प्रपंच त्याग
दो घड़ी आत्मप्रवंचना से दूर हो बैठते हैं
कब तक यूं स्वयं को छलते रहेंगे
आखिर जीवन का उद्देश्य क्या है
बस धोखे में जीना प्रपंच मेंं जीना
आकाश कुसुम सजाने भर से
घर की बगिया कहां हरी होती है
कुछ पौध तो बाग सजाने के
लिए धरातल पर लगानी होती है
तो कुछ बीज रोप के देखा जाए
शायद धरा इन्हें अपनी गोद में
प्रस्फुटित कर प्रतिदान दे दे
कुछ फूल कुछ हरितिमा
धरा भी लहकेगी घर सजेगा
और मन झूठे छल से बाहर आयेगा।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
बहुत सुन्दर और सार्थक सृजन।
ReplyDeleteबिल्कुल सत्य कहा आपने इस कविता के माध्यम से।
ReplyDeleteसुंदर, संदेशपरक, मनमोहक रचना ..।
ReplyDeleteसुन्दर रचना
ReplyDeleteआकाश कुसुम सजाने भर से
ReplyDeleteघर की बगिया कहां हरी होती है
वाह! बिलकुल सत्य!!!