काल विकराल
क्षुद्र नद सागर मिलन को
राह अपनी मोड़ती सी।।
हर दिशा उमड़ा हुआ है
नीरधर श्यामल भयंकर
काल दर्शाता रहा है
पल अलभ से विस्मयंकर
ये हवाएं व्याधियाँ दे
फड़फड़ा कर दौड़ती सी।।
और धरणीधर पिघलता
आग उगले आक पलपल
सिंधु अंतस में समेटे
ड़ोलती उद्धाम हलचल
फिर मचल कर उर्मिया भी
बंध तट के तोड़ती सी।।
खिलखिला धरती खसकती
हँस रही ज्यों मानवों पर
कब चढ़ाई इंद्र करेगा
चाप लेकर दानवों पर
मिल रही चेतावनी भी
चित्त को झकझोरती सी।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
यथार्थ का चित्रण करती और भविष्य के लिए आगाह करती सुंदर उत्कृष्ट रचना ।
ReplyDeleteउत्साह वर्धन करती प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार जिज्ञासा जी।
Deleteसस्नेह।
बहुत बढ़िया।🌼
ReplyDeleteसादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार
(21-11-21) को "प्रगति और प्रकृति का संघर्ष " (चर्चा - 4255) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है..आप की उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी .
--
कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार आपका, चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए कामिनी जी, मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
Deleteसादर सस्नेह।
वर्तमान स्थिति को बयां करती बहुत ही उम्दा और शानदार रचना!
ReplyDeleteबहुत सा स्नेह आभार मनीषा जी,रचना सार्थक हुई।
Deleteसस्नेह।
लाजवाब
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।
खिलखिला धरती खसकती
ReplyDeleteहँस रही ज्यों मानवों पर
कब चढ़ाई इंद्र करेगा
चाप लेकर दानवों पर
मिल रही चेतावनी भी
चित्त को झकझोरती सी।।
सटीक सार्थक एवं सुन्दर...
लाजवाब नवगीत
वाह!!!
सुधा जी सुंदर स्नेहिल टिप्पणी आपकी सदा लेखन के लिए ऊर्जा का काम करती है ।
Deleteहृदय से आभार आपका।
सस्नेह।
सुन्दर सृजन
ReplyDeleteबहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
जी धन्यवाद!
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।