पर

मुकुर चंद्रिका आनन शोभा

झुके-झुके से नैना मद भर

पुहुप कली से अधर रसीले

ज्योत्सना पर लालिमा छाई।‌।


कौमुदी  कंचन संग लिपटी 

निर्झर जैसा झरता कलरव

सुमन की ये लगे सहोदरा

आँख उठे तो टूटे नीरव

चपल स्निग्ध निर्धूम शिखा सी

पारिजात बन कर  लहराई।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 1 November 2021

मन हिरणी


 मन हिरणी


हृदय मरुस्थल मृगतृष्णा सी

भटके मन की हिरणी

सूखी नदिया तीर पड़ी ज्यों

ठूँठ काठ की तरणी।।


कब तक राह निहारे किसकी

सूरज डूबा जाता

काया झँझर मन झंझावात,

हाथ कभी क्या आता

अंतर दहकन दिखा न पाए

कृशानु तन की अरणी।।


रेशम धागा उलझ रखा है,

गाँठ पड़ी है पक्की

भँवर याद के चक्कर काटे  

जैसे चलती चक्की 

जाने वाले जब लौटेंगे 

तभी रुकेगी दरणी।‌।


सुधि वन की मृदु कोंपल कच्ची

पोध सँभाल रखी है

सूनी गीली साँझ में पीर 

एक घनिष्ठ सखी है

दिन प्रात और रातें बीती

वहीं रुकी अवतरणी ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'