Thursday, 18 April 2019

बन कर समंदर देखते हैं

बन कर समंदर देखते हैं

संभलते रहे राह ए-हयात में गिरते गिरते
चलो अब फिर चोट खाकर  देखते हैं।

ख़ाक में मिलाना तो चाहा इस ज़माने ने
अपने  ही दम अब संवर कर देखते हैं।

सूखने को है आब ए- दरिया अबस
उठ अब बन कर समंदर देखते हैं ।

सफ़र अब बाकि है थोड़ा चुनाँचे
लगाकर दाव अब जीत कर देखते हैं।

               कुसुम कोठारी।

11 comments:

  1. बहुत खूब ..सादर नमस्कार

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    1. बहुत बहुत आभार कामिनी जी।
      सस्नेह ।

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (20-04-2019) को "रिश्तों की चाय" (चर्चा अंक-3311) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    - अनीता सैनी

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    1. सस्नेह आभार सखी मैं अनुग्रहित हुई।

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  3. सफ़र अब बाकि है थोड़ा चुनाँचे
    लगाकर दाव अब जीत कर देखते हैं।
    वाह...., बेहतरीन और बस बेहतरीन..., अति उत्तम सृजन कुसुम जी ।

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    1. बहुत बहुत आभार मीना जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना को सार्थकता मिली और मन को सुकून।
      सस्नेह।

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  4. बहुत सुन्दर

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    1. बहुत सा आभार आपका उत्साह वर्धन के लिये ।
      ब्लॉग पर स्वागत आपका।

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  5. Replies
    1. बहुत बहुत आभार पम्मी जी।
      सस्नेह ।

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  6. सफ़र अब बाकि है थोड़ा चुनाँचे
    लगाकर दाव अब जीत कर देखते हैं।
    वाह...बहुत खूब कुसुम जी ।

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