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Saturday, 20 November 2021

काल विकराल


 काल विकराल

क्षुद्र नद सागर मिलन को

राह अपनी मोड़ती सी।।


हर दिशा उमड़ा हुआ है

नीरधर श्यामल भयंकर

काल दर्शाता रहा है

पल अलभ से विस्मयंकर

ये हवाएं व्याधियाँ दे

फड़फड़ा कर दौड़ती सी।।


और धरणीधर पिघलता

आग उगले आक पलपल

सिंधु अंतस में समेटे

ड़ोलती उद्धाम हलचल

फिर मचल कर उर्मिया भी

बंध तट के तोड़ती सी।।


खिलखिला धरती खसकती

हँस रही ज्यों मानवों पर

कब चढ़ाई इंद्र करेगा

चाप लेकर दानवों पर

मिल रही चेतावनी भी

चित्त को झकझोरती सी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

16 comments:

  1. यथार्थ का चित्रण करती और भविष्य के लिए आगाह करती सुंदर उत्कृष्ट रचना ।

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    1. उत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार जिज्ञासा जी।
      सस्नेह।

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
    (21-11-21) को "प्रगति और प्रकृति का संघर्ष " (चर्चा - 4255) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
    --
    कामिनी सिन्हा

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    Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका, चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए कामिनी जी, मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर सस्नेह।

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  3. वर्तमान स्थिति को बयां करती बहुत ही उम्दा और शानदार रचना!

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    Replies
    1. बहुत सा स्नेह आभार मनीषा जी,रचना सार्थक हुई।
      सस्नेह।

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  4. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका।
      सादर।

      Delete
  5. खिलखिला धरती खसकती

    हँस रही ज्यों मानवों पर

    कब चढ़ाई इंद्र करेगा

    चाप लेकर दानवों पर

    मिल रही चेतावनी भी

    चित्त को झकझोरती सी।।
    सटीक सार्थक एवं सुन्दर...
    लाजवाब नवगीत
    वाह!!!

    ReplyDelete
    Replies
    1. सुधा जी सुंदर स्नेहिल टिप्पणी आपकी सदा लेखन के लिए ऊर्जा का काम करती है ।
      हृदय से आभार आपका।
      सस्नेह।

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  6. Replies
    1. बहुत आभार आपका आदरणीय।
      सादर।

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  7. Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका।
      सादर।

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