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Monday, 28 June 2021

भाण


 भाण


गीत नव सुंदर रचे हैं

पाण रखना चाहिए।

जब लिखो तुम शब्द कहते 

भाण रखना चाहिए।


एक से बढ़ लेखनी है

काव्य रचती भाव भी

कल्पना की डोर न्यारी

और गहरे घाव भी

गंध को भरले हृदय में

घ्राण रखना चाहिए।।


हो विचारों में गहनता

संयमी जीवन रहे

कामना की दाह पर भी

बाँध से पानी बहे

लालसा बहती सुनामी

त्राण रखना चाहिए।।


नील कंठी शिव प्रभु में

तीक्ष्ण भी  है ओज भी

मनसिजा को भस्म करके

दपदपाया तेज भी

जीत की हर चाह पर कुछ

ठाण रखना चाहिए।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'


पाण=अभिनंदन ,भाण=ज्ञान ; बोध, ठाण=ठान घ्राण=सूंघने की शक्ति,मनसिजा =कामदेव

Saturday, 26 June 2021

किरीट सवैया छंद

विधा- किरीट सवैया  

शिल्प विधान :-12,12 वर्णों पर यती ,मापनी 211 211 211 211, 211 211 211 211


१) जग भंगुर

ये जग भंगुर जान अरे मनु, नित्य जपो सुख नाम निरंजन।

नाम जपे भव बंधन खंडित, दूर हटे  चहुँ ओर प्रभंजन।

अंतस को रख स्वच्छ अरे नर, शुद्ध करें शुभता मन मंजन।।

उत्तम भाव भरे नित पावन, सुंदर प्रेषित हो अभिव्यंजन।।


२)सावन

मंजुल रूप अनूप रचे महि, मोहित देख छटा अब सावन।

बाग तड़ाग सभी जल पूरित, पावस आज सखी मन भावन।

मंगल है शिव नाम जपो शुभ, मास सुहावन है अति पावन ।

वारि चढ़े सब रोग मिटे फिर, साधु कहे तन दाहक धावन।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

 

Tuesday, 22 June 2021

कवि का आत्म-मंथन


 कवि का मंथन


उकेर कविता पन्ने पर जब

मोती जैसे भाव जड़े

कितने तभी कलम के योद्धा

हाथ जोड़कर वहां खड़े।


निखरी निखरी लगती मुझको  

नदियाँ निर्मल पानी हो

चित्रकार की रचना मनहर 

रहा न जिसका सानी हो

लिखकर जिसको आत्मवंचना

आहा रचनाकार बड़े।।


गुरु हाथों जब हुआ गवेक्षण

पोल ढोल की दिखा गई

दर्पण जैसी प्रतिछाया में

शिल्प झोल सब सिखा गई

त्रस्त हुई चीत्कार करें फिर

कितने टुकड़े कटे पड़े।।


विनयवान साहित्य रचेगा

अभिमानी को ताव नहीं

रस अलंकार छंदों के बिन

कविता का कुछ भाव नही

मेधा और मनस मिल जाए

बने कल्पना पंख उड़े।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Friday, 18 June 2021

भाव पाखी


 भाव पाखी

खोल दिया जब मन बंधन से

उड़े भाव पाखी बनके 

बिन झाँझर ही झनकी पायल

ठहर-ठहर घुँघरू झनके।


व्योम खुला था ऊपर नीला

आँखों में सपने प्यारे

दो पंखों से नील नापलूँ

मेघ घटा के पट न्यारे

एक गवाक्ष खुला छोटा सा

टँगे हुए सुंदर मनके।।


अनुप वियदगंगा लहराती 

रूपक ऋक्ष खिले पंकज

जैसे माँ के प्रिय आँचल में 

खेल रहा है शिशु अंकज

बिखर रहा था स्वर्ण द्रव्य सा  

बिछा है चँदोवा तनके।।


फिर घर को लौटा खग वापस

खिला-खिला उद्दीप्त भरा

और चहकने लगा मुदित मन

हर कोना था हरा-हरा

खिलखिल करके महक रहे थे 

पात हरति हो उपवन के।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Wednesday, 16 June 2021

मरुभूमि


 मरुभूमि


भार सी मरुभूमि फैली 

सामना कर हौसलों से 

पार जब करना कठिन तब 

दूर कर सब अटकलों से।


रेत प्यासी बूँद चाहे 

बादलों का पात्र खाली 

बीतता मौसम कसकता 

हाथ मलता बैठ माली 

कौन भागीरथ रहा अब

वारि लायेगा तलों से।। 


तम बिखेरे रात काली 

चाँदनी का है कलुष मुख 

छा रहा घनघोर ऐसा 

भाग छूटा है सरस सुख 

पीर की विद्युत कड़कती 

कष्ट के इन बादलों से।।


पेट की ज्वाला बुरी है 

गर्म लावे सी दहकती 

राख हो इस आँच में फिर 

दो निवाले को भटकती 

छोड़ कर निज ग्राम देखो 

दूर कितने अंचलों से।।


  कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Monday, 14 June 2021

मैं बदरी कान्हा की सहेली!


