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Thursday, 24 December 2020

प्रपंच त्यागो


 प्रपंच त्याग


दो घड़ी आत्मप्रवंचना से दूर हो बैठते हैं

कब तक यूं स्वयं को छलते रहेंगे 

आखिर जीवन का उद्देश्य क्या है 

बस धोखे में जीना प्रपंच मेंं जीना

आकाश कुसुम सजाने भर से

घर की बगिया कहां हरी होती है

कुछ पौध तो बाग सजाने के

लिए धरातल पर लगानी होती है

तो कुछ बीज रोप के देखा जाए

शायद धरा इन्हें अपनी गोद में

प्रस्फुटित कर प्रतिदान दे दे 

कुछ फूल कुछ हरितिमा 

धरा भी लहकेगी घर सजेगा

और मन झूठे छल से बाहर आयेगा।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

5 comments:

  1. बिल्कुल सत्य कहा आपने इस कविता के माध्यम से।

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  2. सुंदर, संदेशपरक, मनमोहक रचना ..।

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  3. आकाश कुसुम सजाने भर से

    घर की बगिया कहां हरी होती है
    वाह! बिलकुल सत्य!!!

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