Tuesday, 30 April 2019

कैसी शुभकामनाएं


आज विश्व श्रमिक दिवस किस को दूं शुभकामनाएं?

मेहनतकश आज भर की
जुगाड़ नही कर पाता
कल की क्या सोचे,
भुखा बिलखता बचपन
पेट भी नही भर पाता
पढने की क्या सोचे ,
कैसी विडम्बना है कि कोई
महल दो महले पाकर भी खुश नही   
और कोई एक वक्त का
काम मिलते ही खुश हो जाता
यही है सत्य का बिलखता चेहरा
पर कोई देखना नही चाहता  ।

          कसुम कोठारी ।

Monday, 29 April 2019

सभी को कुछ तलाश है


निशिगंधा की भीनी
मदहोश करती सौरभ
चांदनी का रेशमी
उजला वसन
आल्हादित करता
मायावी सा मौसम
फिर झील का अरविंद
उदास गमगीन क्यों
सूरज की चाहत
प्राणो का आस्वादन है
रात कितनी भी
मनभावन हो
कमल को सदा चाहत
भास्कर की लालिमा है
जैसे चांद को चकोर
तरसता हर पल
नीरज भी प्यासा बिन भानु
पानी के रह अंदर,
ये अपनी अपनी
प्यास है  देखो
बिन शशि रात भी
उदास है देखो।

  कुसुम कोठरी

Thursday, 25 April 2019

एक गुलाब की वेदना

एक गुलाब की वेदना

कांटो में भी हम महफूज़ थे।

खिलखिलाते थे ,सुरभित थे ,
हवाओं से खेलते झुलते थे ,
हम मतवाले कितने खुश थे ।

कांटो में भी हम महफूज़ थे ।

फिर तोड़ा किसीने प्यार से ,
सहलाया हाथो से , नर्म गालों से ,
दे डाला हमे प्यार की सौगातों में ।

कांटो में भी हम महफूज़ थे ।

घड़ी भर की चाहत में संवारा ,
कुछ अंगुलियों ने हमे दुलारा ,
और फिर पंखुरी पंखुरी बन बिखरे ।

कांटो में भी महफूज थे हम ।
हां तब कितने  खुश थे हम।।

            कुसुम कोठारी ।

मौजों सा बचपन

पानी पर  चलता है वो मौजों सा बचपन।

ना डर ना फिकर,मदमाता सा बचपन
सागर नापले हाथों से,वो भोला सा  बचपन।

लहरों का खिलौना, थामले हाथ में मस्त सा बचपन
जल परी बन तंरगित हो,नाचता गाता  बचपन ।

लहरों सा थिरकता, अल्हड सा बचपन
फूलों सा खिलता,वो खिलखिलाता बचपन।

तितलियों सा उडता, वो इठलाता बचपन
सब कुछ दे दूं ,गर मिल जाय वो बीता बचपन।

                कुसुम कोठारी।

Monday, 22 April 2019

तिश्नगी

तिश्नगी

तिश्नगी में डूबे रहे राहत को बेक़रार हैं
उजड़े घरौंदें जिनके वे ही तो परेशान हैं ।

रात के क़ाफ़िले चले कौल करके कल का
आफ़ताब छुपा बादलों में क्यों पशेमान है ।

बसा लेना एक संसार नया, परिंदों जैसे
थम गया बेमुरव्वत अब कब से तूफ़ान है ।

आगोश में नींद के भी जागते रहें कब तक
क्या सोच सोच के आखिर अदीब हैरान है ।

शजर पर चाँदनी पसरी थक हार कर
आसमां पर माहताब क्यों गुमनाम है ।

             कुसुम कोठारी।

Friday, 19 April 2019

लो टिकोरों से झूमी डालियां

लो टिकोरों से झूमी डालियां

फागुन के महीने में आम के पेड़ मंजरियों या "मौरों" से लद जाते हैं, जिनकी मीठी गंध से दिशाएँ भर जाती हैं । चैत के आरंभ में मौर झड़ने लग जाते हैं और 'सरसई' (सरसों के बराबर फल) दिखने लगते हैं । जब कच्चे फल बेर के बराबर हो जाते हैं, तब वे 'टिकोरे' कहलाते है । जब वे पूरे बढ़ जाते हैं और उनमें जाली पड़ने लगती है, तब उन्हे 'अंबिया' कहते हैं।
अंबिया पक कर आम जिसे रसाल कहते हैं।
                        ~ ~ ~

चंदन  सा बिखरा हवाओं में
मौरों की खुशबू है फिजाओं में
ये किसीके आने का संगीत है
या मौसम का रुनझुन गीत है।

मन की आस फिर जग गई 
नभ पर अनुगूँज  बिखर गई
होले से मदमाता शैशव आया
आम द्रुम सरसई से सरस आया ।

देखो टिकोरे से भर झूमी डालियां
कहने लगे सब खूब आयेगी अंबिया
रसाल की गांव मेंं होगी भरमार
इस बार मेले लगेंगे होगी बहार।

लौट आवो एक बार फिर घर द्वारे
सारा परिवार खड़ा है आंखें पसारे
चलो माना शहर में खुश हो तुम
पर बिन तुम्हारे यहाँ खुशियां हैं गुम।

