Thursday, 3 December 2020

निसर्ग को उलाहना


 निसर्ग को उलाहना

लगता पहिया तेज चलाकर
देना है कोई उलाहना
तुमने ही तो गूंथा होगा
इस उद्भव का ताना बाना ।।

थामे डोर संतुलन की फिर
जड़ जंगम को नाच नचाते 
आधिपत्य उद्गम पर तो क्यों
ऐसा  नित नित झोल रचाते  
काल चक्र निर्धारित करके
भूल चुके क्या याद दिलाना।

कैसी विपदा भू पर आई
चंहु ओर तांडव की छाया
पैसे वाले अर्थ चुकाकर
झेल रहे हैं अद्भुत माया
औ निर्धन का हाल बुरा है
बनता रोज काल का दाना।।

कैसे हो विश्वास कर्म पर
एक साथ सब भुगत रहे हैं
ढ़ाल धर्म की  टूटी फूटी
मार काल विकराल सहे हैं
सुधा बांट दो अब धरणी पर
शिव को होगा गरल पिलाना।।

कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

18 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना

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  2. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०४-१२-२०२०) को 'निसर्ग को उलहाना'(चर्चा अंक- ३९०६) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    --
    अनीता सैनी

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    1. बहुत बहुत आभार आपका मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर।

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    1. सादर आभार आपका आदरणीय उत्साहवर्धन हुआ।

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  4. कैसे हो विश्वास कर्म पर
    एक साथ सब भुगत रहे हैं
    ढ़ाल धर्म की टूटी फूटी
    मार काल विकराल सहे हैं
    सुधा बांट दो अब धरणी पर
    शिव को होगा गरल पिलाना।।..बहुत सुंदर अभिव्यक्ति...

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    1. सुंदर मनभावन प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सस्नेह आभार आपका।

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  5. बहुत बहुत सुंदर रचना । शुभ कामनाएं ।

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    1. जी बहुत बहुत आभार आपका।
      सक्रिय टिप्पणी से उत्साह वर्धन हुआ।
      सादर।

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  6. Replies
    1. जी बहुत बहुत आभार आपका।
      उत्साह वर्धक प्रतिक्रिया आपकी।

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  7. बहुत सुन्दर

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    1. बहुत बहुत आभार आपका।
      ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।

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  8. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका।
      उत्साह वर्धन हुआ।
      ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।

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  9. अब तो सुधा बँटनी ही चाहिए । अति सुन्दर ।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      सादर।

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