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Wednesday, 30 December 2020

नव वर्ष नव उत्कर्ष


 .       नव वर्ष नव उत्कर्ष


           कोरी किताब 

आज नई कोरी किताब खरीद लूँगी

कल सभी कडवी यादों को विदा कर 

पहले पन्ने पर सभी सुखद क्षणों को

सहेज कर रख लूँगी

अगला पन्ना प्यार स्नेह से भर दू़ँगी 

सभी अपनों को निमंत्रण 

अगले पन्ने पर दूँगी

आके सभी लिख देना

साथ बिताई अपनी अच्छी यादें

सुखद क्षण  कुछ अच्छे विचार

फिर उस किताब की कुछ प्रतिलिपि

बनवा भेज दूँगी सभी अपनों को

मैं सहेज कर रख लूंगी अपनी किताब को।‌


          कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Tuesday, 29 December 2020

जीवन चक्र यूँ ही चलते हैं


 जीवन चक्र यूँ ही चलते हैं


साल आते हैं जाते हैं

हम वहीं खड़े रह जाते हैं


सागर की बहुरंगी लहरों सा

उमंग से उठता है मचलता है

कैसे किनारों पर सर पटकता है

जीवन चक्र यूँ ही चलता है

साल आते है... 


कभी सुनहरे सपनो सा साकार

कभी टूटे ख्वाबों की किरचियाँ

कभी उगता सूरज भी बे रौनक

कभी काली रात भी सुकून भरी

साल आते हैं....


कभी हल्के जाडे सा सुहाना

कभी गर्मियों सा  दहकता

कभी बंसत सा मन भावन

कभी पतझर सा बिखरता

साल आते हैं....


कभी चांदनी दामन मे भरता

कभी मुठ्ठी की रेत सा फिसलता

जिंदगी कभी  बहुत छोटी लगती

कभी सदियों सी लम्बी हो जाती

साल आते हैं....


         कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 28 December 2020

पिया की पाती


 पिया की पाती


दुल्हन सा विन्यास विभूषण

नंदन वन सी धरा नवेली।


कैसे  कहूँ बात अंतस की 

थिक थिरकन हृदय में उमड़ी।

घटा देख कर मोर नाचता 

हिय हिलोर सतरंगी घुमड़ी।

लगता कोई आने वाला

सखी कौन है बूझ पहेली।।


पद्म खिले पद्माकर महका

मधुकर मधु के मटके फोड़े।

सखी सुमन सौरभ मन भाई

पायल पल पल बंधन तोड़े।

कोयल कूकी ऊँची डाली 

बोल बोलती मधुर सहेली।।


अंग अंग अब नाच नाचता

आज पिया  की पाती आई

मन महका तो फूला मधुबन

मंजुल मोहक ऋतु मनभाई

उपवन उपजे भांत-भांत रस

चंद्रमल्लिका और चमेली।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Saturday, 26 December 2020

रूठी प्रिया


 हास परिहास


रूठी प्रिया।


अब लाए उपहार बलम जी

कैसे तुम से बोलूं

जन्म दिवस तक भूल गये हो

क्यों निज  मुख अब खोलूँ ।।


वादे कितने लम्बे चौड़े

तारे नभ के लाऊँ

तेरे लिए गोर गजधन

एक ताज बनवाऊँ

लेकर हाथ फूल की अवली

आगे पीछे डोलूँ ।।


एक बना दूँ स्वर्ण तगड़िया

हाथों  कंगन भारी

लाके दूँ मोती के झुमके 

हो तुम पर बलिहारी

टीका नथनी माणिक वाली

तुम्हे हीर से तोलूँ।।


इक हिण्ड़ोला नभ पर डालूँ

उड़ने वाली गाड़ी

परियों जैसा रूप सँवारूँ

बिजली गोटा साड़ी

मेरे मन प्राणों की रानी

जीवन में मधु घोलूँ ।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 24 December 2020

अंधों के शहर आईना


 अँधों के शहर आइना बेचने


फिर से आज एक कमाल करने आया हूँ

अँधों के शहर में आइना बेचने आया हूँ।


सँवर कर सूरत तो देखी कितनी मर्तबा शीशे में

आज बीमार सीरत का जलवा दिखाने आया हूँ।


जिन्हें ख़्याल तक नही आदमियत का।

उनकी अकबरी का परदा उठाने आया हूँ।


वो कलमा पढते रहे अत्फ़ ओ भल मानसी का।

उन के दिल की कालिख़ का हिसाब लेने आया हूँ।


करते रहे उपचार  किस्मत-ए-दयार का 

उन अलीमगरों का लिलार बाँचने आया हूँ।

         

                कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


अकबरी=महानता  अत्फ़=दया

किस्मत ए दयार= लोगो का भाग्य

अलीमगरों = बुद्धिमान

लिलार =ललाट(भाग्य)

प्रपंच त्यागो


 प्रपंच त्याग


दो घड़ी आत्मप्रवंचना से दूर हो बैठते हैं

कब तक यूं स्वयं को छलते रहेंगे 

आखिर जीवन का उद्देश्य क्या है 

बस धोखे में जीना प्रपंच मेंं जीना

आकाश कुसुम सजाने भर से

घर की बगिया कहां हरी होती है

कुछ पौध तो बाग सजाने के

लिए धरातल पर लगानी होती है

तो कुछ बीज रोप के देखा जाए

शायद धरा इन्हें अपनी गोद में

प्रस्फुटित कर प्रतिदान दे दे 

कुछ फूल कुछ हरितिमा 

धरा भी लहकेगी घर सजेगा

और मन झूठे छल से बाहर आयेगा।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 21 December 2020

भोर विभोर


 भोर विभोर


उदयांचल पर फिर से देखो  

कनक गगरिया फूटी 

बहती है कंचन सी धारा 

चमकी मधुबन बूटी 


दिखे सरित के निर्मल जल में 

घुला महारस बहता 

हेम केशरी फाग खेल लो 

कल कल बहकर कहता 

महारजत सी मयूख मणिका 

दिनकर कर से छूटी।।


पोढ़ रही हर डाली ऊपर 

उर्मि झूलना झूले 

स्नेह स्पर्श जो देती कोरा 

बंद सुमन भी फूले 

रसवंती सी सभी दिशाएं 

नीरव चुप्पी टूटी।।


नील व्योम पर कलरव करती 

उड़े विहग की टोली 

कितनी मधुर रागिनी जैसी 

श्याम मधुप की बोली 

कुंदन वसन अरुण ने पहने 

बीती रात कलूटी।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 17 December 2020

कदाचार


 कदाचार


एक लालसा में लिपटा है

किसे बुलाता कर मंथन।

मोद झूठ है पल दो पल का 

देता तमस औ अचिंतन ।


जब जब चढ़ता नशा क्रोध का

आंखों में उफने लोहित 

बान समझ कर अकबक बकता 

विकराल काल ज्यों मोहित

करे धोंकनी सा धुक धुक फिर

बढ़ता उर में फिर स्पंदन।।


प्रवंचना का जाल बिछाकर

मनुज मनुज को ठगता है

छल प्रपंच का खोदा गड्ढा

रात दिवस फिर भगता है

कदाचार में आसक्त रहे

सदभावों का हुआ हनन।।


विषय मोह में उलझा प्राणी

पतन राह को गमन करे

समय रहते सँभल जो जाये

विनाश पथ का शमन करे

लोभ कपट अब व्यसन रोग से

मुक्ति युक्ति का कर चिंतन।।


       कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Wednesday, 16 December 2020

