मैं बदरी कान्हा की सहेली
बदरी मैं श्याम सलौनी
कान्हा की सहेली
काली फिर भी मन भाती
कैसी ये पहेली।।
घुमड़ूँ मचलूँ मैं हिरणी
हाथ कभी न आऊँ
खाली होती भगती फिर
जल सिंधु से लाऊँ
हवा संग खेलूँ कब्ड्डी
लिए नीर अहेली।।
करें कलापि तात थैया
मुझे देख हरसते
याद करे पी को विरहन
सूने दृग बरसते
मदंग मलंग मतवाली
उड़ूँ छितर कतेली।।
सूर्य ताप करती ठंडा
कृषक आशा बनती
चढ़ हवा हय की सवारी
कुलाचें नभ ठनती
कभी कभी दिखती जैसे
बिछी गगन गदेली।।
कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (15 -6-21) को "ख़ुद में ख़ुद को तलाशने की प्यास है"(चर्चा अंक 4096) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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कामिनी सिन्हा
बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी, रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए।
Deleteमैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
सादर सस्नेह।
बहुत बढ़िया👌
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका शिवम् जी।
Deleteसादर।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteसस्नेह आभार आपका जेन्नी जी।
Deleteअति सुंदर ।
ReplyDeleteकान्हा की गोपिकाओं, सहेलियों में एक और इजाफा
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका गगन जी।
Deleteसादर।
वाह बहुत ही खूबसूरत सृजन है।
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका संदीप जी।
Deleteउत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
सादर।
ReplyDeleteबदरी मैं श्याम सलूनी
कान्हा की सहेली
काली भी मन भाती
ऐसे पहेली।।
बहुत खूब
बहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया।
Deleteसादर।
घुमड़ूँ मूँछ मैं हिरणी
ReplyDeleteकिसी भी जगह न आऊं
खाली समय भगत फिर
जल सिंधु से लाऊं
हवा के साथ खेल कबड्डी
नीर अहेली के लिए .
वाह!!!
सावन के काले बादलों की उमड़ घुमड़ और छटा विखर गयी आँखों में ....लाजवाब शब्दचित्रण...
अद्भुत शब्दसंयोजन।
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी।
Deleteआपकी टिप्पणी सदा उत्साहवर्धक होती है,लेखन में उर्जा का संचार करती है।
सस्नेह।
कविता टेग करते समय कुछ असावधानी वश पूरी कविता अपने आप अनुवाद हो गई जो बहुत ही अलग और अजीब शब्द थे।
ReplyDeleteमैंने अभी ध्यान दिया और ठीक की है ।🙏
वाह!बहुत ही सुंदर सृजन दी सराहनीय बहुत ही सुंदर।
ReplyDeleteआपकी कल्पना पर वारी जाऊँ।
सादर
बहुत बहुत आभार आपका अनिता, उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया।
Deleteसस्नेह।
आपका प्राकृतिक रंगों से सरोबोर सृजन हमेशा सुंदर छटाओं को बिखेर जाता है,प्रकृति तो मनमोहनी है ही,आप लिखती भी मोहक हैं,बहुत सुंदर कुसुम जी ।
ReplyDeleteआपकी मोहक प्रतिक्रिया से साधारण सा सृजन भी मुखरित हो जाता है जिज्ञासा जी।
Deleteसदा स्नेह मिलता रहे।
बहुत बहुत आभार आपका।
सस्नेह।
बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आलोक जी ।
Deleteसादर।
दिल्ली की गर्मी में भी आपकी कविता ठंडी फुहार बरसा रही । सुंदर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteजी बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
ReplyDeleteसादर।
बहुत बहुत आभार आपका संगीता जी।
ReplyDeleteआपकी दिल्ली तप रही है हमारा बंगाल उफन रहा है ।
मानसून अपने उफान पर है।
सस्नेह।
मनमोहक प्रस्तुति
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