धर्म
*धर्म* यानि जो धारण करने योग्य हो
क्या धारण किया जाय सदाचार, संयम,
सहअस्तित्व, सहिष्णुता, सद्भाव,आदि
धर्म इतना मूल्यवान है...,
कि उसकी जरूरत सिर्फ किसी समय विशेष के लिए ही नहीं होती, अपितु सदा-सर्वदा के लिए होती है ।
बस सही धारण किया जाय।
गीता का सुंदर ज्ञान पार्थ की निराशा से अवतरित हुवा ।
कहते हैं कभी कभी घोर निराशा भी सृजन के द्वार खोलती है। अर्जुन की हताशा केशव के मुखारविंद से अटल सत्य बन
करोड़ों शताब्दियों का अखंड सूत्र बन गई।
विपरीत परिस्थितियों में सही को धारण करो, यही धर्म है।
चाहे वो कितना भी जटिल और दुखांत हो.....
पार्थ की हुंकार थम गई अपनो को देख,
बोले केशव चरणों में निज शीश धर
मुझे इस महापाप से मुक्ति दो हे माधव
कदाचित मैं एक बाण भी न चला पाउँगा ,
अपनो के लहू पर कैसे इतिहास रचाऊँगा,
संसार मेरी राज लोलुपता पर मुझे धिक्कारेगा
तब कृष्ण की वाणी से श्री गीता अवतरित हुई ।
कर्म और धर्म के मर्म का वो सार ,
युग युगान्तर तक मानव का
मार्ग दर्शन करता रहेगा ।
आह्वान करेगा जन्म भूमि का कर्ज चुकाने का
मां की रक्षा हित फिर देवी शक्ति रूप धरना होगा
केशव संग पार्थ बनना होगा ,
अधर्म के विरुद्ध धर्म युद्ध
लड़ना होगा।
कुसुम कोठारी