Monday, 14 June 2021

मैं बदरी कान्हा की सहेली!


मैं बदरी कान्हा की सहेली

बदरी मैं श्याम सलौनी
कान्हा की सहेली
काली फिर भी मन भाती
कैसी  ये पहेली।।

घुमड़ूँ मचलूँ  मैं हिरणी
हाथ कभी न आऊँ ‌
खाली होती भगती फिर
जल सिंधु से लाऊँ
हवा संग खेलूँ कब्ड्डी
लिए नीर अहेली।।

करें कलापि तात थैया
मुझे देख हरसते
याद करे पी को विरहन 
सूने दृग बरसते
मदंग मलंग मतवाली
उड़ूँ छितर कतेली।।

सूर्य ताप करती ठंडा
कृषक आशा बनती
चढ़ हवा हय की सवारी
कुलाचें नभ ठनती
कभी कभी दिखती जैसे 
बिछी गगन गदेली।।

कुसुम कोठारी'प्रज्ञा'

26 comments:

  1. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल .मंगलवार (15 -6-21) को "ख़ुद में ख़ुद को तलाशने की प्यास है"(चर्चा अंक 4096) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
    --
    कामिनी सिन्हा

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    1. बहुत बहुत आभार आपका कामिनी जी, रचना को चर्चा में स्थान देने के लिए।
      मैं मंच पर उपस्थित रहूंगी।
      सादर सस्नेह।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका शिवम् जी।
      सादर।

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    1. सस्नेह आभार आपका जेन्नी जी।

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  4. कान्हा की गोपिकाओं, सहेलियों में एक और इजाफा

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    1. बहुत बहुत आभार आपका गगन जी।
      सादर।

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  5. वाह बहुत ही खूबसूरत सृजन है।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका संदीप जी।
      उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया।
      सादर।

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  6. बदरी मैं श्याम सलूनी

    कान्हा की सहेली

    काली भी मन भाती

    ऐसे पहेली।।

    बहुत खूब

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    1. बहुत बहुत आभार आपका उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया।
      सादर।

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  7. घुमड़ूँ मूँछ मैं हिरणी
    किसी भी जगह न आऊं
    खाली समय भगत फिर
    जल सिंधु से लाऊं
    हवा के साथ खेल कबड्डी
    नीर अहेली के लिए .
    वाह!!!
    सावन के काले बादलों की उमड़ घुमड़ और छटा विखर गयी आँखों में ....लाजवाब शब्दचित्रण...
    अद्भुत शब्दसंयोजन।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी।
      आपकी टिप्पणी सदा उत्साहवर्धक होती है,लेखन में उर्जा का संचार करती है।
      सस्नेह।

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  8. कविता टेग करते समय कुछ असावधानी वश पूरी कविता अपने आप अनुवाद हो गई जो बहुत ही अलग और अजीब शब्द थे।
    मैंने अभी ध्यान दिया और ठीक की है ।🙏

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  9. वाह!बहुत ही सुंदर सृजन दी सराहनीय बहुत ही सुंदर।
    आपकी कल्पना पर वारी जाऊँ।
    सादर

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    1. बहुत बहुत आभार आपका अनिता, उत्साहवर्धन करती प्रतिक्रिया।
      सस्नेह।

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  10. आपका प्राकृतिक रंगों से सरोबोर सृजन हमेशा सुंदर छटाओं को बिखेर जाता है,प्रकृति तो मनमोहनी है ही,आप लिखती भी मोहक हैं,बहुत सुंदर कुसुम जी ।

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    1. आपकी मोहक प्रतिक्रिया से साधारण सा सृजन भी मुखरित हो जाता है जिज्ञासा जी।
      सदा स्नेह मिलता रहे।
      बहुत बहुत आभार आपका।
      सस्नेह।

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  11. Replies
    1. बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी ।
      सादर।

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  12. दिल्ली की गर्मी में भी आपकी कविता ठंडी फुहार बरसा रही । सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

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  13. जी बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
    सादर।

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  14. बहुत बहुत आभार आपका संगीता जी।
    आपकी दिल्ली तप रही है हमारा बंगाल उफन रहा है ।
    मानसून अपने उफान पर है।
    सस्नेह।

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  15. मनमोहक प्रस्तुति

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