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Monday, 27 March 2023

प्रकृति और लेखनी


 प्रकृति और लेखनी


श्रृंग श्रेणी चढ़ दिवाकर

दृश्य कोरे है अछेरे

पाखियों की पाँत उड़ती

छोड़कर के नीड़ डेरे।।


कोकिला कूजित मधुर स्वर

मधुकरी मकरंद मोले 

प्रीत पुलकित है पपीहा

शंखपुष्पी शीश डोले

शीत के शीतल करों में

सूर्य के स्वर्णिम उजेरे।।


मोद मधुरिम हर दिशा में

भूषिता भू भगवती है

श्यामला शतरूप धरती

पद्म पर पद्मावती है

आज लिख दे लेखनी फिर

नव मुकुल से नव सवेरे।।


मन खुशी में झूम झूमें

और मसि से नेह झाँके

कागज़ों पर भाव पसरे

चारु चंचल चित्र चाँके

पंक्तियों से छंद झरते

मुस्कुराते गीत मेरे।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 20 March 2023

नव रसों का मेह कविता


 विश्व कविता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं 🌷

नव रसों का मेह कविता


थाह गहरे सिंधु जैसी

उर्मिया मन में मचलती

शब्द के भंडार खोले

लेखनी मोती उगलती।।


लिख रहे कवि लेख अनुपम

भाव की रस धार मीठी

गुड़ बने गन्ना अनूठा

चाशनी चढ़ती अँगीठी

चाल ग़ज़लों की भुलाकर

आज नव कविता खनकती।


स्रोत की फूहार इसमें

स्वर्ग का आनंद भरते

सूर्य किरणों से मिले तो

इंद्रधनुषी स्वप्न झरते

सोम रस सी शांत स्निगधा

तामरस सी है बहकती।।


वीर या श्रृंगार करुणा

नव रसो का मेह छलका

रूप कितने ही हैं इसके

ताल में ज्यों चाँद झलका

कंटकों सी ले चुभन तो

रात रानी बन लहकती।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 16 March 2023

भोर से दोपहर तक

भोर से दोपहर तक

उर्मियों से कंठ लग कर
ओस झट से झिलमिलाई
देख कलिका एक सुंदर 
तितलियाँ भी किलकिलाई।।

भोर की लाली उतर कर
मेदिनी के गात डोली
हर दिशा से आ रही है
पाखियों की धीर बोली
सौम्य सुरभित वात बहकर
पत्तियों से गिलबिलाई।।

गोपियों ने गीत गाए
अर्कजा का कूल प्यारा
श्याम वर्णी श्याम सुंदर  
राधिका का रूप न्यारा
प्रीत बैठी फूँक मुरली
रागिनी भी खिलखिलाई।।

भानु का रथ दौड़ता सा
नील नभ पर डोलता है
बादलों के पार बैठा
हेम कोई तोलता है
अब चली सखियाँ सभी मिल
धूप खुलकर चिलचिलाई।।

कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
 


Saturday, 11 March 2023

ऋतु मदमाती


 ऋतु मदमाती 


सखी देखलो ऋतु मदमाती

डाल-डाल पाखी चहके।

काल ठहर कर रुकता दिखता

फूलों के उपवन लहके।


मुकुल ओढ़ नव लतिका डोली

मंद गंध ले पवन बहे

सरसिज से सरसी सरसाई 

मधुप मगन मदमस्त रहे

लो कानन में कोयल कूकी

द्रुम दल पात-पात बहके।।


मंजरियाँ मदमाती है ज्यों

मद पी कर बौराई है

केसर उड़ता वात झोंक में

विलस रही अमराई है

कण-कण सुरभित गंध भरी है

वसुधा का आँचल महके।।


झरने मंथर कल-कल बहते

मंद चाल सरिता भरती

निर्मल वो आकाश नील सा

धानी चूनर सी धरती

बासंती का नेह झलकता

टेसू से बन-बन दहके।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 7 March 2023

कहो समय


 कहो समय तुम कितने अपने

छली बली निर्मोही हो

छुपा रखा है किसे पता क्या

मन के पक्के गोही हो।।


अहिल्या का श्राप हो तुम

दसरथ के अवसान 

श्री राम का वनवास भी 

माँ सीता की अग्नि परीक्षा

उर्मिला का वियोग

माण्ड़वी का वैराग्य 

अरे कितने अमोही हो।।


कहो समय तुम कितने अपने

छली बली निर्मोही हो।


पितामह की निर्बलता तुम

धृतराष्ट्र का मोह

देवकी के प्रारब्ध

कर्ण के अज्ञातशत्रु 

द्रौपदी का अपमान 

द्वारिका की जल समाधि

मानवता के द्रोही हो।।


कहो समय तुम कितने अपने

छली बली निर्मोही हो।


संस्कारों का अंत हो तुम

लालच की पराकाष्ठा

अनैतिकता का बाना

भ्रष्टाचार के जनक

स्वार्थ के सहोदर

धर्म के धुंधले होते रंग

विषज्वर के आरोही हो।।


कहो समय तुम कितने अपने

छली बली निर्मोही हो।।


विषज्वर=भैंसा