मैं बदरी कान्हा की सहेली

बदरी मैं श्याम सलौनी
कान्हा की सहेली
काली फिर भी मन भाती
कैसी  ये पहेली।।

घुमड़ूँ मचलूँ  मैं हिरणी
हाथ कभी न आऊँ ‌
खाली होती भगती फिर
जल सिंधु से लाऊँ
हवा संग खेलूँ कब्ड्डी
लिए नीर अहेली।।

करें कलापि तात थैया
मुझे देख हरसते
याद करे पी को विरहन 
सूने दृग बरसते
मदंग मलंग मतवाली
उड़ूँ छितर कतेली।।

सूर्य ताप करती ठंडा
कृषक आशा बनती
चढ़ हवा हय की सवारी
कुलाचें नभ ठनती
कभी कभी दिखती जैसे 
बिछी गगन गदेली।।

कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Friday, 11 June 2021

मौसम में मधुमासी


 मौसम में मधुमासी


रिमझिम बूँदों की बारातें

मौसम में मधुमासी जागी।

संग मलय पुरवाई लहरी

जलती तपन धरा की भागी।


धानी चुनर पीत फुलवारी

धरा हुई रसवंती क्यारी।

जगा मिलन अनुराग रसा के

नाही धोई दिखती न्यारी‌।

अंकुर फूट रहे कोमल नव

पादप-पादप कोयल रागी।।


कादम्बिनी चढ़ सौदामिनी

दमक बिखेरे दौड़ रही है।

लगी लगन दोनों में भारी

हार जीत की होड़ रही है।

वसुधा गोदी बाल खेलते

छपक नाद अति मोहक लागी।।


बाग सजा है रंग बिरंगा 

जैसे सजधज खड़ी कामिनी।

श्वेत पुष्प रसराज लगे ज्यों

लता छोर से पटी दामिनी।

कली छोड़ शैशव लहकाई

श्यामल मधुप हुआ है बागी।।


कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

Wednesday, 9 June 2021

लो आया नया विहान


 लो आया नया विहान ।


प्रकृति लिये खड़ी कितने उपहार, 

चाहो तो समेट लो अपनी झोली में,

अँखिंयों की पलकों में ,

दिल की कोर में ,साँसों की सरगम में ।

लो आया नया विहान।।


देखो उषा की सुनहरी लाली कितनी मन भावन ,

उगता सूरज ,ओस की शीतलता

पंक्षियों की चहक ,फूलों की महक,

भर लो अंतर तक ,कलियों की चटक ।

लो आया नया विहान।।


कोयल की कुहूक मानो कानो में मिश्री घोलती ,

भँवरे की गुँजार ,नदियों की कल-कल,

सागर में प्रभंजन ,लहरों की प्रतिबद्धता ,

जो कर्म का पाठ पढाती बंधन में रह के भी ।

लो आया नया विहान।।


झरनों का राग,पहाड़ों की अचल दृढ़ता ,

सुरमई साँझ का लयबद्ध संगीत ,

नीड़ को लौटते विहंग ,अस्त होता भानु ,

निशा के दामन का अँधेरा कहता।

लो आया नया विहान।।


गगन में इठलाते मंयक की उजास भरती रोशनी ,

किरणों का चपलता से बिखरना ,

तारों की टिम-टिम ,दूर धरती गगन का मिलना,

बादलों की हवा में उडती डोलियाँ ।

लो आया नया विहान।।


बरसता सावन , मेघों का घुमड़ना, 

तितलियों की अपरिमित सुंदरता, 

न जाने क्या-क्या जिनका कोई मूल्य नही चुकाना, 

पर जो अनमोल भी है अभिराम भी ।।

लो आया नया विहान ।।


            कुसुम कोठारी  'प्रज्ञा'

Monday, 7 June 2021

गाँव की स्मृति


 गाँव की स्मृति


दो घड़ी आ पास बैठें 

पीपली की छांव गहरी 

कोयली की कूक सुन कर 

गोखरू की झनक ठहरी ।।


वो दिवस कितने सुहाने 

दौड़ते नदिया किनारे 

बाग में अमियां रसीली 

मोर नाचे पंख धारे 

खाट ढ़लती चौक खुल्ले 

नील नभ पर चाँद फेरी।। 


वात में था प्राण घुलता 

धान से आँगन गमकता 

बोलियाँ मीठी सरस सी 

तेज से आनन दमकता 

दर्द सुख सब साथ सहते 

प्रीत गहरी थी घनेरी।। 


चल पड़े उठ उठ कदम फिर 

खींचता वो कल्प सुंदर 

भूमि के राजा सभी थे 

और सब मन के सिकंदर  

सोचता मन गाँव प्यारा

ये डगर रंगीन मेरी ।।



कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

Friday, 4 June 2021

डोर आज्ञात के हाथ


 डोर आज्ञात के हाथ।


सागरी पानी उठा कर

झूम कर बदरी घमकती।


चाल चलता कौन ऊपर

डोर किसके हाथ रहती

नाट्य रचता है अनोखे

एक ओझल धार बहती

ताप दिनकर का तपाता

बन धरा कुन्दन चमकती।।


अंकुरित हो बीज नन्हा

चीरता आँचल धरित्री

और लहराके मटकता

कुश बनता है पवित्री

और कितने रंग अद्भुत

पंक में नलिनी गमकती।।


नीर बरसे क्षीर जैसा

बूंद बिन मेघा बरसती

रात की प्यारी सहेली

सूर्य क्रीड़ा को तरसती

पात पलने झूलती वो

ओस मोती सी दमकती।।


कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'