Wednesday, 16 June 2021

मरुभूमि


 मरुभूमि


भार सी मरुभूमि फैली 

सामना कर हौसलों से 

पार जब करना कठिन तब 

दूर कर सब अटकलों से।


रेत प्यासी बूँद चाहे 

बादलों का पात्र खाली 

बीतता मौसम कसकता 

हाथ मलता बैठ माली 

कौन भागीरथ रहा अब

वारि लायेगा तलों से।। 


तम बिखेरे रात काली 

चाँदनी का है कलुष मुख 

छा रहा घनघोर ऐसा 

भाग छूटा है सरस सुख 

पीर की विद्युत कड़कती 

कष्ट के इन बादलों से।।


पेट की ज्वाला बुरी है 

गर्म लावे सी दहकती 

राख हो इस आँच में फिर 

दो निवाले को भटकती 

छोड़ कर निज ग्राम देखो 

दूर कितने अंचलों से।।


  कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'

20 comments:

  1. पेट की ज्वाला बुरी है

    गर्म लावे सी दहकती

    राख हो इस आँच में फिर

    दो निवाले को भटकती

    छोड़ कर निज ग्राम देखो त

    दूर कितने अंचलों से।।

    वाह!!!
    बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब नवगीत ..।
    पेट की आग बुझाने हेतु अपने घर गाँवों दूर अपनों से दूर मुसीबतें झेलते हर गरीब का जीवन भी मरुभूमि जैसा रिक्त एवं बीहड़ हो जाता है।
    बहुत ही लाजवाब।

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    1. गहन समीक्षात्मक दृष्टि से रचना का मंथन करने के लिए हृदय तल से आभार सुधा जी।
      लेखन सार्थक हुआ।
      सस्नेह।

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  2. पेट की ज्वाला बुरी है

    गर्म लावे सी दहकती

    राख हो इस आँच में फिर

    दो निवाले को भटकती

    छोड़ कर निज ग्राम देखो

    दूर कितने अंचलों से।।
    दिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना,कुसुम दी।

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    1. विस्तृत व्याख्या से उत्साह वर्धन हुआ ज्योति बहन।
      बहुत बहुत आभार आपका।
      सस्नेह।

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  3. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-06-2021को चर्चा – 4,098 में दिया गया है।
    आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
    धन्यवाद सहित
    दिलबागसिंह विर्क

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    1. बहुत बहुत आभार आपका, मैं मंच पर अवश्य उपस्थित रहूंगी।
      सादर।

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  4. रेत प्यासी बूँद चाहे

    बादलों का पात्र खाली

    बीतता मौसम कसकता

    हाथ मलता बैठ माली

    कौन भागीरथ रहा अब

    वारि लायेगा तलों से।। ..बहुत सुंदर सृजन,सार्थक सटीक अभिव्यक्ति,सादर शुभकामनाएं ।

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    1. विस्तृत व्याख्यात्मक टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ जिज्ञासा जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
      स्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार।
      सस्नेह।

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  6. पेट की ज्वाला बुरी है

    गर्म लावे सी दहकती

    राख हो इस आँच में फिर

    दो निवाले को भटकती

    छोड़ कर निज ग्राम देखो

    दूर कितने अंचलों से।।

    बहुत सुन्दर।

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    1. बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
      सदा स्नेह बनाए रखें।
      सस्नेह।

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  7. क्‍या कुछ कह सकती हूं मैं कुसुम जी ? बस एक एक पंक्‍त‍ि पर न‍ि:शब्‍द हुई जाती हूं---

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    1. हृदय से आभार आपका अलकनंदा जी, आपकी प्रतिपंक्तिया बहुत कुछ कह रही है, वैसे आपका पोस्ट पर आना ही मेरे लिए सम्मान का विषय है ।
      सस्नेह।

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  8. पेट की ज्वाला बुरी है

    गर्म लावे सी दहकती

    राख हो इस आँच में फिर

    दो निवाले को भटकती

    छोड़ कर निज ग्राम देखो

    दूर कितने अंचलों से।।..बहुत ही मार्मिक अथाह गहराई लिए सराहनीय सृजन।
    सादर

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    1. बहुत बहुत आभार प्रिय अनिता, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई,और लेखन को नव उर्जा मिली।
      सस्नेह।

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  9. बहुत बहुत सुन्दर

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    1. बहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
      सादर।

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  10. हर बन्द अलग विषय लिए हुए । बेहतरीन रचना

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    1. बहुत बहुत आभार आपका संगीता जी ।
      गहन दृष्टि आपकी, वैसे मुखड़ा ही आह्वान कर रहा है हर विसंगतियों के लिए।

      सादर सस्नेह।

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  11. पेट की ज्वाला बुरी है

    गर्म लावे सी दहकती

    राख हो इस आँच में फिर

    दो निवाले को भटकती
    हृदयस्पर्शी सृजन सखी।

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