गीतिका:
अद्भुत प्रकृति
आसमान अब झुका धरा भरी उमंग से।
लो उठी अहा लहर मचल रही तरंग से।।
शुचि रजत बिछा हुआ यहाँ वहाँ सभी दिशा।
चाँदनी लगे टहल-टहल रही समंग से।।
वो किरण लुभा रही चढ़ी गुबंद पर वहाँ।
दौड़ती समीर है सवार हो पमंग से।।
रूप है अनूप चारु रम्य है निसर्ग भी ।
दृश्य ज्यों अतुल दिखा रही नटी तमंग से।।
जब त्रिविधि हवा चले इलय मचल-मचल उठे।
और कुछ विशाल वृक्ष झूमते मतंग से।
वो तुषार यूँ 'कुसुम' पिघल-पिघल चले वहाँ।
स्रोत बन सुरम्य अब उतर रहे उतंग से।।
इलय/गतिहीन
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'