डोर आज्ञात के हाथ।
सागरी पानी उठा कर
झूम कर बदरी घमकती।
चाल चलता कौन ऊपर
डोर किसके हाथ रहती
नाट्य रचता है अनोखे
एक ओझल धार बहती
ताप दिनकर का तपाता
बन धरा कुन्दन चमकती।।
अंकुरित हो बीज नन्हा
चीरता आँचल धरित्री
और लहराके मटकता
कुश बनता है पवित्री
और कितने रंग अद्भुत
पंक में नलिनी गमकती।।
नीर बरसे क्षीर जैसा
बूंद बिन मेघा बरसती
रात की प्यारी सहेली
सूर्य क्रीड़ा को तरसती
पात पलने झूलती वो
ओस मोती सी दमकती।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
जी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०५ -०६-२०२१) को 'बादल !! तुम आते रहना'(चर्चा अंक-४०८७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत बहुत आभार आपका।, चर्चा मंच पर रचना को शामिल करने के लिए।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।
हम सब बस उसके हाथ की कठपुतली हैं; फिर चाहे वह हमें सोना बना दे या कोयला।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका सही कहा आपने उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
Deleteसादर।
बहुत अच्छी रचना, बधाई.
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका जेन्नी जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteसस्नेह।
हमेशा की तरह बहुत सुंदर।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका शिवम् जी।
Deleteसादर।
चाल चलता कौन ऊपर
ReplyDeleteडोर किसके हाथ रहती
नाट्य रचता है अनोखे
एक ओझल धार बहती
बस रचयिता के हाथों के कठपुतली ही तो है,हमेशा की तरह लाज़बाब सृजन कुसुम जी,सादर नमन आपको
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी आपकी सक्रिय सार्थक प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ।
Deleteसस्नेह।
बेहतरीन प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।
वाह! आपका कथन बिलकुल सत्य है,ये सुंदर सृष्टि किसी न किसी के द्वारा संचालित है,हम तो बस कठपुतली मात्र हैं,आपकी चिंतनपूर्ण सुंदर रचना को हृदय से नमन करती हूं। सादर शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteविस्तृत व्याख्या जब होती है रचना की लगता है लेखन सार्थक हुआ, आपसे सदा भरपूर स्नेह मिलता है जिज्ञासा जी ,आपकी मंथन करती प्रतिक्रिया सदा उर्जा का संचार करती है ।
Deleteसस्नेह।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका, उत्साह वर्धन के लिए, सादर ।
Deleteबहुत ही सुंदर रचना ।
ReplyDeleteचाल चलता कौन ऊपर
डोर किसके हाथ रहती
नाट्य रचता है अनोखे
बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसुंदर प्रतिक्रिया से लेखन सार्थक हुआ।
ब्लाग पर सदा स्वागत है आपका।
सस्नेह।
सुंदर सृजन
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आदरणीय।
Deleteसादर।
नमस्कार कुसुम जी, आप हर बार अपनी रचना से हमें आध्यात्म के नए सोपान पर ले जाती हैं,बहुत खूब... बहुत ही खूब...
ReplyDeleteअलकनंदा जी आपकी मुग्ध करती प्रतिक्रिया हरबार मुझे कुछ और अच्छा करने का संदेश देती है और प्रेरणा भी, बहुत बहुत सा आभार आपका सदा यूं ही स्नेह देते रहें ।
Deleteसस्नेह।
बिल्कुल डोर किसी और के हाथ है। बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका।
Deleteसादर।
हमेशा की तरह भावों व शब्दों का सौंदर्य बिखेरती रचना मुग्ध करती है।
ReplyDeleteसादर आभार आपका आपकी विश्लेषणात्मक प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ ।
Deleteसादर।
बेहद खूबसूरत रचना सखी।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका सखी।
Deleteवाह्ह्ह्ह्ह्ह!
ReplyDeleteपंक्ति-पंक्ति लाजवाब।
बेहद उम्दा 👌
आपकी लेखनी का सौंदर्य मनमोह लेता है।
सादर प्रणाम दीदी जी 🙏
बहुत बहुत आभार आपका आंचल सुंदर प्रतिक्रिया से सृजन सार्थक हुआ ।
Deleteसस्नेह।
और लहराके मटकता ।
ReplyDeleteये मटकता शब्द बहुत पसंद आया । आँखों के आगे एक नन्हा पौधा ज़मीन से निकलता है और हिलता हुआ दिख रहा । प्रकृति कैसे और किसके हाथों में है व्व तो अज्ञात है लेकिन आपने बहुत सुंदर शब्द चित्र खींच दिया है ।