           कुसुम कोठारी।

Thursday, 18 April 2019

बन कर समंदर देखते हैं

बन कर समंदर देखते हैं

संभलते रहे राह ए-हयात में गिरते गिरते
चलो अब फिर चोट खाकर  देखते हैं।

ख़ाक में मिलाना तो चाहा इस ज़माने ने
अपने  ही दम अब संवर कर देखते हैं।

सूखने को है आब ए- दरिया अबस
उठ अब बन कर समंदर देखते हैं ।

सफ़र अब बाकि है थोड़ा चुनाँचे
लगाकर दाव अब जीत कर देखते हैं।

               कुसुम कोठारी।

Tuesday, 16 April 2019

भास्कर उतरा सिंधु प्रागंण में


भास्कर उतरा सिंधु प्रांगण में

अपनी तपन से तपा
अपनी गति से थका
लेने विश्राम ,शीतलता
देखो भास्कर उतरा
सिन्धु प्रांगण में
करने आलोल किलोल ,
सारी सुनहरी छटा
समेटे निज साथ
कर दिया सागर को
रक्क्तिम सुनहरी ,
शोभित सारा जल
नभ. भूमण्डल
एक डुबकी ले
फिर नयनो से ओझल,
समाधिस्थ योगी सा
कर साधना पूरी
कल फिर नभ भाल को
कर आलोकित स्वर्ण रेख से
क्षितिज  का श्रृंगार करता
अंबर चुनर रंगता
आयेगा होले होले,
और सारे जहाँ  पर
कर आधिपत्य शान से
सुनहरी सात घोड़े का सवार
चलता मद्धम  गति से
हे उर्जामय नमन तूझे।

     कुसुम कोठारी।




Thursday, 11 April 2019

धर्म क्या है मेरी नजर में

धर्म

*धर्म* यानि जो धारण  करने योग्य हो
 क्या धारण किया जाय  सदाचार, संयम,
 सहअस्तित्व, सहिष्णुता, सद्भाव,आदि

धर्म इतना मूल्यवान है...,
कि उसकी जरूरत सिर्फ किसी समय विशेष के लिए ही नहीं होती, अपितु सदा-सर्वदा के लिए होती है ।
बस सही धारण किया जाय।

गीता का सुंदर  ज्ञान पार्थ की निराशा से अवतरित हुवा ।
कहते हैं कभी कभी घोर निराशा भी सृजन के द्वार खोलती है। अर्जुन की हताशा केशव के मुखारविंद से अटल सत्य बन
 करोड़ों शताब्दियों का अखंड सूत्र बन गई।

विपरीत परिस्थितियों में सही को धारण करो, यही धर्म है।
 चाहे वो कितना भी जटिल और दुखांत हो.....

पार्थ की हुंकार थम गई अपनो को देख,
बोले केशव चरणों में निज शीश धर
मुझे इस महापाप से मुक्ति दो हे माधव
कदाचित मैं एक बाण भी न चला पाउँगा ,
अपनो के लहू पर कैसे इतिहास रचाऊँगा,
संसार मेरी राज लोलुपता पर मुझे धिक्कारेगा
तब कृष्ण की वाणी से श्री गीता अवतरित हुई ।
कर्म और धर्म के मर्म का वो सार ,
युग युगान्तर तक  मानव का
मार्ग दर्शन करता रहेगा ।
आह्वान करेगा  जन्म भूमि का कर्ज चुकाने का
मां की रक्षा हित फिर देवी शक्ति रूप धरना होगा
केशव संग पार्थ बनना होगा ,
अधर्म के विरुद्ध धर्म युद्ध
लड़ना होगा।

                 कुसुम कोठारी
              

Tuesday, 9 April 2019

वक्त बदला

वक्त बदला

वक्त बदला तो संसार ही बदला नज़र आता है
उतरा मुलम्मा फिर सब बदरंग नज़र आता है।

दुरूस्त ना की कस्ती और डाली लहरों में
फिर अंजाम ,क्या हो साफ नज़र आता है ।

मिटते हैं आशियाने मिट्टी के ,सागर किनारे
फिर क्यों बिखरा औ परेशान नज़र आता है।

ख्वाब कब बसाता है गुलिस्तां किसीका
ऐसा  उजड़ा कि बस हैरान नज़र आता है।

                  कुसुम कोठारी ।

Tuesday, 2 April 2019

बन रे मन तू चंदन वन



बन रे मन तू चंदंन वन

बन रे मन तू चंदन वन
सौरभ का बन अंश अंश।

कण कण में सुगंध जिसके
हवा हवा महक जिसके
चढ़ भाल सजा नारायण के
पोर पोर शीतल बनके।

बन रे मन तू चंदन वन।

भाव रहे निर्लिप्त सदा
मन में वास नीलकंठ
नागपाश में हो जकड़े
सुवास रहे सदा आकंठ।

बन रे मन तू चंदन वन ।

मौसम ले जाय पात यदा
रूप भी ना चितचोर सदा
पर तन की सुरभित आर्द्रता
रहे पीयूष बन साथ सदा।

बन रे मन तू चंदन वन ।

घस घस खुशबू बन लहकूं
ताप संताप हरुं हर जन का
जलकर भी ऐसा महकूं, कहे
लो काठ जला है चंदन का।

बन रे मन तू चंदन वन ।।

      कुसुम कोठारी।