मरुभूमि
भार सी मरुभूमि फैली
सामना कर हौसलों से
पार जब करना कठिन तब
दूर कर सब अटकलों से।
रेत प्यासी बूँद चाहे
बादलों का पात्र खाली
बीतता मौसम कसकता
हाथ मलता बैठ माली
कौन भागीरथ रहा अब
वारि लायेगा तलों से।।
तम बिखेरे रात काली
चाँदनी का है कलुष मुख
छा रहा घनघोर ऐसा
भाग छूटा है सरस सुख
पीर की विद्युत कड़कती
कष्ट के इन बादलों से।।
पेट की ज्वाला बुरी है
गर्म लावे सी दहकती
राख हो इस आँच में फिर
दो निवाले को भटकती
छोड़ कर निज ग्राम देखो
दूर कितने अंचलों से।।
कुसुम कोठारी 'प्रज्ञा'
पेट की ज्वाला बुरी है
ReplyDeleteगर्म लावे सी दहकती
राख हो इस आँच में फिर
दो निवाले को भटकती
छोड़ कर निज ग्राम देखो त
दूर कितने अंचलों से।।
वाह!!!
बहुत ही हृदयस्पर्शी लाजवाब नवगीत ..।
पेट की आग बुझाने हेतु अपने घर गाँवों दूर अपनों से दूर मुसीबतें झेलते हर गरीब का जीवन भी मरुभूमि जैसा रिक्त एवं बीहड़ हो जाता है।
बहुत ही लाजवाब।
गहन समीक्षात्मक दृष्टि से रचना का मंथन करने के लिए हृदय तल से आभार सुधा जी।
Deleteलेखन सार्थक हुआ।
सस्नेह।
पेट की ज्वाला बुरी है
ReplyDeleteगर्म लावे सी दहकती
राख हो इस आँच में फिर
दो निवाले को भटकती
छोड़ कर निज ग्राम देखो
दूर कितने अंचलों से।।
दिल को छूती बहुत ही सुंदर रचना,कुसुम दी।
विस्तृत व्याख्या से उत्साह वर्धन हुआ ज्योति बहन।
Deleteबहुत बहुत आभार आपका।
सस्नेह।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 17-06-2021को चर्चा – 4,098 में दिया गया है।
ReplyDeleteआपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी।
धन्यवाद सहित
दिलबागसिंह विर्क
बहुत बहुत आभार आपका, मैं मंच पर अवश्य उपस्थित रहूंगी।
Deleteसादर।
ReplyDeleteरेत प्यासी बूँद चाहे
बादलों का पात्र खाली
बीतता मौसम कसकता
हाथ मलता बैठ माली
कौन भागीरथ रहा अब
वारि लायेगा तलों से।। ..बहुत सुंदर सृजन,सार्थक सटीक अभिव्यक्ति,सादर शुभकामनाएं ।
विस्तृत व्याख्यात्मक टिप्पणी से लेखन सार्थक हुआ जिज्ञासा जी आपकी प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई।
Deleteस्नेहिल प्रतिक्रिया के लिए हृदय से आभार।
सस्नेह।
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ReplyDeleteपेट की ज्वाला बुरी है
ReplyDeleteगर्म लावे सी दहकती
राख हो इस आँच में फिर
दो निवाले को भटकती
छोड़ कर निज ग्राम देखो
दूर कितने अंचलों से।।
बहुत सुन्दर।
बहुत बहुत आभार आपका सुधा जी आपकी मोहक प्रतिक्रिया से रचना सार्थक हुई।
Deleteसदा स्नेह बनाए रखें।
सस्नेह।
क्या कुछ कह सकती हूं मैं कुसुम जी ? बस एक एक पंक्ति पर नि:शब्द हुई जाती हूं---
ReplyDeleteहृदय से आभार आपका अलकनंदा जी, आपकी प्रतिपंक्तिया बहुत कुछ कह रही है, वैसे आपका पोस्ट पर आना ही मेरे लिए सम्मान का विषय है ।
Deleteसस्नेह।
पेट की ज्वाला बुरी है
ReplyDeleteगर्म लावे सी दहकती
राख हो इस आँच में फिर
दो निवाले को भटकती
छोड़ कर निज ग्राम देखो
दूर कितने अंचलों से।।..बहुत ही मार्मिक अथाह गहराई लिए सराहनीय सृजन।
सादर
बहुत बहुत आभार प्रिय अनिता, आपकी उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया से रचना मुखरित हुई,और लेखन को नव उर्जा मिली।
Deleteसस्नेह।
बहुत बहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका आलोक जी।
Deleteसादर।
हर बन्द अलग विषय लिए हुए । बेहतरीन रचना
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका संगीता जी ।
Deleteगहन दृष्टि आपकी, वैसे मुखड़ा ही आह्वान कर रहा है हर विसंगतियों के लिए।
सादर सस्नेह।
पेट की ज्वाला बुरी है
ReplyDeleteगर्म लावे सी दहकती
राख हो इस आँच में फिर
दो निवाले को भटकती
हृदयस्पर्शी सृजन सखी।