Monday, 22 April 2019

तिश्नगी

तिश्नगी

तिश्नगी में डूबे रहे राहत को बेक़रार हैं
उजड़े घरौंदें जिनके वे ही तो परेशान हैं ।

रात के क़ाफ़िले चले कौल करके कल का
आफ़ताब छुपा बादलों में क्यों पशेमान है ।

बसा लेना एक संसार नया, परिंदों जैसे
थम गया बेमुरव्वत अब कब से तूफ़ान है ।

आगोश में नींद के भी जागते रहें कब तक
क्या सोच सोच के आखिर अदीब हैरान है ।

शजर पर चाँदनी पसरी थक हार कर
आसमां पर माहताब क्यों गुमनाम है ।

             कुसुम कोठारी।

11 comments:

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    1. बहुत सा शुक्रिया लोकेश जी।

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  2. वाह बेहद शानदार रचना सखी 👌

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    1. बहुत बहुत आभार सखी आपकी प्रतिक्रिया सदा उत्साह बढाती है ।
      सस्नेह।

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  3. आगोश में नींद के भी जागते रहें कब तक
    क्या सोच सोच के आखिर अदीब हैरान है ।....वाह !बेहतरीन दी
    सादर

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    1. ढेर सा स्नेह बहना सदा अनुग्रहित हूं।

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  4. चांदनी थकी रहेगी तो आफताब तो गम होगा ही ... चाँद का अस्तित्व उसी से तो है ...
    लाजवाब रचना ...

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  5. बहुत बहुत आभार नासवा जी इस विधा में आप से दाद मिल गई तो जरूर ठीक ठाक लिखी ही गई होगी।
    शुक्रिया ।
    सादर

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  6. शजर पर पसरी थक हार कर
    आसमां पर माहताब क्यों गुमनाम है ।
    वाह.....,लाजवाब अशआरों से सजी बेहतरीन ग़ज़ल ।

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  7. शजर पर चाँदनी पसरी थक हार कर
    आसमां पर माहताब क्यों गुमनाम है ।
    ...वाह...बहुत ख़ूबसूरत अशआर...

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  8. शजर पर पसरी थक हार कर
    आसमां पर माहताब क्यों गुमनाम है ।
    वाह..... बेहतरीन ग़ज़ल ।

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