अप्रतिम सौंदर्य


 अप्रतिम सौन्दर्य 


हिम  से आच्छादित 

अनुपम पर्वत श्रृंखलाएँ

मानो स्फटिक रेशम हो बिखर गया

उस पर ओझल होते 

भानु की श्वेत स्वर्णिम रश्मियाँ 

जैसे आई हो श्रृँगार करने उनका 

कुहासे से ढकी उतंग चोटियाँ 

मानो घूँघट में छुपाती निज को

धुएँ सी उडती धुँध

ज्यों देव पाकशाला में

पकते पकवानों की वाष्प गंध

उजालों को आलिंगन में लेती

सुरमई सी तैरती मिहिकाएँ 

पेड़ों पर छिटके हिम-कण

मानो हीरण्य कणिकाएँ बिखरी पड़ी हों

मैदानों तक पसरी बर्फ़ जैसे

किसी धवल परी ने आंचल फैलया हो

पर्वत से निकली कृष जल धाराएँ

मानो अनुभवी वृद्ध के

बालों की विभाजन रेखा

चीङ,देवदार,अखरोट,सफेदा,चिनार 

चारों और बिखरे उतंग विशाल सुरम्य 

कुछ सर्द की पीड़ा से उजड़े 

कुछ आज भी तन के खड़े 

आसमां को चुनौती देते

कल कल के मद्धम स्वर में बहती नदियाँ 

उनसे झांकते छोटे बड़े शिला खंड 

उन पर बिछा कोमल हिम आसन

ज्यों ऋषियों को निमंत्रण देता साधना को

प्रकृति ने कितना रूप दिया  कश्मीर  को

हर ऋतु अपरिमित अभिराम अनुपम

शब्दों  में वर्णन असम्भव।


              कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


   " गिरा अनयन नयन बिनु बानी "

Friday, 11 December 2020

हिमालय पर वर्ण पिरामिड


 हिमालय पर चार वर्ण पिरामिड रचनाऐं। 

मैं
मौन
अटल
अविचल
आधार धरा
धरा के आँचल
स्नेह बंधन पाया।

ये
स्वर्ण
आलोक
चोटी पर
बिखर गया 
पर्वतों के पीछे
भास्कर मुसकाया।

हूँ
मैं भी
बहती
अनुधारा
अविरल सी
उन्नत हिम का
बहता अनुराग।

लो
फिर
झनकी
मधु वीणा
पर्वत राज
गर्व से हर्षया 
फहराया तिरंगा।

Wednesday, 9 December 2020

अवमानना


 अवमानना


बंधन तोड़ निर्बाध उड़ता

पखेरूंओं सा मन भटकने।


छेड़ तान गाता कोई कब 

साज सभी जब बिखरे टूटे।

इक तारे की राग बेसुरी

पंचम के गति स्वर भी छूटे।

सभी साधना रही अधूरी

लगी सोच पर थाप अटकने।।


चुप चुप है सब आज दिशाएँ

अवमानना के भाव मुखरित।

भग्न सभी निष्ठा है छिछली

प्रश्न सारे रहे अनुत्तरित।

पस्त हुआ संयम हरबारी

मौन लगा फिर देख खटकने।।


अबोध गति अंतर की भागे

चाबुक ख़ाके जैसे घोड़ा

बहती है अविराम वेदना 

निहित कहीं तो स्नेह थोड़ा

डोर थामली सूंत सुघड़ तब

लगे विचारों को झटकने।।


     कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Tuesday, 8 December 2020

असर अब गहरा होगा।


 असर अब गहरा होगा
फ़क़त खारा पन न देख, अज़ाबे असीर होगा
मुसलसल  बह गया तो फिर बस समंदर होगा । 

दिन ढलते ही आँचल आसमां का सुर्ख़रू होगा।
रात का सागर लहराया न जाने कब सवेरा होगा।

तारों ने बिसात उठा ली असर अब  गहरा होगा ।
चांद सो गया जाके, अंधेरों का अब पहरा होगा ।

छुपा है परदों में कितने,जाने क्या राज़ गहरा होगा ।
अब्र के छटते ही बेनक़ाब  चांद का चेहरा होगा । 

साये दिखने लगे  चिनारों पे, जाने अब क्या होगा।
मुल्कों के तनाव से चनाब का पानी ठहरा होगा ।
                   
                    कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Thursday, 3 December 2020

निसर्ग को उलाहना


 निसर्ग को उलाहना

लगता पहिया तेज चलाकर
देना है कोई उलाहना
तुमने ही तो गूंथा होगा
इस उद्भव का ताना बाना ।।

थामे डोर संतुलन की फिर
जड़ जंगम को नाच नचाते 
आधिपत्य उद्गम पर तो क्यों
ऐसा  नित नित झोल रचाते  
काल चक्र निर्धारित करके
भूल चुके क्या याद दिलाना।

कैसी विपदा भू पर आई
चंहु ओर तांडव की छाया
पैसे वाले अर्थ चुकाकर
झेल रहे हैं अद्भुत माया
औ निर्धन का हाल बुरा है
बनता रोज काल का दाना।।

कैसे हो विश्वास कर्म पर
एक साथ सब भुगत रहे हैं
ढ़ाल धर्म की  टूटी फूटी
मार काल विकराल सहे हैं
सुधा बांट दो अब धरणी पर
शिव को होगा गरल पिलाना।।

कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'