निसर्ग को उलाहना
लगता पहिया तेज चलाकर
देना है कोई उलाहना
तुमने ही तो गूंथा होगा
इस उद्भव का ताना बाना ।।
थामे डोर संतुलन की फिर
जड़ जंगम को नाच नचाते
आधिपत्य उद्गम पर तो क्यों
ऐसा नित नित झोल रचाते
काल चक्र निर्धारित करके
भूल चुके क्या याद दिलाना।
कैसी विपदा भू पर आई
चंहु ओर तांडव की छाया
पैसे वाले अर्थ चुकाकर
झेल रहे हैं अद्भुत माया
औ निर्धन का हाल बुरा है
बनता रोज काल का दाना।।
कैसे हो विश्वास कर्म पर
एक साथ सब भुगत रहे हैं
ढ़ाल धर्म की टूटी फूटी
मार काल विकराल सहे हैं
सुधा बांट दो अब धरणी पर
शिव को होगा गरल पिलाना।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
बहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार सखी।
Deleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०४-१२-२०२०) को 'निसर्ग को उलहाना'(चर्चा अंक- ३९०६) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है
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अनीता सैनी
बहुत बहुत आभार आपका मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
Deleteसादर।
उपयोगी सृजन।
ReplyDeleteसादर आभार आपका आदरणीय उत्साहवर्धन हुआ।
Deleteकैसे हो विश्वास कर्म पर
ReplyDeleteएक साथ सब भुगत रहे हैं
ढ़ाल धर्म की टूटी फूटी
मार काल विकराल सहे हैं
सुधा बांट दो अब धरणी पर
शिव को होगा गरल पिलाना।।..बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...
सुंदर मनभावन प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह आभार आपका।
बहुत बहुत सुंदर रचना । शुभ कामनाएं ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसक्रिय टिप्पणी से उत्साह वर्धन हुआ।
सादर।
अप्रतिम रचना👌👌
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteउत्साह वर्धक प्रतिक्रिया आपकी।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteउत्साह वर्धन हुआ।
ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
अब तो सुधा बँटनी ही चाहिए । अति सुन्दर ।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसादर।